ॐ
बुद्धदेव के उपदेश का वह अंश तुमको स्मरण होगा कि वे किस प्रकार उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ऊपर, नीचे सर्वत्र ही प्रेम की भावना प्रवाहित कर देते थे, यहाँ तक कि चारों ओर वही महान् अनन्त प्रेम सम्पूर्ण विश्व में छा जाता था।
इसी प्रकार जब तुम लोगों का भी यही भाव होगा, तब तुम्हारा भी यथार्थ व्यक्तित्व प्रकट होगा। तभी सम्पूर्ण जगत् एक व्यक्ति बन जायेगा - क्षुद्र वस्तुओं की ओर फिर मन नहीं जायेगा। इस अनन्त सुख के लिए छोटी-छोटी वस्तुओं का परित्याग कर दो। इन सब क्षुद्र सुखों से तुम्हें क्या लाभ होगा? और वास्तव में तो तुम्हें इन छोटे-छोटे सुखों को भी छोडना नहीं पडता, कारण, तुम लोगों को याद होगा कि सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है, जो मैं पहले ही कह चुका हूँ। अतएव ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों ही है।
मनुष्य - अनन्तस्वरूप निर्गुण मनुष्य भी - अपने को सगुण रूप में, व्यक्ति के रूप में देख रहा है; मानो हम अनंतस्वरूप होकर भी अपने को क्षुद्र रूपों में सीमाबद्ध बना डालते हैं।
वेदान्त कहता है असीमता ही हमारा सच्चा स्वरूप है, वह कभी लुप्त नहीं हो सकती, सदा रहेगी। किन्तु हम अपने कर्म द्वारा अपने को सीमाबद्ध कर डालते हैं और उसी ने मानो हमारे गले में श्रृंखला डालकर हमें आबद्ध कर रखा है। श्रृंखला तोड डालो और मुक्त हो जाओ। नियम को पैरों तले कुचल डालो। मनुष्य के प्रकृतस्वरूप में कोई विधि नहीं, कोई दैव नहीं,, कोई अदृष्ट नहीं। अनन्त में विधान या नियम कैसे रह सकते हैं? स्वाधीनता ही इसका मूल मंत्र है, स्वाधीनता ही इसका स्वरूप है - इसका जन्मसिद्ध अधिकार है। पहले मुक्त बनो, तब फिर जितने व्यक्तित्व रखना चाहो, रखो। तब हम लोग रंगमंच पर अभिनेताओं के समान अभिनय करेंगे, जैसे अभिनेता भिखारी का अभिनय करता है। उसकी तुलना गलियों में भटकने वाले वास्तविक भिखारी से करो। यद्यपि दृश्य दोनों ओर एक है, वर्णन करने में भी एक-सा है, किन्तु दोनों में कितना भेद है एक व्यक्ति भिक्षुक का अभिनय कर आनन्द ले रहा है, और दूसरा सचमुच दुःख कष्ट से पीडित है।
(VIII, ३१-३२)
Kind Attention
If any of your friend or family want to receive they can simply send email to daily-katha+subscribe@
If you face any difficulty in join please drop a email to katha@vkendra.org with your contact detail, alternatively feel free to call Sri Hardik at 076396-70994 for quick help.
Read n Get Articles, Magazines, Books @ http://prakashan.
मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
No comments:
Post a Comment