Thursday, 24 July 2014

सच्ची स्वतन्त्रता


            वह सम्पूर्णतः स्वतन्त्र अवस्था, जहाँ कोई बन्धन नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, प्रकृति नहीं, कुछ ऐसा भी नहीं जो उसमें कोई परिणाम उत्पन्न कर सके - वेदान्त के ईश्वर-सम्बन्धी इन धारणाओं की जड में पूर्ण स्वतंत्रता से उत्पन्न आनन्द विचारशक्ति के धर्म की यह धारणा सर्वोच्च है। यह स्वातन्त्र्य तुम्हारे भीतर है, मेरे भीतर है और यही एकमात्र यथार्थ स्वातन्त्र्य है।

 

            विश्व का स्पन्दन स्वतन्त्रता का ही प्रकाश है। सब के ह्रदय में यदि एकत्व होता, तो हम विविधता को समझ ही नहीं सकते थे। उपनिषद् में ईश्वर की धारणा इसी प्रकार की है। कभी-कभी यह धारणा और भी सूक्ष्म हो जाती है और हमारे सामने एक ऐसे आदर्श की स्थापना करती है, जिससे पहले-पहल तो हमें स्तम्भित हो जाना पडता है। वह आदर्श यह है कि स्वरूपतः हम ईश्वर से अभिन्न हैं।

                                                              (II, २९८)

 

                            हिन्दुत्व अद्वितीय है कि यह आकांक्षियों से सलाह लेता है कि वे धार्मिक आदर्शों को अपनायें और सत्य को प्राप्त करें। केवल वही व्यक्ति वास्तविक मुक्ति का आनन्द उठा सकता है जो प्रकृति के दोहरेपन से बाहर निकल कर अपने मन को विस्तृत बना लेता है। इसीलिए स्वामीजी प्रश्न करते हैं:

 

            "मृत्यु क्या है? आतंक क्या है? उन सब में क्या तुम्हें प्रभु का आनन दिखायी नहीं देता? दुःख, कष्ट और आतंक से दूर भागकर देखो-वे तुम्हारा पीछा करेंगे। उनके सामने खडे हो जाओ, वे भाग जायेंगे। सारा संसार सुख और आराम का उपासक है; जो कष्ट प्रद है, उसकी उपासना करने का साहस बहुत कम लोग करते हैं। इन दोनों का अतिक्रमण ही मुक्ति है।"

 

            यह मुक्ति अथवा स्वतंत्रता ही वह लक्ष्य था जिसे स्वामीजी ने कर्म, भक्ति और ज्ञान योग के मार्ग से अधिक महत्व दिया। कर्म दूसरों को प्रेम करने और उनकी सेवा करने का सतत प्रयास होना चाहिए, भक्ति से प्रार्थना करना, चिन्तन करना, ईश्वर का गौरव-गान करना और उसकी सर्वव्यापकता को समझना, और ज्ञान, चिन्तन के माध्यम से उस सर्वोपरि के एकत्व के विचार द्वारा सुख प्रदान करता है।


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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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