Monday 28 July 2014

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड "तुम" (परमात्मा) है


           यह ब्रह्माण्ड स्वयं 'तुम' है; अविभक्त तुम। तुम इस समस्त जगत में ओतप्रोत हो। 'समस्त हाथों से तुम काम कर रहे हो, समस्त मुखों से तुम खा रहे हो। समस्त नासा-रंन्ध्रों से तुम श्वास-प्रश्वास ले रहे हो, समस्त मन से तुम विचार कर रहे हो।' समग्र जगत् ही तुम हो, यह ब्रह्माण्ड तुम्हारा शरीर है। तुम्हीं व्यक्त और अव्यक्त जगत् दोनों ही हो। तुम्हीं जगत् की आत्मा हो तथा तुम्हीं उसका शरीर भी हो। तुम्हीं ईश्वर हो, तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं मनुष्य हो, तुम्हीं पशु हो, तुम्हीं उद्भिद हो, तुम्हीं खनिज हो, तुम्हीं सब हो-समग्र व्यक्त जगत् ही तुम हो। जो कुछ है, सब तुम हो।

 

            तुम असीम हो। असीम को विभक्त नहीं किया जा सकता। इसका कोई अंश नहीं हो सकता, क्योंकि तब प्रत्येक अंश असीम होगा, और तब अंश और पूर्ण में कोई भेद नहीं रह जायेगा, जो एक असंगत बात है। अतएव यह बात कि तुम श्री अमुक हो, कभी सत्य नहीं हो सकती, यह केवल दिवा-स्वप्न है। यह जान लो और मुक्त हो जाओ। यही अद्वैत का निष्कर्ष है।

 

            'मैं तो देह हूँ, इन्द्रिय और मन ही; मैं अखण्ड सच्चिदानंद हूँ, मैं ही वह हूँ, मैं ही वह हूँ।' यही यथार्थ ज्ञान है, तर्क तथा बुद्धि तथा अन्य सब अज्ञान है। मैं तब कौन-सा ज्ञान-लाभ करूँगा? मैं स्वयं ज्ञानस्वरूप हूँ। मैं कौन-सा जीवन प्राप्त करूँगा? मैं स्वयं जीवन-स्वरूप हूँ, एक सद्वस्तु हूँ और ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो मेरे द्वारा प्रकाशित नहीं है, जो मुझ में नहीं है और जो मेरे स्वरूप में अवस्थित नहीं है। मैं ही भूतसमूह के रूप में अभिव्यक्त हुआ हूँ। किन्तु मैं एक मुक्तस्वरूप हूँ। कौन मुक्ति चाहता है? कोई भी नहीं। यदि तुम अपने को बद्ध सोचो, तो बद्ध ही रहोगे, तुम स्वतः ही अपने बन्धन के कारण होओगे। यदि तुम अनुभव करो कि तुम मुक्त हो, तो इसी क्षण तुम मुक्त हो।

 

            यही ज्ञान है-मुक्तिप्रद ज्ञान। समग्र प्रकृति का चरम लक्ष्य ही मुक्ति है।

 (IV, २१८-२१९)


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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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