Thursday, 31 July 2014

स्वाधीनता, समता और बन्धुता

आजकल के जमाने में इसी सतयुगी भावना से समस्त-स्वाधीनता-बन्धुतावली समता का रूप धारण कर लिया है। पर यह भी एक धर्मान्धता है। यथार्थ समता न तो संसार में कभी हुई है और न कभी होने की आशा है। यहाँ हम सब समान हो ही कैसे सकते हैं?

इस प्रकार की असम्भव सफलता का फल तो मृत्यु ही होगा! यह जगत जैसा है, वैसा क्यों है? नष्ट सन्तुलन के कारण। साम्य का अाभाव, केवल वैषम्यभाव। आद्यावस्था में-जिसे प्रलय कहा जाता है-पूर्ण संतुलन हो सकता है। तब फिर इन सब निर्माणशील विभिन्न शक्तियों का उद्भव किस प्रकार होता है?-विरोध, प्रतियोगिता एवं प्रतिद्वंद्विता द्वारा ही। मान लो कि संसार के सब भौतिक परमाणु साम्यावस्था में स्थित हो जायें-तो फिर क्या सृष्टि की प्रक्रिया हो सकेगी?

विज्ञान हमें सिखाता है कि यह असम्भव है। स्थिर जल को हिला दो; तुम देखोगे कि प्रत्येक जलबिन्दु फिर से स्थिर होने की चेष्टा करता है, एक-दूसरे की ओर इसी हेतु दौडता है। इसी प्रकार इस जगत्-प्रपंच में समस्त ध्वनियाँ एवं समस्त पदार्थ अपने पूर्ण साम्यभाव को पुनः प्राप्त करने के लिए चेष्टा कर रहे हैं। पुनः वैषम्यावस्था आती है और उससे पुनः इस सृष्टिरूप मिश्रण की उत्पत्ति हो जाती है। विषमता सृष्टि की नींव है। परन्तु साथ ही वे शक्तियाँ भी, जो साम्यभाव स्थापित करने की चेष्टा करती हैं, सृष्टि के लिए उतनी ही अावश्यक हैं, जितनी कि वे, जो उस साम्यभाव को नष्ट करने का प्रयत्न करती हैं। (II, ८६)


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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji

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