Sunday 13 July 2014

केवल अद्वैत ही नैतिकता की व्याख्या कर सकता है



    हर एक धर्म(संप्रदाय) यही प्रचार कर रहा है कि सब नैतिक तत्वों का सार दूसरों की हित साधना ही है।     क्यों हम दूसरों का हित करें?
    निःस्वार्थ होना चाहिए।     क्यों हमें निःस्वार्थ होना चाहिए?
    कोई देवता ऐसा कह गये हैं?     वे देवता मेरे लिए मान्य नहीं है।
    शास्त्रों ने ऐसा कहा है -        शास्त्र कहते रहें, क्यों हम उसे मानें? शास्त्र यदि ऐसा कहते हैं तो मेरे लिए उनका क्या महत्व है?

    संसार के अधिकांश आदमियों की यही नीति रही है कि वे अपना ही भला ताकते हैं। हर एक व्यक्ति अपनी-अपनी हित साधना करे, कोई न कोई सबसे पीछे रहेगा। किस कारण मैं नैतिक बनूँ? जब तक गीता में वर्णित इस सत्य को नहीं जानोगे, तब तक तुम इसकी व्याख्या नहीं कर सकते। 'जो महात्मा अपनी आत्मा को सब भूतों में स्थित देखता है और आत्मा में सब भूतों को देखता है, वह इस तरह ईश्वर को सर्वत्र समभाव में अवस्थित देखता हुआ आत्मा द्वारा आत्मा की हिंसा नहीं करता।'

    अद्वैतवाद की शिक्षा से तुम्हें यह ज्ञान होता है कि दूसरों की हिंसा करते हुए तुम अपनी ही हिंसा करते हो, क्योंकि वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हें मालूम हो या न हो, सब हाथों से तुम्हीं कार्य कर रहे हो, सब पैरों से तुम्हीं चल रहे हो, राजा के रूप में तुम्हीं प्रसाद में सुखों का भोग कर रहे हो, फिर तम्हीं रास्ते के भिखारी के रूप में अपना दुःखमय जीवन बिता रहे हो। अज्ञानी में भी तुम हो, विद्वान में भी तुम हो, दुर्बल में भी तुम हो, सबल में भी तुम हो। इस तत्व का ज्ञान प्राप्त कर तुम्हें सबके प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए।

    चूँकि दूसरे को कष्ट पहुँचाना अपने ही को कष्ट पहुँचाना है, इसलिए हमें कदापि दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहिए। इसीलिए मैं बिना भोजन के मर भी जाऊँ तो भी मुझे इसकी चिन्ता नहीं, क्योंकि जिस समय मैं भूखा मर रहा हूँ उस समय मैं लाखों मुँह से भोजन भी कर रहा हूँ। अतएव यह 'मै', 'मेरा' - इन सब विषयों पर हमें ध्यान ही नहीं देना चाहिए, यह सम्पूर्ण संसार मेरा ही है, मैं ही एक दूसरी रीति से संसार के सम्पूर्ण आनन्द का भोग कर रहा हूँ। और, मेरा या इस संसार का विनाश भी कौन कर सकता है? इस तरह देखते हो, अद्वैतवाद ही नैतिक तत्वों की एकमात्र व्याख्या है।

    अन्यान्य वाद तुम्हें नैतिकता की शिक्षा दे सकते हैं, परन्तु हम क्यों नीति-परायण हों, इसका हेतु निर्देश नहीं कर सकते।             
(V, ३१५-३१६)
 
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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