Monday 11 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 8

'प्रसन्न रहो तथा अन्यों को भी प्रसन्न रखो'
कल्याण महाराज मितभाषी थे। वे शब्दों द्वारा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं देते थे – अपितु उनका जीवन ही एक महान् आदर्श था। वे जो कुछ जाते हो तो वहाँ फलों, फूलों, स्तोत्रों तथा मन्त्रों सहित जाते हो। जब तुम अस्पताल में जाते हो तो वहाँ भोजन-पथ्य, दवाइयों तथा बोड़े-से सहानुभूतिपूर्ण शब्दों सहित जाते हो। दोनों बिल्कुल एक समान हैं। तुम जो कुछ मन्दिर में करते हो और जो कुछ अस्पताल में करते हो वह एक दूसरे से भिन्त्र नहीं है।। यही स्वामी (विवेकानन्द) जी का आदर्श है। अतः, हमेशा ही ऐसी विचारशीलता का दृष्टिकोण रखो। अपना प्रत्येक व्यवहार अतिसावधानीपूर्वक निर्मल रखो। उनके प्रति स्नेही तथा करुणाशील बनो। वे सभी तुम्हारी सहायता चाहते हैं। जाओ!' इस प्रकार के छोटे छोटे उपदेश देकर वे हमें अस्पताल भेजा करते थे।

एक दिन महाराज ने मुझे बताया, 'इसे "Sick-house" (रुग्ण- शाला) के बजाय "Hospital" (अस्पताल) क्यों कहा जाता है? – इसलिये कि हमें Hospitable (सत्कारशील) होना आवश्यक है। जब लोग आते हैं तो सत्कारशीलता मुख्य बात है। इसे भूलो मत। और "Patient" (रोगी)? Patient (रोगी) क्या है? वे सभी रोगग्रस्त लोग हैं। उनसे व्यवहार करते समय तुममें Patience (धीरता) अवश्य होनी चाहिये। वे "Patient" (रोगी) कहे जाते हैं क्योंकि वे तुम्हें यह सिखाते है कि Patient (धैर्यवान) कैसे बना जाए।'

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Sunday 10 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 7

महाराज की दिनचर्या

प्रतिदिन प्रातःकाल नाश्ते के बाद मैं उनके कमरे में जाता। फिर हम रोगियों के कक्षों में जाते, वहाँ से बगीचे में, वहाँ काम में लगे लोगों को देखते; फिर गोशाला में; इसके बाद पुस्तकालय में और फिर मन्दिर में जाते। बाद में हम रसोईघर में जाते और सम्भवतः रसोइये को कुछ बताते; फिर वे धीरे धीरे लौट आते। इसके बाद वे कुछ आहार लेते और रोगियों को एक एक कर देखने पुनः अस्पताल जाते। इसमें सन्देह नहीं कि रोगियों को देखने के लिये वहाँ डॉक्टर था। परन्तु डॉक्टर के अतिरिक्त वे स्वयं प्रत्येक रोगी से जान-पहचान रखते थे कि उसे क्या दिया गया है, और वह कैसा अनुभव कर रहा है। वे रोगी के पास बैठ जाते तथा उसका स्पर्श करते हुए कहते, 'कल रात तुम अच्छी तरह सोये थे?' और वे उसका हाल- चाल पूछते। यह सब वे बहुत अच्छे ढंग से पूछते। प्रत्येक रोगी के पास वे काफी समय बिताते। हमारे पास पैंतीस से चालीस रोगी रहते थे - इससे अधिक नहीं। वे प्रत्येक रोगी से बातचीत किया करते थे। यदि कुछ आवश्यकता होती तो वे मुझे कहते कि जाकर अमुक दवाई ले आओ या डाक्टर को बुलाने को कहते। यह हर रोज का नित्यक्रम था।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)

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Saturday 9 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 6

मेरे प्रशिक्षण का प्रारम्भ

परन्तु हिसाब-किताब देखने से भी अधिकतर में साये की तरह हमेशा उनके साथ घूमता-फिरता था। वे जहाँ भी जाते, जो कुछ भी करते, मैं उनकी हर बात का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता। मुझे और कुछ करने के लिये नहीं कहा गया था। मेरा केवल इतना ही काम था कि मैं उनके साथ रहूँ। कुछ सप्ताह बाद मैंने उन्हें पुनः कहा कि मैं अस्पताल में काम करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा, 'जाकर उनलोगों से पूछ लो कि वे तुम्हारे से क्या करवाना चाहते हैं।' अस्पताल वालों ने मुझे रोगियों के कक्षों की सफाई करने को कहा। मैं ब्रश से पीकदानियों तथा हाजतियों (Bed pans) को साफ करता। झाडू देनेवाली एक स्त्री ने मुझे उनकी सफाई करने का ढंग बताया। मैंने उससे यह कार्य सीख लिया। ये घास के ब्रश हम ही बनाते थे और उन्हीं की सहायता से मैं सफाई किया करता। परन्तु जब भी महाराज मुझे बुलाते तब वे जहाँ भी जाते, मुझे उनके साथ चलना पड़ता था। जब कभी वे बगीचे में जाते तो मैं उनके साथ जाता। वे चाहते थे कि मुझे प्रत्येक बात का ज्ञान हो - जैसे कि; बगीचे में क्या-क्या है, रोगी कौन हैं इत्यादि। एक बार उन्होंने पूछा, 'क्या तुम आज बगीचे में गये थे? वह छोटा मैगनोलिया का पौधा कैसा है? उस पर कितने फूल आये हैं?' मैंने कहा, 'मैंने उसे कभी नहीं देखा।' उन्होंने कहा, 'जानते नहीं; वह बहुत ही विशेष पौधा है। तुम्हें देखना चाहिये कि उस पर कितनी कलियाँ आयी हैं।' वे ऐसे प्रश्न पूछा करते ताकि मैं प्रत्येक वस्तु को सूक्ष्म-निरीक्षण की दृष्टि से देखना सीखें। वे इसी प्रकार परख रखते थे। एक बार उन्होंने एक रोगी के बारे में पूछा, 'अमुक कैसा है?' और मैंने कहा, 'मैं नहीं जानता।' उन्होंने कहा, 'क्या तुम अस्पताल में घूम-फिर कर नहीं देखते कि क्या हो रहा है?' तब मैं पता करने को दौड़ा। इस प्रकार उनके आने से पहले ही मैंने अस्पताल में घूम कर इन बातों का पता लगाना सीखा। मैं गंभीर रोगियों के हालचाल के बारे में पूछताछ करता; फिर मैं इन बातों को लिख लेता तथा महाराज को बताता। मधुमेह की शिकायत के कारण महाराज अधिक चल-फिर नहीं सकते थे और उन्हें आराम की आवश्यकता होती थी। अतः कई बार वे स्वयं अस्पताल नहीं जा सकते थे। उन्होंने हर बात को विस्तारपूर्वक जानने का मेरा स्वभाव बना दिया। मुझे प्रत्येक जानकारी प्राप्त करके उन्हें देनी होती थी। इस प्रशिक्षण द्वारा मैं अस्पताल के काम, आश्रम के काम के साथ साथ यह भी सीख गया कि वे इसका व्यवस्थापन किस प्रकार करते हैं।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
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