Sunday 31 January 2016

धर्म

1. चंदन, भस्मलेपन, देवतावंदन, आदि बाह्य उपकरण धर्म नहीं है। समूची सृश्टि जिन सूक्ष्म नियमों के आधार पर शून्य में विलीन न होकर चलती रहती है, उसको धर्म कहते हैं। उन नियमों का मनुष्य के जीवन में उतरना धर्म होता है।

2. धर्म बहुत व्यापक षब्द है। अनेक अर्थ उसमें समाविष्ट हैं। इस शब्द के संबंध में जाने अनजाने अनेक भ्रम आजकल प्रचलित हैं। इन भ्रमों के कारण धर्म शब्द का ठीक बोध होना सामान्य व्यक्ति के लिये कठिन हो गया है। अपने प्राचीन महापुरुषों ने धर्म की व्याख्या अनेक प्रकार से की है। वे सब व्याख्याएँ परस्पर मेल रखती हैं। उन व्याख्याओं में जो सबसे अधिक मान्य और प्रचलित व्याख्या है- 'यतः अभ्युदय निःश्रेयससिद्धिः स घर्मः।'

3. मनुष्य-मनुष्य में भेद उत्पन्न् हो गया है और हमारा दुर्भाग्य ऐसा है कि इन भेदों में  लोग धर्म को भी घसीट लाये हंै। धर्म सबको एकत्र करनेवाला, सबको श्रेश्ठ बनानेवाला सूत्र है। जिसका कार्य ही यह है कि सभी प्रवृत्तियों का समन्वय कर मनुष्य को एक अत्यंत उत्कृष्ट विकसित अवस्था प्राप्त करा देना। पर लोग धर्म का नाम लेकर उसकी आड़ में मनुष्य के बीच भेदों को उग्र, उग्रतर और उग्रतम बनाते जा रहे हंै। यह विभीषिका आज जगत् के सामने खड़ी है।

4. हमारी सभी प्रवृत्तियाँ और विषय-भोग एक और धर्म तथा दूसरी ओर मोक्ष के बीच सधे हुए हैं। जैसे दोनों तटों के बीच बहती नदी जीवनदायिनी होती है, परंतु उनका उल्लंघन करते ही वह विनाशकारी हो जाती है। ठीक यही स्थिति मानव जीवन के प्रवाह की है। धर्म और मोक्ष के बीच बहता जीवन प्रवाह व्यक्ति व समाज दोनों के लिये सुखदायी होता है।

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Saturday 30 January 2016

परानुकरण

1. हमारे लोग सोचने लगे थे कि विदेशियों की वेषभूषा, रहन-सहन, भाषा, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्थाओं की नकल करने से प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। आज भी वही अनुकरण की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। यद्यपि अंग्रेज यहाँ से चले गये हैं, तथापि वेषभूषा, भाषा, राजनैतिक, सामाजिक व्यवस्थाओं तथा आर्थिक पुनर्रचना में हम किसी न किसी विदेशी प्रणाली की नकल करने में लगे हैं। कहा जाता है कि अपने देश में पुनरुज्जीवन की लहर आई है, उसके प्रभाव से हमारे समाज-जीवन में हम पहली बार आधुनिक और प्रगतिशील समाज के रूप में सामने आ रहे हैं। सामाजिक न्याय, राजनैतिक, औद्योगिक और आर्थिक क्रांति आदि बातें पहली बार अपने यहाँ आई हैं। लोगों का मानना है कि इन सबसे हम अपनी संस्कृति की पुनःस्थापना कर सकेंगे। यद्यपि हम जानते हैं कि हम यह जो सामाजिक पुनर्रचना कर रहे हैं, वह पाश्चात्य देशोंमें प्रचलित उस आकारहीन समाज-व्यवस्था का अंधानुकरण है, जिसने समाजजीवन के विभिन्न कार्यों के संचालन की दृष्टि से कोई  निश्चित धारण नहीं किया है। पाश्चात्य समाजरचना, समाज की प्रगतीशिलता की चरम अवस्था है और वह सर्वाेत्तम है, यह भी अभी अनुभव से सिद्ध नहीं हुआ है।

2. खुली आँखों से दुनिया की ओर देखते हुए, भिन्न-भिन्न प्रगत देशों से उत्तम, उपयुक्त व अपने जीवन से साम्य पा सकनेवाली बातें लेकर, उन्हें पचाकर अपने जीवन में मिला लेना एवं उससे अपने वैशिष्ट्यपूर्ण जीवन को समृद्ध करना योग्य है। परंतु दूसरे देशों की ऐहिक प्रगति देखकर केवल अंधों के समान उनका अनुकरण करना घातक है। कोई भी राष्ट्र परानुकरण करके दुनिया में उत्कर्श, मान, प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकता। उलटे वह हास्यास्पद होगा। सिंह की खाल ओढे़ गधे-सी उसकी स्थिति होगी।

3. कई लोग पृथ्वी के भिन्न-भिन्न समाजों की जीवन प्रणालियों को अपने यहाँ लादने की चेष्टा करते हैं। एक दूसरे पर मढ़ने से काम नहीं चलेगा। यदि मनोरचना का विचार न करते हुए बलात् लादने का प्रयत्न हुआ, तो भ्रम ही उत्पन्न होता है। स्वभाव का सहज विकास न करके कोई वस्तु जबरदस्ती थोपने से भ्रष्टता उत्पन्न होती है। इसके अनेक उदाहरण आज के जीवन में तो मिलते ही ह, प्राचीन ग्रंथोमें भी तपोभ्रष्ट ऋषियों का उल्लेख है। राष्ट्र के बारे में भी यही बात सत्य है। राष्ट्र भी एक जीवमान व्यक्तिसदृश इकाई है। जैसे व्यक्ति की प्रकृति के विरुद्ध दूसरी भावना का आरोप करना हानिकारक होता है, वैसे ही राष्ट्रजीवन में उसकी विशेषता को भुलाकर बलपूर्वक दूसरे भाव भरना व्यभिचार है। अतः जो अपने राष्ट्रजीवन को दूसरे ढाँचे में ढालना चाहते हैं, वे समाजजीवन के साथ प्रामाणिकता का व्यवहार नहीं करते।

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Friday 29 January 2016

कार्यपद्धति

4. अपनी कार्यप्रणाली व्यक्ति के अंतकरण को विचार की मार्यादा में अवरुद्ध नहीं रखती। यह व्यक्ति को श्रेष्ठता, मान-सम्मान की लालसा पैदा करनेवाली आकर्षक वस्तुओं से मुँह मोड़ना सिखाती है। समाज से एकरस, एकरूप अवस्था का, साक्षात् अनुभव दिलाकर कार्यप्रवण करती है।

5. मनुष्य कार्यपद्धति का मूल्यांकन इस कसौटी पर करता है कि वह तुरंत फलदायी है या नहीं। वह सोचता है कि वर्तमान समस्याएँ हल करने में ही कृतार्थता है। अतः कार्य की रचना ऐसी हो जिससे व्यावहारिक समस्याएँ हल करने में सफलता मिल सके। परंतु प्रश्न यह है कि क्या इन तात्कालिक समस्याअों पर ही राष्ट्र का सारा जीवन निर्भर है? भीषण गरीबी, आर्थिक विषमता आदि जो अनेक समस्याएँ सामने खड़ी हैं, उन्हें हल करने के लिये राजनैतिक शक्ति के प्रयोग और उपभोग की प्रवृत्ति पैदा होती है। ये वर्तमान समस्याएँ हल हुईं भी तो क्या राष्ट्र के सामने और समस्याएँ नहीं रहेंगी? समस्याएँ बदलेंगी, रोज नई उपाय योजना करनी पडे़गी। परंतु प्रयत्न करने की परंपरा न हो तो वह किस प्रकार संभव होगा? प्रयत्न करने की अविच्छिन्न परंपरा निर्माण करने के प्रयासों में ही अंतिम कल्याण है।

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Thursday 28 January 2016

कार्यपद्धति

1. कार्यपद्धति से शरीर, मन और बुद्धि एक ही दिशा में कार्य करने लगती हैं। इसमें से राष्ट्रभक्ति और मातृभक्ति का आविर्भाव होता है और वह संपूर्ण समाज में व्याप्त होती है। यह कार्य अत्यंत कठिन है।

2. पद्धति कोई भी हो, उसकी सफलता के लिये अच्छे लोग चाहिए। ऐसे लोग समाज में खड़े करने होंगे, जिनके हृदय में समाज के लिये आत्मीयता है, कल्याण है। जो समाज के दुःख से व्यथित होते हैं, जिनके अंदर अपने स्वार्थ को नियंत्रित करने की षक्ति है और उसके लिये शारीरिक व मानसिक कष्ट उठाकर भी समाजहित के कार्य में संलग्न हैं। ऐसे सब लोगों की शक्ति समाज की आवश्यकतानुसार सूत्रबद्ध ढंग से सम्पूर्ण राष्ट्र में प्रयुक्त हो सके, ऐसा अनुशासन व शिक्षा देने की व्यवस्था करना अनिवार्य है। समाज में ऐसे कार्यकर्ताओं के निर्माण का मूलगामी कार्य हम अपनी शाखाओं द्वारा कर रहे हैं। व्यक्तियों में जितना सामंजस्य उत्पन्न होगा, उतना ही प्रगति की ओर अग्रसर होना संभव होगा। माना कि इस कार्य में समय लगेगा, परन्तु कोई तत्काल कठोर कार्यवाही से लाभ नहीं होगा। व्यक्ति की अन्तःप्रेरणा जगाकर ऐसे कार्यों के लिये प्रेरित करने का अपना यह कार्य है।

3. कार्य के दो स्वरूप हैं। एक, दैनंदिन शाखा का है। चैबीस घण्टों में हम जो कुछ संघकार्य करते हैं, उसका हिसाब-किताब करने का स्थान, संघ-स्थान है। कुछ अनुशासन आदि सीखने और एक-दूसरे के साथ कंघे से कंधा भिड़ा कर खेलने-कूदने; व्यायाम करने से समग्र समाज के सम्बन्घ में अन्तःकरण में जो अभेदवृत्ति निर्माण होती है, उसे प्राप्त करने का वह स्थान है। शाखा कार्य का दूसरा हिस्सा है अतिरिक्त बचे हुए समय का उपयोग अपने चारों ओर के समाज-बंधुओं के बीच जाने के लिये करना और समाज में से व्यक्ति चुन-चुनकर अपने साथ लाने का प्रयास करना। प्रत्येक को अपने समय का उपयोग इन दोनों कार्यों के लिये करना चाहिए। लोगों के साथ निकटतम संपर्क के द्वारा आत्मीयता का वायुमण्डल बढ़ानेवाला कार्य चैबीसों घण्टे चलते रहना चाहिए। इस प्रकार से हम लोग प्रयत्न करें, तो मैं समझता हूँ कि थोड़े ही दिनों में और पर्याप्त मात्रा में ऐसी पवित्र शक्ति के रूप में हम खड़े हो जाएंगे, जिसकी आवाज समाज में सब लोग सुनते हैं। देश, राष्ट्र और समाज के हित के लिये यह आवश्यक है।
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Wednesday 27 January 2016

सामूहिक निर्माण शक्ति

4. इस विशाल देश में भिन्न-भिन्न भाषाओं और रीति-रिवाजों से युक्त होते हुए भी हम एक समाज के अंग हैं और वह हिंदू समाज है। वह भारत का समाज है, इस भूमि का समाज है। उसका जीवन इस भूमि के साथ मिला हुआ है। भारत का इतिहास याने हिंदू समाज का इतिहास है। अर्थात् भारत का जीवन हिंदू का जीवन है। भारतीय राश्ट्र हिंदू-राष्ट्रके नाते जीवन व्यतीत करने की बात हमने स्पष्ट रूप से, निर्भयतापूर्वक, बिना किसी हिचकिचाहट के, दूसरों की टीका का भय पाले बिना पूर्ण विश्वास के साथ रखी तथा इस सत्य को संसार से भी मान्यता प्राप्त करा लेने के लिये हमने आग्रहपूर्वक इसका प्रतिपादन किया। उसे सिद्ध करने तथा प्रकट करने के लिये ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण हुआ।

5. सप्त रंगों के सम्मिश्रण से जैसे शुभ्र प्रकाश निर्माण होता है, वैसे ही खान-पान, भाषा, वेश-भूषा आदि की विविघता से हमारा जीवन एकात्म रूप से प्रकाशित हुआ है। इसी का नाम भावनात्मक एकता है। यह एकता, सौदेबाजी से निर्माण नहीं होती। भावनात्मक एकता की आधारशिला है, अंतःकरण में समान भावनाओं की विद्यमानता। गहन चिंतन और निकट संपर्क से ही इस भावना की अनुभूति संभव है। सबको यह अनुभूति हो सके, इसी दृष्टि से संघकार्य की रचना की गई है। विविधता में एकता का दर्शन करानेवाली संघ की कार्यप्रणाली बेजोड़ है। दैनिक शाखा के कार्यक्रम में व्यक्ति रम जाता है और उसके अंतःकरण में एकता के भाव जाग उठते हैं।

6. यह राष्ट्र जो अपने सामने खड़ा है वही परमात्मा का व्यक्त रूप है। भगवान के स्वरूप का विवरण करते हुए अपने यहाँ स्पष्ट कहा गया है 'सहस्रषीर्शा पुरूशः सहस्राक्षः सहस्रपाद्' (ऋग्वेद 10-90-1)। व्याख्या के अनुसार समाजरूपी भगवान की पुनःस्थापना जगत् में करने का जो हमारा संकल्प है, वही धर्म है, अन्य सब अधर्म है। इसी नियम के अनुसार अपने कार्य में आनेवाली बाधाओं को हटाने की दृष्टि से जो काम किया जाए वही धर्म है।

7. हमारा काम गुणात्मक है। उसकी तुलना क्षेत्रात्मक कार्यों से नहीं की जा सकती। हमें तो वह शक्ति निर्माण करनी है जो नियंत्रित और अनुशासित हो। जिसके एक शब्द पर बड़े से बड़ा कार्य आरम्भ हो, इच्छा करने पर उसका संवरण भी किया जा सके। हमारा लक्ष्य केवल लोकजागरण करना ही नहीं हैं। कभी-कभी लोग सोचते हैं, उससे भी बड़ा काम खड़ा हो जाता है। किन्तु वह जितनी जल्दी खड़ा होता है, उतनी ही जल्दी नष्ट भी हो जाता है। सन् 1921 का असहयोग आन्दोलन और 1942 का 'भारत छोड़ो' आन्दोलन इसके अच्छे उदाहरण है। एक बार आन्दोलन शरू हुआ कि वह कौनसी दिशा लेगा, यह कहा नहीं जा सकता। उस पर नियंत्रण रहता नहीं। इन आंदोलनों से ध्वंस तो हो सकता है, निर्माण नहीं। सामूहिक निर्माण शक्ति की दृष्टि से अपना कार्य लोकक्षोभात्मक कार्य से उत्पन्न शक्तिओं से अधिक है। अपना कार्य नियंत्रित कार्यशक्ति निर्माण करने का है, लोकक्षोभ उकसाने का नहीं। यदि लोकक्षोभ पैदा करने की आवश्यकता हुई तो उसे काबू रखने की पात्रता भी हमें निर्माण करना है।


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Tuesday 26 January 2016

Bharat Mata

Any organization in India should have basic thinking of making Bharat Mata Jagadguru as that of the Rashtriya Swayamsevak Sangh though the methodology to attain could be different. How has Sangh looked into it? What are the things which it considers most important? In the words of Param Poojaneeya Sri Guruji :

1. यह सुनिश्चित है कि किसी भी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थिति में साहस के साथ अपना मार्ग निकालते हुए, सब प्रकार के संकटों को कुचलते हुए तथा उनकी परवाह न करते हुए, संघ अपने विशिष्ट मार्ग से निरन्तर प्रगतिपथ पर अग्रसर रहेगा। हम पर जितने आघात होंगे उतनी ही अधिक शक्ति से रबर की गेंद के समान उछल कर ऊपर ही उठेंगे। हमारी शक्ति अबाधित रूप से बढ़ती ही जायेगी और एक दिन वह सारे राष्ट्र में व्याप्त हो जायेगी।

2. स्वराज्य-प्राप्ति एक घटना है, क्रिया है। स्वतंत्र समाज-जीवन सुरक्षित और संपन्न रखना चिरंतन महत्त्व का प्रश्न है। उसके लिये राष्ट्र सदैव सिद्ध रहना चाहिए। वह सिद्धता रहने के लिये राष्ट्र-जीवन में से हानिकारक अवगुण मिटाकर सुसूत्र, सामर्थ्यशाली समाज-जीवन निर्माण करने की दृष्टि से अपना कार्य खड़ा किया गया है। हिंदू-राष्ट्र-जीवन की कल्पना निर्भयपूर्वक सामने रखकर उसकी गौरववृद्धि के लिये सारा समाज एकसूत्र में संगठित करने का कार्य अपने सामने है। इसलिये संघ के नाम सहित प्रत्येक बात का सूक्ष्मता से विचार कर कार्य की रचना की गई है।

3. समष्टि-जीवन की भावना के आधार पर निर्मित संगठन से उत्पन्न सामर्थ्य के भाव या अभाव में ही स्वतन्त्रता का भाव या अभाव होता है। जिस परिश्रम से स्वतन्त्रता प्राप्त की जाती है उसकी रक्षा के लिये उससे अधिक परिश्रम की आवश्यकता है। इतना ही नहीं, तो राष्ट्र का गौरव, मान, सम्मान और वैभव भी उस समाज के संगठन पर ही निर्भर है। इस कार्य में परिस्थिति के कारण परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होती। इसीलिये उन्होंने संघकार्य को परिस्थिति-निरपेक्ष कहा। यह कार्य परिस्थिति की प्रतिक्रिया से उत्पन्न नहीं हुआ, अपितु इसका आधार भावात्मक है। अपने समाज को सुसंगठित करने के लिये, राश्ट्र के प्रवाह को अखंड बनाये रखने के लिये ही इस कार्य का निर्माण हुआ है।

Happy Republic Day

Sunday 24 January 2016

शिक्षा

1. केवल साक्षरता प्रसार यानी शिक्षा ऐसी मेरी धारणा नहीं है, अन्य शिक्षा भी दी जानी चाहिये। साक्षरता प्रसार के पीछे मतदान का प्रश्न प्रमुख रहता है। अपने को सत्ता की आकांक्षा नहीं है। अपने यहाँ साक्षरता का प्रसार शिक्षा का एक पहलू है। व्यावहारिकता, कार्य के लिये दृढ़ भावना निर्माण करना उसका प्रमुख हेतु था।

2. वर्तमान की शिक्षा जीवलोक में अर्थकरी विद्या' है। इस प्रकार की विद्या से केवल अर्थ प्राप्त होता है, जीविका का साधन प्राप्त होता है। परन्तु आज की विद्या तो 'अर्थकरी' भी नहीं रह गई है। नौकरी करना दास-प्रवृत्ति ही तो है। नौकरी करना यानी गुलामी करना। अर्थकरी का तात्पर्य है कि जो अध्ययन किया है, जो बु़िद्ध है, उससे स्वंतत्रतापूर्वक अपना द्रव्यार्जन कर जीविका चलाना। जो इस प्रकार अपनी जीविका चला सकता है, वास्तव में उसी की विद्या अर्थकरी है। आज ऐसी अर्थकरी विद्या अपने यहाँ नहीं है। केवल नौकरी की प्रवृत्ति उत्पन्न करनेवाली विद्या यहाँ चल रही है, ऐसी विद्या से देश की भलाई नहीं हो सकती।

3. अपने यहाँ शिक्षा का हेतु बहुत ही उच्च बताया गया है। शिक्षा से मनुष्य में जो एक चिरंतन सत्य तत्त्व है, उसे अविष्कृत करने की क्षमता प्राप्त होनी चाहिये। उसके लिये आवश्यक गुण विकसित हों, जिससे जगत् भर के अनेकानेक आवश्यक विषयों का ज्ञान प्राप्त होकर, उसे यह बोध हो सके कि अपनी सत्य अवस्था का ज्ञान मुझे है। इसलिये अपने यहाँ कहा गया है कि प्रत्येक मनुष्य को वे प्राथमिक बातें सीखनी चाहिये, जिनसे मनुष्य को अपनी वास्तविक स्थिति अर्थात अपने चिरंतन तत्त्व का थोड़ा-बहुत बोध हो सके। मनुष्य की आत्मा को मानो प्रकट करना ही शिक्षा का कार्य है। इस अर्थ में तो आजकल कहीं शिक्षा होती नहीं। केवल इधर-उधर के दो-चार विषयों के टूटे-फूटे, अधकचरे टुकड़े ही दिमाग में भरे जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि दिमाग को कचरा डालने वाली पेटी बना दिया गया है।
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चरित्र

1. राष्ट्रीय चारित्र्य का मूलाधार तादात्म्य तथा प्रेम है। यह मेरा राष्ट्र है, मैं इसका अंक्ष मात्र हूँ, इसकी भलाई मेरी भलाई है, मैं मरूँ, चाहे परिवार डूबे, किन्तु राष्ट्र जिए, राष्ट्र अच्छा रहे- यह भाव जब उत्पन्न होता है, तब राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण होता है। मेरे कार्य से भले ही लाभ न हो, कम से कम हानि तो न हो- यह भाव उत्पन्न होने पर चारित्र्य प्रकट होता है। जब यह विचार जाग्रत होता है और अहोरात्र राष्ट्र-चिन्तन होता है, राष्ट्र को उठाने का, राष्ट्र को सुखी करने का, राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति के प्रति कर्तव्य पूर्ति का विचार होता है, मैं अपने बारे में न सोचूँगा, राष्ट्र सुखी है या नहीं केवल यही सोचूँगा, मैं रहा या न रहा, उससे क्या, राष्ट्र रहना चाहिये - जब इस प्रकार का भाव जागृत होता है, तब इस राष्ट्र-प्रेम से परिपूर्ण राष्ट्र-कल्पना से विशुध्द चारित्र्य उत्पन्न होता है।

2. सब विद्वानों ने विचार कर यह बात रखी है कि चरित्र या स्नेह का आघार एकात्मता है। जो इस एकात्मता को पहचानेगा, वही स्नेह कर सकेगा, वही असुखी होते हुए भी प्रेम करेगा। अतः केवल चारित्र्य का आग्रह करने से चारित्र्य निर्माण नहीं होगा, उसके लिये ठोस आधार लेना पड़ेगा। भारत में प्राचीन काल से चला आनेवाला हमारा संस्काररूप जीवन जिसे संस्कृति कहते हैं, वही सामान्य अधिष्ठान है। उसके जागरण से ही एकात्मता संभव है। प्रत्येक व्यक्ति एकात्मता का व्यक्त रूप है, यह समझ कर समाज की सेवा करना ही धर्म है। जैसे कि जीवाणु शरीर की सेवा करते हैं, कोई भी आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करता; वैसे ही समाज को एकात्मस्वरूप जानकर (केवल मानकर नहीं) अपने जीवन को समष्टिरूप समाज की सेवा में लगा देना ही जीवन का साफल्य है। एकात्मता का भाव ही सुंसगठित रूप दे सकेगा। इस प्रकार के सांस्कृतिक विचारों को लेकर ही हम समाज की पुनर्रचना करना चाहते हैं।

3. शारीरिक शक्ति आवश्यक है, किन्तु चरित्र उससे भी अधिक महत्त्व का है। बिना चरित्र के केवल शक्ति मनुष्य को पशु बना देगी। वैयक्तिक तथा राष्ट्रीय दृष्टिकोण से भी चरित्र की शुद्धता राष्ट्र के वैभव एवं महानता की जीवन-प्राण होती है।

4. यदि महान जागतिक लक्ष्य में हम सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें प्रथम अपना उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। हमें विदेशी वादों की मानसिक शृंखलाओं और आधुनिक जीवन के विदेशी व्यवहारों तथा अस्थिर 'फैशनों' से अपनी मुक्ति कर लेनी होगी। परानुकरण से बढ़कर राष्ट्र की अन्य कोई अवमानना नहीं हो सकती। हम स्मरण रखें कि अन्धानुकरण का अर्थ प्रगति नहीं होता। वह तो आत्मिक पराधीनता की ओर ले जाता है।
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Saturday 23 January 2016

मातृभूमि

1. जिस बात में हमारी अत्यन्त श्रद्धा है और जिसमें श्रद्धा रखना राष्ट्रीयता का परिचायक भी है, वह यह है कि यह विशाल भूमि हमारी मातृभूमि है। हम सब इसके पुत्र हैं। इसकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है तथा इस भूमि के कारण राष्ट्र के नाते जो हमारा जीवन सम्भव हुआ है, उस जीवन की कीर्ति अपनी सेवा से फैलाने का स्वाभाविक कर्तव्य हमने अपने सामने रखा है।

2. कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसा देश, जिसकी धूलि का एक-एक कण दिव्यता से ओतप्रोत है, हमारे लिये पावनतम है, हमारी पूर्ण श्रद्धा का केन्द्र है। यह श्रद्धा की अनुभूति सम्पूर्ण देश के लिये है, उसके किसी एक भाग मात्र के लिये नहीं। शिव का भक्त काशी से रामेश्वरम जाता है, और विष्णु के विभिन्न आकारों एवं अवतारों का भक्त, इस सम्पूर्ण देश की चतुर्दिक यात्रा करता है। यदि वह अद्वैतवादी है तो जगद्गुरु शंकराचार्य के चारों आश्रम, जो प्रहरी के समान देश की चारों सीमाओं पर खड़े हैं, उसे चारों दिशाओं में ले जाते हैं। यदि वह शाक्त है- उस  शक्ति के पुजारी की जो दिव्य माँ है, विश्व की तीर्थयात्रा के लिये बावन स्थान हैं, जो बलूचिस्तान में हिंगलाज से असम में कामाक्षी पर्यन्त और कश्मीर में ज्वालामुखी से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक फैले हुए हैं। इसका यही अर्थ है कि यह देश विश्व की जननी का दिव्य एवं व्यक्त स्वरूप है।

Thursday 21 January 2016

हिंदूराष्ट्र

4. राष्ट्र-कल्पना परिस्थिति के अनुसार बदलनेवाली वस्तु नहीं है। मनुष्य का मनुष्यत्व नौकरी पर निर्भर नहीं करता। किसी ने अपना व्यवसाय बदला तो उसका शरीर और गुणधर्म नहीं बदलता। विदेशी सत्ता रहने से उस सत्ता के सहारे ही अन्य समाज उद्दण्ड होते रहे हैं। इसलिये हिंदू-राष्ट्रवाद का मंडन प्रतिक्रियात्मक बात समझी गई। हिंदू-राष्ट्र की कल्पना यह एक सत्य है, इस दृष्टि से संघ ने उस भावना का जागरण किया। विदेशी शासन से संघर्ष रहते हुए भी हिंदू-राष्ट्रीयत्व की घोषणा संघ ने की, उस भावना की जागृति से समाज संगठित कर बलशाली और चैतन्ययुक्त करने का प्रयास किया। आज जब विदेशी सत्ता नहीं रही है तब ये प्रयास अधिक जोर से होने चाहिये, यही विचार परिस्थिति में हुए स्थूल परिवर्तन के कारण अपने अंतःकरण में आना चाहिए।

5. सबसे पहला कर्तव्य है जिस देश को अनंतकाल से हमने अपनी पवित्र मातृभूमि माना है, उसके लिये ज्वलन्त भक्ति-भावना का आविर्भाव। द्वितीय है साहचर्य एवं भ्रातृत्व भावना, जिसका जन्म इस अनुभूति के साथ होता है कि हम एक ही महान माता के पुत्र हैं। तृतीय है, राष्ट्र-जीवन की समान धारा की उत्कट चेतना जो समान संस्कृति एवं समान पैतृक दाय, समान इतिहास, समान परम्पराओं, समान आदर्शों एवं आकांक्षाओं से उत्पन्न होती है। जीवन के मूल्यों की यह त्रिगुणात्मक मूर्ति एक शब्द में हिंदू राष्ट्रीयता है जो राष्ट्र-मन्दिर के निर्माण के लिये आधार बनती है।
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Wednesday 20 January 2016

हिंदूराष्ट्र

1. यह हिंदूराष्ट्र है, इस राष्ट्र का दायित्व हिंदू समाज पर ही है, भारत का दुनिया में सम्मान या अपमान हिंदुओं पर ही निर्भर है, हिंदू-समाज का जीवन वैभवशाली होने से ही इस राष्ट्र का गौरव बढ़ने वाला है, यह निश्चयपूवर्क समझ कर उस सत्य को संघ ने प्रतिपादित किया। इतने वर्षों से हम यह करते आये हैं तथा किसी के मन में इस विषय में कुछ भ्रान्ति रहने का कारण नहीं है।
2. यह बात अति स्पष्ट है कि हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व का आघार राजकीय सत्ता कभी नहीं रही। अन्यथा हमारा भी भाग्य उन राष्ट्रों से अच्छा नहीं होता, जो आज केवल अजायबघर की दर्शनीय वस्तु मात्र रह गये हैं। राजकीय सत्ताधारी हमारे समाज के आदर्श कभी नहीं थे। वे हमारे राष्ट्रजीवन के आधार के रूप में कभी स्वीकृत नहीं हुए। संपत्ति एवं सत्ता के ऐहिक प्रलोभनों से ऊपर उठे हुए और सुखी, श्रेष्ठ गुणों से संपन्न एवं एकात्मता से युक्त समाज की स्थापना के लिये अपने को समग्र भावेन समर्पित करनेवाले संत-महात्मा ही इसके पथ-प्रदर्शक रहे हैं। वे धर्मसत्ता का प्रतिनिधित्व करते थे। राजा तो उस उच्चतर नैतिक सत्ता का एक उत्कृष्ट अनुगामी मात्र था। अनेक बार विपरीत परिस्थितियों में एवं आक्रामक शक्तियों के कारण अनेक राज्य सत्ताओं ने धूल चाटी। किन्तु धर्मसत्ता समाज को छिन्न-विच्छिन्न होने से सदैव बचाती रही।
3. प्रत्येक राष्ट्र का अपना विशिष्ट जीवन-संगीत रहता है और उसी की लयतरंग में राष्ट्र प्रगति पथ पर अग्रसर होता है। अपने हिंदूराष्ट्र ने भी अनादि काल से एक अनुपम विशिष्टता को सुरक्षित रखा है। हमारे लिये भौतिक सुख के स्वरूप अर्थात् अर्थ (सम्पत्ति का संचय) और 'काम' (भौतिक तृष्णाओं का समाधान) मनुष्य के एक अंश मात्र हैं। हमारे महान पूर्वजों ने घोषणा की है कि मानव पुरुषार्थ के दो और भी पहलू हैं और वे हैं 'धर्म' एवं 'मोक्ष'। उन्होंने हमारे समाज की रचना इस चतुर्विध प्राप्ति के आधार पर की है। यह चतुर्विघ पुरुषार्थ हैं - अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष। अति प्राचीनकाल से हमारा समाज केवल संपत्ति एवं वैभव के लिये ही प्रसिद्ध नहीं रहा है, वरन् इससे भी अधिक जीवन के उन अन्य दो पहलुओं के लिये प्रसिद्ध रहा है। इसीलिये हम उच्च नैतिक, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक लोग कहे जाते हैं, जिन्होंने अपना अंतिम लक्ष्य ईश्वर से सीघे संपर्क करने अर्थात् मोक्ष से कम नहीं रखा।
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राष्ट्र

1. राष्ट्र क्या है? यह ज्ञान हुए बिना राष्ट्रभक्ति पैदा नहीं होती। राष्ट्र-भक्ति की भावना के बिना स्वार्थ को तिलांजलि देकर राष्ट्र के लिये परिश्रम करना संभव नहीं है। इसलिये विशुद्ध राष्ट्र-भावना से परिपूर्ण, श्रद्धायुक्त तथा परिश्रमी लोगों को एक-सूत्र में गूँथना, एक प्रवृत्ति के लोंगों की परंपरा निर्माण करनेवाला संगठन खड़ा करना तथा इस संगठन के बल पर राष्ट्र-जीवन के सारे दोष समाप्त करने का प्रयत्न करना मूलभूत और महत्त्वपूर्ण कार्य है।

2. यह एक सर्वविदित सत्य है कि जब राष्ट्र-जीवन में दासता आती है, तब जनसाधारण के परम्परागत सद्गुणों का ह्रास होने लगता है। यह दासता मनुष्य को अनेक प्रकार के दुर्गुणों में प्रवृत्त करती है। हम एक-दूसरे के साथ विष्वासघात करते हैं, असत्य भाषण करते हैं, असत्य आचरण करते हैं, किसी भी प्रकार का पाप-कर्म करने में हमें हिचक नहीं होती।

3. जब राष्ट्र में परकीय आदर्श और परकीय संस्कृति को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और अपनी मूल सांस्कृतिक भावना नष्ट हो जाती है, तब यह समझना चाहिये कि यह राष्ट्रीय जीवन का अंत है।

4. राष्ट्र के संघर्ष में सार्मथ्य का प्रकटीकरण दो प्रकार से होता है। एक तो राष्ट्र की सेना की जो शक्ति है उससे, यानि क्षात्रबल से और दूसरा समाज के अंदर की प्रखर तेजस्वी और सर्वस्वार्पण की सिद्धता से युक्त शक्ति से। इन दो शक्तियों से ही कोई राष्ट्र अजेय और संपन्न बनता है। क्षात्रवृत्ति से भरी हुई अतीव तेजस्वी सैनिक षक्ति और प्रखर राष्ट्रभक्तियुक्त सुव्यवस्थित समाज से अजेय राष्ट्र का निर्माण होता है।

5. जिस समाज में जन्म से प्राप्त संस्कारों के कारण अभिजात देशभक्ति की भावना व्यक्ति के अंतःकरण में अंकुरित होती है, संवर्धित होती है, घर का काम छोड़कर राष्ट्र के लिये अपना सब कुछ अर्पण करने की वृत्ति रहती है और इस कारण एक सूत्रबद्ध जीवन का निर्माण होता है, उस समाज में चुनाव, राजनीति आदि बातें समाज का सुख-सौंदर्य वृद्धिंगत करने में कारणीभूत होते हैं। जिस प्रकार बलिष्ठ शरीर पर ही वस्त्रालंकार आदि शोभायमान होते हैं। जिसके हाथ-पैर लकड़ी के समान सूखे हों, उसके शरीर पर वह शोभा नहीं पाते अथवा जिस प्रकार कोई रोगग्रस्त शरीर पकवान नहीं पचा सकता, अन्न पचाने के लिये बलिष्ठ व निरोग शरीर आवष्यक होता है। उसी प्रकार शक्तिषाली, निरोग, पुष्ट राष्ट्रजीवन हो, तभी चुनाव या राजनीति सदृश आवरण शोभा पाते हैं। उनके कारण उस राष्ट्र का सुख-सौंदर्य बढ़ता है, वे सब उसके लिये उपकारक सिद्ध होते हैं।

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Sunday 17 January 2016

ऐसी होती है गुरुभक्ति !

ऐसी होती है गुरुभक्ति !
{गुरु गोविन्द सिंह जयंती पर विशेष}

बैसाखी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था। औरंगजेब के अत्याचारों को इस एक दिन के लिए भूलकर लोग खुशी से झूम रहे थेए नाच रहे थे, गा रहे थे। परंतु श्री गुरुगोविन्द सिंह इस पर्व के अवसर को गुरु भक्ति की परीक्षा के सुअवसर के रूप में बदल देना चाहते थे। वे जानते थे कि मुगल सत्ता से संघर्ष किये बिना भारतीय समाज स्वाभिमान से जी नहीं सकता। वे यह भी जानते थे कि शक्ति और भक्ति दोनों ही धर्म की संस्थापना के लिए परमावश्यक हैं। अत: उन्होंने बैसाखी के मेले में एक बड़ा अखाड़ा बनाया, जहाँ पर देश भर से अनेक लोग आए। गुरुगोविन्द सिंह के चेहरे का तेज और उनका प्रभावी व्यक्तित्व आज कुछ महान व्यक्तियों की शोध के लिए बड़ी तेजस्विता से प्रगट हो रहा था। उन्होंने हजारों भक्तों से आह्वान किया कि 'आज धर्म पर संकट आया है, लाखों लोग मुगलों के अत्याचार से त्रस्त हैं, कौन ऐसा वीर है जो धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तत्पर है?' गुरुगोविन्द सिंह के हाथों में नंगी तलवार देखकर उनके इस प्रश्न से लोग भयभीत हो गए और बहुतों को इस प्रश्न पर आश्चर्य भी हुआ। कुछ सोच रहे थे कि आज गुरुजी क्यों अपने शिष्यों को अपना बलिदान करने का आह्वान कर रहे हैं।

सम्पूर्ण जनसमुदाय स्तब्ध हो गया था। लोग एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। गुरुजी ने पुन: प्रश्न किया कि 'क्या इस भारतवर्ष में कोई ऐसा वीर नहीं जो धर्म के लिए अपना बलिदान दे सके? जब किसी ने उत्तर नहीं दिया। तब उन्होंने कहा, 'क्या  इसी दिन के लिए तुमने जन्म लिया है कि जब महान कार्य के लिए तुम्हारी आवश्यकता पड़ेए तो तुम सिर झुकाये खड़े रहो। कोई है ऐसा भक्त जो धर्म, भक्ति की बलिवेदी पर अपनेआप को समर्पित कर दे।'

तभी लाहौर का एक दयाराम खत्री उठा और उसने कहा, "मैं प्रस्तुत हूँ। गुरु उसे अपने साथ कक्ष के भीतर ले गए। वहाँ पहले से कुछ बकरे बांधकर रखे गये थे। गुरु ने एक बकरे का सिर काटकर रक्तरंजित तलवार थामे पुन: सभा में प्रवेश किया। पुन: वही सवाल! 'एक के बलिदान से कार्य नहीं चलेगा, है कोई और जो धर्म के लिए अपने प्राण दे दे?'  इस बार दिल्ली का एक जाट 'धर्मदास' आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अन्दर ले गए। पुन: बाहर आकर वही प्रश्न। इस प्रकार तीन और व्यक्ति अंदर ले जाये गये और वे थे द्वारिका का एक धोबी 'मोहकमचंद', जगन्नाथपुरी का रसोइया 'हिम्मत' और बीदर का नाई 'साहबचन्द'।

गुरु ने इन पांचों को सुन्दर वस्त्र पहनाए। उन्हें 'पंज-प्यारे' कहकर सम्बोधित किया। उन पांचों को लेकर वे बाहर आये तो सभा स्तब्ध रह गई। बैठे हुए सभी लज्जित हुए। इन पंज प्यारों में केवल एक खत्री था। शेष चारों उस वर्ग के थेए जिन्हें निचला वर्ग कहा जाता था। गुरु ने उन्हें सर्वप्रथम दीक्षित किया और आश्चर्य - स्वयं भी उनसे दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने 'खालसा' को 'गुरु' का स्थान दिया और 'गुरु' को  'खालसा'  का। गुरु ने उनके साथ बैठकर भोजन किया। उन पांचों को जो अधिकार उन्होंने दिये, उनसे अधिक कोई भी अधिकार अपने लिए नहीं रखे। जो प्रतिज्ञाएं उनसे कराईं, वे स्वयं भी की। 

इस प्रकार गुरुगोविन्द सिंह ने अपने पूर्व की नौ पीढ़ियों के सिख समुदाय को  'खालसा' में परिवर्तित किया। ईश्वर के प्रति निश्चल प्रेम ही सर्वोपरि है, अत: तीर्थ, दान, दया, तप और संयम का गुण जिसमें है, जिसके हृदय में पूर्ण ज्योति का प्रकाश है वह पवित्र व्यक्ति ही  'खालसा'  है। ऊंच, नीच, जात.पात का भेद नष्ट कर, सबके प्रति उन्होंने समानता की दृष्टि लाने की घोषणा की। उन्होंने सभी को आज्ञा दी कि अपने नाम के साथ 'सिंह'  शब्द का प्रयोग करें। इसी समय वे स्वयं, गुरुगोविन्द राय से गुरुगोविन्द सिंह बने।

वे पवित्र हैं

गुरु महाराज ने उन पांचों वीरों की ओर इंगित करते हुए कहा कि ये खालिस हैं यानी पवित्र हैं.
जे आरज (आर्य) तू खालिस होवे। हँस.हँस शीश धर्म हित खोवे।।

गुरु महाराज ने एक बड़ा कडाह मंगवाया और उसमें पानी, दूध व बताशा मिलाकर उस घोल को अपनी दुधारी तलवार से चलाया और इस अमृत को उन्होंने उन पंज प्यारों को चखाकर सिंह बनाया। फिर स्वयं उन पंज प्यारों के सामने घुटनों के बल बैठकर उन्होंने उनसे प्रार्थना कि वे उन्हें अमृत चखायें। उन्होंने पंच 'क' -'केश', 'कड़ा', 'कंघा', 'कच्छ' और 'कृपाल' - धारण करने का निर्देश प्रत्येक सिख के लिए दिया। 'समर्पण', 'शुचित्व', 'दैवभक्ति', 'शील' और 'शौर्य' का भाव इसके पीछे था। दुनिया के इतिहास में यह बेजोड़ उदाहरण है जब गुरु ने अपने शिष्यों से दीक्षा लेकर सबकी समानता का प्रभावी उद्घोष  किया हो। अमृत चखकर वे गोविन्दराय से गोविन्द सिंह बन गए। बाद में गुरु महाराज ने आह्वान किया कि जो.जो धर्म की रक्षा में अपने शीश कटाने को प्रस्तुत हों वे अमृत चखने के लिए आगे आयें और देखते.ही.देखते सिंहों की विशाल वाहिनी खड़ी हो गयी। 

संस्कार वर्ग के लिए कहानी-प्रसंग : लखेश

Friday 15 January 2016

संस्कृति

1. इस देश में अनादि काल से जो समाज-जीवन रहा है, उसमें अनेक महान व्यक्तियों के विचार, गुण, तत्त्व, समाज-रचना के सिद्धांत तथा जीवन के छोटे-छोटे सामान्य अनुभवों से जीवन-विषयक एक स्वयंस्फूर्त स्वाभाविक दृष्टिकोण निर्माण होता है। वह सर्वसाधारण दृष्टिकोण ही संस्कृति है। यह संस्कृति अपने राष्ट्र की जीवन-धारणा है, विश्व की ओर देखने की पात्रता देनेवाली प्रेरणा-शक्ति है, एक सूत्र में गूँथनेवाला सूत्र है। भारत में आसेतु हिमाचल यह संस्कृति एक है। उससे भारतीय राष्ट्रजीवन प्रेरित हुआ है।

2. इन दिनों संस्कृति के नवतारुण्य को प्रायः 'पुनरुज्जीवनवाद' और 'प्रतिक्रियात्मक' होने की उपाधि दी जाती है। प्राचीन पूर्वाग्रहों, मूढ़ विष्वासों अथवा समाज विरोधी रीतियों का पुनरुज्जीवन प्रतिक्रियात्मक कहा जा सकता है, कारण कि इसका परिणाम समाज का पाशाणीकरण (फाॅसिलाइजेषन) हो सकता है। किन्तु शाश्वत एवं उत्कर्षहारी जीवन-मूल्यों के नवतारुण्य को प्रतिक्रियात्मक नाम दे देना बौद्धिक दिवालियापन प्रकट करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
-श्री गुरुजी

When you study the civilisation of India, you find that it has died and revived several times; this is its peculiarity. Most races rise once and then decline for ever. There are two kinds of people; those who grow continually and those whose growth comes to an end. The peaceful nations, India and China, fall down, yet rise again; but the others, once they go down, do not come up -- they die. Blessed are the peacemakers, for they shall enjoy the earth.
                                - Sri Swami Vivekananda
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हिंदुत्व का विचार

4. हमारे लचीले धर्म के स्वरूप की जो प्रथम नैसर्गिक विशेषता बाहरी व्यक्ति की दृष्टि में आती है, वह है पंथ एवं उपपंथों की आश्चर्यजनक विविधता। यथा- शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक, बौद्ध, जैन सिख, लिंगायत, आर्यसमाज आदि। इन सभी उपासनाओं के महान आचार्यों एवं प्रवर्तकों ने उपासना के विविध रूपों की स्थापना हमारे लोक-मस्तिष्क की विविध योग्यताओं की अनुकूलता का ध्यान रखकर ही की है। किंतु अंतिम निष्कर्ष के रूप में सभी ने उस एक चरम सत्य को लक्ष्य के रूप में प्राप्त करने के लिये कहा है, जिसे ब्रह्म, आत्मा, शिव, विष्णु, ईश्वर अथवा शून्य या महाशून्य के विविघ नामों से पुकारा जाता है।

5. 'अनेकता में एकता' का हमारा वैशिष्ट्य हमारे सामाजिक जीवन के भौतिक, आध्यात्मिक तथा सभी क्षेत्रों में व्यक्त हुआ है। यह उस एक दिव्य दीपक के समान है, जो चारों ओर विविध रंगों के शीशों से ढका हुआ हो। उसके भीतर का प्रकाश, दर्शक के दृष्टिकोण के अनुसार भाँति-भाँति के वर्णों एवं छायाओं में प्रकट होता है।

6. समाज एक जीवमान इकाई है। मानव, जीवसृष्टि का सबसे अधिक विकसित रूप है। इसलिये यदि किसी जीवमान समाज स्वरूप की रचना करनी हो, तो वह उसके अनुरूप होनी चाहिए। समाज जीवन की रचना भी यदि जीवमान मानव के अनुरूप ही की, तो वह भी निसर्ग के अनुकूल होने के कारण अधिक उपयुक्त होगी। मनुष्य के अवयव समान तो नहीं होते, किंतु परस्परानुकूल रहते हैं। अतः समाज की ऐसी रचना ही अधिक टिकाऊ होगी, जहाँ समान गुण एवं समान अंतःकरणवाले एकत्र आकर विकास करते हुए जीवन-यापन करने के जिस मार्ग से अधिक समाजोपयोगी सिद्ध हो सकें, उसके अनुसार चल सकें। साथ ही एकाद समूह ऐसा भी चाहिये, जो संपूर्ण समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने की पात्रता उत्पन्न कर, उनके पारस्परिक संबंधों को ठीक बनाये रखता हो। शरीर के अवयवों की भाँति समाजरूपी जीवमान इकाई के अंगों की आवश्यकता समझता हो, परन्तु स्वयं अपनी कोई आवश्यकता न रखता हो। ऐसा समूह ही सबको एकसूत्र में चलाने की पात्रता रख सकता है।

7. धर्म अथवा आध्यात्मिकता, हमारी दृष्टि में जीवन की एक व्यापक दृष्टि है जिससे सामाजिक जीवन केे सभी क्षेत्रों को अनुप्राणित और उन्नत कर उनके बीच समन्वय की स्थापना करनी चाहिये, जिससे कि मानव जीवन अपने सभी पहलुओं में पूर्णत्व को प्राप्त करे। यह हमारे राष्ट्र तरु का जीवन-रस है, हमारी राष्ट्रिय अस्मिता, सत्ता का प्राण है।

9. हमारी संस्कृति कहती है कि 'ध्येय' (सामाजिक हित)को प्राप्त करने के 'साधन' (व्यक्ति) भी शुद्ध एवं पवित्र होने चाहिये।

10. हमारे शास्त्रों का सार यही रहा है कि 'शक्ति ही जीवन है, दुर्बलता मृत्यु है।'

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Wednesday 13 January 2016

हिंदुत्व का विचार

1. हम हिंदुओं ने अनन्यसाधारण आत्मिक संपत्ति प्राप्त करना अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया है। वह मानवी जीवन का अनुपमेय संपत्तिकोष है। इसकी हम स्वतंत्र रीति से अपने अंदर वृद्धि कर सकते हैं। चिरस्थायी सद्गुण, परिपूर्ण ज्ञान और आत्मा की सर्वश्रेष्ठता ही वह संपत्ति है। यह सत्य और शाश्वत संपत्ति अपना जीवनाधार है। इसीलिये अन्य देशों की तुलना में श्रेष्ठता का अधिक अस्तित्व अपने देश में दिखाई देता है। अन्यत्र सर्वसामान्य जनता किसी वीर सेनापति अथवा पराक्रमी अधिपति की पूजा करती है। परन्तु अपने देश में सामान्य जनता ही क्या, बड़े-बड़े वीर और राजा भी अरण्यवासी, अकिंचन (जो अपने पास फटे कपड़े का एक लत्ता तक नहीं रखता), अर्धनग्न संन्यासी की चरणधूलि शिरोधार्य करते हैं।

2. हिंदू सिद्धांत के अनुसार कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठता के अंतिम आविश्कार के रूप में उत्पन्न नहीं होता। ऐसा कहना ठीक भी नहीं है। क्योंकि उसका अर्थ यही होगा कि अपने समाज की नए-नए श्रेष्ठ नररत्नों के प्रसव की शक्ति समाप्त हो गई है। अपने यहाँ के सभी जानकार लोगों ने कहा है कि अखंड रूप से महापुरुष हुए हैं, हो रहे हैं और आगे भी होगें।

3. हिंदू समाज में सबके लिये व्यवहार के एक नियम नहीं बनाये गये। नियमों के ये भेद प्रकृतिभिन्नता के ही कारण हैं। तात्पर्य यह कि हमने सबको एक ही लकड़ी से हाँकने का विधान नहीं किया। यदि जीवन में हम समान नियम लागू करें और उसके अनुसार सबको बराबर मात्रा में भोजन दें तो कुछ बदहजमी के कारण मर जाएंगे, जबकि कुछ भूख से। अतः अपने यहाँ क्रमानुसार विकास का विचार है। हमने मनुष्य समूहों के गुण वैशिष्ट्य के अनुसार व्यवहार का निर्देश किया है। यह उचित भी है। सारी अवस्थाओं को देखते हुए यदि मानव के पोशण के लिये उसके वैशिष्ट्य को बनाये रखकर उसका राष्ट्र के रूप में विकसित होना आवष्यक है, तो मानवता के विकास तथा कल्याण के लिये अपने राष्ट्र को उसकी संपूर्ण विशेषताओं तथा विविधताओं के साथ विकसित करना भी परमावशयक है।
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हिंदू

While observing Samartha Bharat Parva, the thought related to the people, the nation and knowing about them did come to mind. That made the Katha Team think about knowing some of the important aspects of us.
Recently VHP announced every year 8 lakh Hindus gets converted. 'Conversion is Violence'. Swamiji also warns : One Hindu converted is not only one Hindu less but one enemy more. And, hence, having more knowledge about Hindu would be useful. Fortunately, Param Poojaneeya Sri Guruji has thrown a good amount of light over all these. We shall try to see some of the concepts in the coming days.

हिंदू

1. हम हिंदू हैं। प्राचीन काल से हिन्दुस्थान में रहते आए हैं। हमारा महाविशाल समाज है। इसमें विभिन्नताएँ होंगी, किन्तु हम सब एक हैं। पूर्व से पष्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक यह हमारा देश है। इस देष और समाज से हमारी श्रद्धा संबद्ध है। लोग हिंदू की व्याख्या पूछते हैं। मैं तो कहँूगा कि हम हिंदू हैं और हम जिसे कहेंगे वह हिंदू है। जगद्गुरु श्रीशंकराचार्य के समान हमें भी शंख फूँककर कहना होगा कि जिसके कान में शंखध्वनि पड़ी, वह हिंदू हो गया। आज तो हम इतना ही जानते हैं कि हम हिंदू हैं। हमारी समान श्रद्धाएँ हैं, परंपराएँ हैं, श्रेश्ठ महापुरुशों के समान जीवनआदर्श हैं।

2. एक हजार वर्ष पूर्व यहाँ हिंदू के अतिरिक्त किसी दूसरे का नाम तक नहीं था। अनेक पंथ, संप्रदाय, भाशाएँ, जातियाँ, राज्य रहे हों, किंतु सब हिंदू ही थे। शक, हूण, ग्रीक आदि आए, किन्तु उन्हें हिंदू बनना पड़ा। वे हमें भ्रश्ट करने में असफल रहे। बल्कि हमने ही उन्हें पूर्णरूपेण आत्मसात् कर लिया। पहले जहाँ सब ओर हिंदू ही थे, वहाँ आज हमारे ही अंग-प्रत्यंग को खाकर हमारे समाज से अलग होकर अपना प्रसार करनेवाले कई कोटि अहिंदू हैं। इस दृश्टि से हिंदू समाज का ह्रास क्या हमारी आँखों के सामने है?

3. 'हिंदू' के सम्बन्ध में कुछ लोग घिसे-पिटे पुराने आरोप दोहराते रहते हैं। आरोपों को सुनकर अपने समाज के लोग घबराते भी हैं। इस राष्ट्रजीवन को किसी अन्य पर्यायी शब्द से बोलने के लिये लोग सलाह भी देते हैं। परंतु क्या पर्याय लेने से मूल अर्थ बदलेगा? जैसे हमारे आर्यसमाजी बंघु कहते हैं कि आर्य कहो। 'आर्य' का भी मतलब वही निकलेगा। कुछ लोग 'भारतीय' शब्द का प्रयोग करने की बात कहते हैं। 'भारत' को कितना ही तोड़-मरोड़कर कहा जाए तो भी उसमें अन्य कोई अर्थ नहीं निकल सकता। अर्थ केवल एक ही निकलेगा 'हिंदू'। तब क्यों न 'हिंदू' शब्द का ही असंदिग्ध प्रयोग करें। सीधा-सादा प्रचलित शब्द 'हिंदू' है।

4. हिंदू शब्द हमारे साथ विशेष रूप से हमारे इतिहास के गत एक सहस्र वर्षो के संकटपूर्णकाल से जुड़ा रहा है। पृथ्वीराज के दिनों से लेकर हमारे समस्त राष्ट्र-निर्माताओं, राज्य-वेत्ताओं, कवियों और इतिहासकारों ने 'हिंदू' शब्द का प्रयोग हमारे जन-समाज और धर्म को अभिहित करने के लिये किया है। गुरु गोविन्दसिंह, स्वामी विद्यारण्य और षिवाजी जैसे समस्त पराक्रमी स्वतंत्रता-सेनानियों का स्वप्न 'हिंदू-स्वराज्य' की स्थापना करना ही था। 'हिंदू' शब्द अपने साथ इन समस्त महान जीवनों, उनके कार्यो और आकाँक्षाओं की मधुर गंघ समेटे हुए है। इस कारण यह एक ऐसा शब्द है जो संघ-रूप से हमारी एकात्मता, उदात्तता और विशेष रूप से हमारे जन-समाज को व्यंजित करता है।

5. यह हिंदूराष्ट्र है, इस राष्ट्र का दायित्व हिंदू समाज पर ही है, भारत का दुनिया में सम्मान या अपमान हिंदुओं पर ही निर्भर है। हिंदूसमाज का जीवन वैभवशाली होने से ही इस राष्ट्र का गौरव बढ़ने वाला है। किसी के मन में इस विषय में कुछ भ्रांति रहने का कारण नहीं है।
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji

विवेकानन्द केन्द्र कन्याकुमारी (Vivekananda Kendra Kanyakumari)
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. . . Are you Strong? Do you feel Strength? — for I know it is Truth alone that gives Strength. Strength is the medicine for the world's disease . . .
This is the great fact: "Strength is LIFE; Weakness is Death."
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Tuesday 12 January 2016

Hindu

Extremely sorry ... The font problem. Hence attaching the file.


While observing Samartha Bharat Parva, the thought related to the people, the nation and knowing about them did come to mind. That made the Katha Team think about knowing some of the important aspects of us.
Recently VHP announced every year 8 lakh Hindus gets converted. 'Conversion is Violence'. Swamiji also warns : One Hindu converted is not only one Hindu less but one enemy more. And, hence, having more knowledge about Hindu would be useful. Fortunately, Param Poojaneeya Sri Guruji has thrown a good amount of light over all these. We shall try to see some of the concepts in the coming days.

The document is attached.

Hindu

While observing Samartha Bharat Parva, the thought related to the people, the nation and knowing about them did come to mind. That made the Katha Team think about knowing some of the important aspects of us.
Recently VHP announced every year 8 lakh Hindus gets converted. 'Conversion is Violence'. Swamiji also warns : One Hindu converted is not only one Hindu less but one enemy more. And, hence, having more knowledge about Hindu would be useful. Fortunately, Param Poojaneeya Sri Guruji has thrown a good amount of light over all these. We shall try to see some of the concepts in the coming days.


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