4. हमारे लचीले धर्म के स्वरूप की जो प्रथम नैसर्गिक विशेषता बाहरी व्यक्ति की दृष्टि में आती है, वह है पंथ एवं उपपंथों की आश्चर्यजनक विविधता। यथा- शैव, वैष्णव, शाक्त, वैदिक, बौद्ध, जैन सिख, लिंगायत, आर्यसमाज आदि। इन सभी उपासनाओं के महान आचार्यों एवं प्रवर्तकों ने उपासना के विविध रूपों की स्थापना हमारे लोक-मस्तिष्क की विविध योग्यताओं की अनुकूलता का ध्यान रखकर ही की है। किंतु अंतिम निष्कर्ष के रूप में सभी ने उस एक चरम सत्य को लक्ष्य के रूप में प्राप्त करने के लिये कहा है, जिसे ब्रह्म, आत्मा, शिव, विष्णु, ईश्वर अथवा शून्य या महाशून्य के विविघ नामों से पुकारा जाता है।
5. 'अनेकता में एकता' का हमारा वैशिष्ट्य हमारे सामाजिक जीवन के भौतिक, आध्यात्मिक तथा सभी क्षेत्रों में व्यक्त हुआ है। यह उस एक दिव्य दीपक के समान है, जो चारों ओर विविध रंगों के शीशों से ढका हुआ हो। उसके भीतर का प्रकाश, दर्शक के दृष्टिकोण के अनुसार भाँति-भाँति के वर्णों एवं छायाओं में प्रकट होता है।
6. समाज एक जीवमान इकाई है। मानव, जीवसृष्टि का सबसे अधिक विकसित रूप है। इसलिये यदि किसी जीवमान समाज स्वरूप की रचना करनी हो, तो वह उसके अनुरूप होनी चाहिए। समाज जीवन की रचना भी यदि जीवमान मानव के अनुरूप ही की, तो वह भी निसर्ग के अनुकूल होने के कारण अधिक उपयुक्त होगी। मनुष्य के अवयव समान तो नहीं होते, किंतु परस्परानुकूल रहते हैं। अतः समाज की ऐसी रचना ही अधिक टिकाऊ होगी, जहाँ समान गुण एवं समान अंतःकरणवाले एकत्र आकर विकास करते हुए जीवन-यापन करने के जिस मार्ग से अधिक समाजोपयोगी सिद्ध हो सकें, उसके अनुसार चल सकें। साथ ही एकाद समूह ऐसा भी चाहिये, जो संपूर्ण समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने की पात्रता उत्पन्न कर, उनके पारस्परिक संबंधों को ठीक बनाये रखता हो। शरीर के अवयवों की भाँति समाजरूपी जीवमान इकाई के अंगों की आवश्यकता समझता हो, परन्तु स्वयं अपनी कोई आवश्यकता न रखता हो। ऐसा समूह ही सबको एकसूत्र में चलाने की पात्रता रख सकता है।
7. धर्म अथवा आध्यात्मिकता, हमारी दृष्टि में जीवन की एक व्यापक दृष्टि है जिससे सामाजिक जीवन केे सभी क्षेत्रों को अनुप्राणित और उन्नत कर उनके बीच समन्वय की स्थापना करनी चाहिये, जिससे कि मानव जीवन अपने सभी पहलुओं में पूर्णत्व को प्राप्त करे। यह हमारे राष्ट्र तरु का जीवन-रस है, हमारी राष्ट्रिय अस्मिता, सत्ता का प्राण है।
9. हमारी संस्कृति कहती है कि 'ध्येय' (सामाजिक हित)को प्राप्त करने के 'साधन' (व्यक्ति) भी शुद्ध एवं पवित्र होने चाहिये।
10. हमारे शास्त्रों का सार यही रहा है कि 'शक्ति ही जीवन है, दुर्बलता मृत्यु है।'
5. 'अनेकता में एकता' का हमारा वैशिष्ट्य हमारे सामाजिक जीवन के भौतिक, आध्यात्मिक तथा सभी क्षेत्रों में व्यक्त हुआ है। यह उस एक दिव्य दीपक के समान है, जो चारों ओर विविध रंगों के शीशों से ढका हुआ हो। उसके भीतर का प्रकाश, दर्शक के दृष्टिकोण के अनुसार भाँति-भाँति के वर्णों एवं छायाओं में प्रकट होता है।
6. समाज एक जीवमान इकाई है। मानव, जीवसृष्टि का सबसे अधिक विकसित रूप है। इसलिये यदि किसी जीवमान समाज स्वरूप की रचना करनी हो, तो वह उसके अनुरूप होनी चाहिए। समाज जीवन की रचना भी यदि जीवमान मानव के अनुरूप ही की, तो वह भी निसर्ग के अनुकूल होने के कारण अधिक उपयुक्त होगी। मनुष्य के अवयव समान तो नहीं होते, किंतु परस्परानुकूल रहते हैं। अतः समाज की ऐसी रचना ही अधिक टिकाऊ होगी, जहाँ समान गुण एवं समान अंतःकरणवाले एकत्र आकर विकास करते हुए जीवन-यापन करने के जिस मार्ग से अधिक समाजोपयोगी सिद्ध हो सकें, उसके अनुसार चल सकें। साथ ही एकाद समूह ऐसा भी चाहिये, जो संपूर्ण समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने की पात्रता उत्पन्न कर, उनके पारस्परिक संबंधों को ठीक बनाये रखता हो। शरीर के अवयवों की भाँति समाजरूपी जीवमान इकाई के अंगों की आवश्यकता समझता हो, परन्तु स्वयं अपनी कोई आवश्यकता न रखता हो। ऐसा समूह ही सबको एकसूत्र में चलाने की पात्रता रख सकता है।
7. धर्म अथवा आध्यात्मिकता, हमारी दृष्टि में जीवन की एक व्यापक दृष्टि है जिससे सामाजिक जीवन केे सभी क्षेत्रों को अनुप्राणित और उन्नत कर उनके बीच समन्वय की स्थापना करनी चाहिये, जिससे कि मानव जीवन अपने सभी पहलुओं में पूर्णत्व को प्राप्त करे। यह हमारे राष्ट्र तरु का जीवन-रस है, हमारी राष्ट्रिय अस्मिता, सत्ता का प्राण है।
9. हमारी संस्कृति कहती है कि 'ध्येय' (सामाजिक हित)को प्राप्त करने के 'साधन' (व्यक्ति) भी शुद्ध एवं पवित्र होने चाहिये।
10. हमारे शास्त्रों का सार यही रहा है कि 'शक्ति ही जीवन है, दुर्बलता मृत्यु है।'
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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. . . Are you Strong? Do you feel Strength? — for I know it is Truth alone that gives Strength. Strength is the medicine for the world's disease . . . This is the great fact: "Strength is LIFE; Weakness is Death." | |
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