1. राष्ट्र क्या है? यह ज्ञान हुए बिना राष्ट्रभक्ति पैदा नहीं होती। राष्ट्र-भक्ति की भावना के बिना स्वार्थ को तिलांजलि देकर राष्ट्र के लिये परिश्रम करना संभव नहीं है। इसलिये विशुद्ध राष्ट्र-भावना से परिपूर्ण, श्रद्धायुक्त तथा परिश्रमी लोगों को एक-सूत्र में गूँथना, एक प्रवृत्ति के लोंगों की परंपरा निर्माण करनेवाला संगठन खड़ा करना तथा इस संगठन के बल पर राष्ट्र-जीवन के सारे दोष समाप्त करने का प्रयत्न करना मूलभूत और महत्त्वपूर्ण कार्य है।
2. यह एक सर्वविदित सत्य है कि जब राष्ट्र-जीवन में दासता आती है, तब जनसाधारण के परम्परागत सद्गुणों का ह्रास होने लगता है। यह दासता मनुष्य को अनेक प्रकार के दुर्गुणों में प्रवृत्त करती है। हम एक-दूसरे के साथ विष्वासघात करते हैं, असत्य भाषण करते हैं, असत्य आचरण करते हैं, किसी भी प्रकार का पाप-कर्म करने में हमें हिचक नहीं होती।
3. जब राष्ट्र में परकीय आदर्श और परकीय संस्कृति को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और अपनी मूल सांस्कृतिक भावना नष्ट हो जाती है, तब यह समझना चाहिये कि यह राष्ट्रीय जीवन का अंत है।
4. राष्ट्र के संघर्ष में सार्मथ्य का प्रकटीकरण दो प्रकार से होता है। एक तो राष्ट्र की सेना की जो शक्ति है उससे, यानि क्षात्रबल से और दूसरा समाज के अंदर की प्रखर तेजस्वी और सर्वस्वार्पण की सिद्धता से युक्त शक्ति से। इन दो शक्तियों से ही कोई राष्ट्र अजेय और संपन्न बनता है। क्षात्रवृत्ति से भरी हुई अतीव तेजस्वी सैनिक षक्ति और प्रखर राष्ट्रभक्तियुक्त सुव्यवस्थित समाज से अजेय राष्ट्र का निर्माण होता है।
5. जिस समाज में जन्म से प्राप्त संस्कारों के कारण अभिजात देशभक्ति की भावना व्यक्ति के अंतःकरण में अंकुरित होती है, संवर्धित होती है, घर का काम छोड़कर राष्ट्र के लिये अपना सब कुछ अर्पण करने की वृत्ति रहती है और इस कारण एक सूत्रबद्ध जीवन का निर्माण होता है, उस समाज में चुनाव, राजनीति आदि बातें समाज का सुख-सौंदर्य वृद्धिंगत करने में कारणीभूत होते हैं। जिस प्रकार बलिष्ठ शरीर पर ही वस्त्रालंकार आदि शोभायमान होते हैं। जिसके हाथ-पैर लकड़ी के समान सूखे हों, उसके शरीर पर वह शोभा नहीं पाते अथवा जिस प्रकार कोई रोगग्रस्त शरीर पकवान नहीं पचा सकता, अन्न पचाने के लिये बलिष्ठ व निरोग शरीर आवष्यक होता है। उसी प्रकार शक्तिषाली, निरोग, पुष्ट राष्ट्रजीवन हो, तभी चुनाव या राजनीति सदृश आवरण शोभा पाते हैं। उनके कारण उस राष्ट्र का सुख-सौंदर्य बढ़ता है, वे सब उसके लिये उपकारक सिद्ध होते हैं।
2. यह एक सर्वविदित सत्य है कि जब राष्ट्र-जीवन में दासता आती है, तब जनसाधारण के परम्परागत सद्गुणों का ह्रास होने लगता है। यह दासता मनुष्य को अनेक प्रकार के दुर्गुणों में प्रवृत्त करती है। हम एक-दूसरे के साथ विष्वासघात करते हैं, असत्य भाषण करते हैं, असत्य आचरण करते हैं, किसी भी प्रकार का पाप-कर्म करने में हमें हिचक नहीं होती।
3. जब राष्ट्र में परकीय आदर्श और परकीय संस्कृति को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और अपनी मूल सांस्कृतिक भावना नष्ट हो जाती है, तब यह समझना चाहिये कि यह राष्ट्रीय जीवन का अंत है।
4. राष्ट्र के संघर्ष में सार्मथ्य का प्रकटीकरण दो प्रकार से होता है। एक तो राष्ट्र की सेना की जो शक्ति है उससे, यानि क्षात्रबल से और दूसरा समाज के अंदर की प्रखर तेजस्वी और सर्वस्वार्पण की सिद्धता से युक्त शक्ति से। इन दो शक्तियों से ही कोई राष्ट्र अजेय और संपन्न बनता है। क्षात्रवृत्ति से भरी हुई अतीव तेजस्वी सैनिक षक्ति और प्रखर राष्ट्रभक्तियुक्त सुव्यवस्थित समाज से अजेय राष्ट्र का निर्माण होता है।
5. जिस समाज में जन्म से प्राप्त संस्कारों के कारण अभिजात देशभक्ति की भावना व्यक्ति के अंतःकरण में अंकुरित होती है, संवर्धित होती है, घर का काम छोड़कर राष्ट्र के लिये अपना सब कुछ अर्पण करने की वृत्ति रहती है और इस कारण एक सूत्रबद्ध जीवन का निर्माण होता है, उस समाज में चुनाव, राजनीति आदि बातें समाज का सुख-सौंदर्य वृद्धिंगत करने में कारणीभूत होते हैं। जिस प्रकार बलिष्ठ शरीर पर ही वस्त्रालंकार आदि शोभायमान होते हैं। जिसके हाथ-पैर लकड़ी के समान सूखे हों, उसके शरीर पर वह शोभा नहीं पाते अथवा जिस प्रकार कोई रोगग्रस्त शरीर पकवान नहीं पचा सकता, अन्न पचाने के लिये बलिष्ठ व निरोग शरीर आवष्यक होता है। उसी प्रकार शक्तिषाली, निरोग, पुष्ट राष्ट्रजीवन हो, तभी चुनाव या राजनीति सदृश आवरण शोभा पाते हैं। उनके कारण उस राष्ट्र का सुख-सौंदर्य बढ़ता है, वे सब उसके लिये उपकारक सिद्ध होते हैं।
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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