Saturday, 30 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 15

कार्यभार-नियोजन

सन् १९०० में जब स्वामीजी ने कल्याण महाराज को संन्यास में दीक्षित किया तो उन्होंने पूछा, 'अच्छा, कल्याण, मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में देने के लिये तुम्हारे पास क्या है?' कल्याण महाराज ने कदम आगे बढाते हुए पास आकर कहा, 'यह लीजिये, मैं स्वयं को ही आपके प्रति समर्पित करता हूँ। मैं आपका दास हूँ, मुझे कोई भी आज्ञा दीजिये, मैं आदेश का पालन करूँगा।' स्वामीजी ने कहा, 'यही तो मुझे चाहिये। हरिद्वार जाओ। मैं तुम्हें कुछ धन दूँगा। कुछ जमीन खरीदो, झाड़ियाँ-जंगल साफ करके कुछ झोपड़ियाँ बनाओ। हरिद्वार जानेवाले अनेक तीर्थयात्री कष्ट पाते हुए मर जाते है क्योंकि उन्हें कोई औषधि-पथ्यादि की सहायता नहीं मिलती। और कोई उनके बारे में चिन्ता भी नहीं करता। जब मै वहाँ था तो मुझे एक डाक्टर के लिये सौ मील मेरठ जाना पड़ा। मेरठ में अस्पताल तो है परन्तु अनेकों वहाँ नहीं जा सकते। अतः इस प्रकार का कुछ निर्माण हरिद्वार में करो। यदि तुम सड़कों के किनारे लोगों को रोग से कष्ट पाते देखो तो उन्हें झोपड़ियों में लाकर उनका इलाज करना। बंगाल को मन से निकाल दो! यहाँ फिर मत आना! जाओ!' अतः कल्याण महाराज गये। स्वामी स्वरूपानन्दजी, जो उस समय मायावती में थे, तथा स्वामी विज्ञानानन्दजी को यह घटना ज्ञात हुई। स्वामी स्वरूपानन्दजी ने कुछ धन का संग्रह कर उन्हें भेजा तथा उनसे भेंट करने भी गये।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Tuesday, 26 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 14

मुग्धकारी एवं संसर्गज प्रशान्तता

कल्याण महाराज अविचल शान्ति में रहने वाले महापुरुष थे; वे कभी क्रोधित न होते थे तथा न ही उन्हें कोई अशान्त कर सकता था। एक बार टाइफॉइड का एक रोगी उन्मादग्रस्त था। उसने महाराज के पास आकर उन पर प्रहार किया। महाराज गिर पड़े और उनका चश्मा टूट गया। हम सब दौड़ते हुए आये और उस व्यक्ति को रोक रहे थे। महाराज ने कहा, 'कुछ मत करो, उसे बैठने दो।' वे धीरे से उठे, रोगी के पास बैठे, और अपना हाथ उस पर रखते हुए कहने लगे, 'क्या तुम अब ठीक हो?' फिर उन्होंने उसकी जाँच के लिये डाक्टरों को बुलाया। महाराज तो
एकदम शान्त और मौन थे। हम बहुत उतावले हो चुके थे परन्तु उन्होंने किसी भी प्रकार की मन की उद्विग्नता कभी प्रकट नहीं की। अपनी शान्तिपूर्ण अवस्था द्वारा उन्होंने रोगी को भी शान्त किया और धीरे धीरे अस्पताल की ओर चलने में उसकी सहायता की।

'बङ्गाल को भूल जाओ!'

निश्चय ही यह हमें उनसे सीखना होगा कि सेवा किसे कहते हैं। और उन्होंने यह सेवा-धर्म सैतीस वर्षों तक निभाया। वे कभी भी कलकत्ता वापस नहीं गये - उन्होंने वहीं रहते सेवा की। ब्रह्मानन्द महाराज ने उन्हें आने को कहा, स्वामी शिवानन्दजी ने उन्हें आने को कहा, और १९३६ में श्रीरामकृष्ण की जन्मशताब्दि के अवसर पर स्वामी अखण्डानन्द महाराज ने उन्हें आने को कहा। जब श्रीरामकृष्ण का नया मन्दिर बना तो स्वामी विज्ञानानन्दजी ने उन्हें बुलाने के लिये एक लम्बा पत्र लिखा। वे सदा ही 'न|' कहते रहे, परन्तु १९३७ में उन्होंने मुझे जाने के लिये कहा। मैंने उन्हें बताया, 'यदि आप नहीं जायेंगे तो मैं नहीं जाऊँगा। मैं यहीं रहूँगा।' मैं उन्हीं के साथ रहा। अनेक लोगों ने उनसे आने की प्रार्थना की परन्तु वे कभी नहीं गये। स्वामीजी ने उन्हें सन् १९०० में कहा था, 'बंगाल को भूल जाओ!' उन्होंने इसे याद रखा और कभी मुड़कर न गये। वे अतिनियमनिष्ठ तथा अनुशासनपरायण थे। आदर्श में वैसा धैर्यसन्तुलन वास्तव में ही कठिन हैं। अस्पताल का कार्य बहुत ही कठिन है। वे जानते थे कि इस कठिन कर्तव्य को निभाने का यही एक रास्ता है।

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Monday, 25 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 13

रोगी-कक्षों में कल्याण महाराज का रात्रिकालीन दौरा

कल्याण महाराज केवल शब्दों से ही दूसरों की सेवा करना नहीं सिखाते थे उनका अपना जीवन भी समर्पण का आदर्श था। वे विशेष ध्यान रखते थे कि प्रत्येक की सेवा उचित प्रकार से हो। इसमें कितना भी समय लगे, कोई बात नहीं। और वे स्वयं भी उनकी सेवा किया करते थे। रात के समय यदि वे अस्पताल में थोड़ी सी आवाज भी सुनते तो धीरे से उठकर जूते पहन वहाँ चले जाते। मेरा कमरा उनके कमरे के साथ ही था। जब भी चलते तो कुत्ता भी उनके साथ चला करता। सीमेन्ट से बने रास्ते पर चलते समय कुत्ते के पैरों से 'टक् टक् टक्' की ध्वनी आती थी, उससे पता चलता था कि वह महाराज के साथ जा रहा है। मैं जल्दी से उठ जाता और उनके साथ चल देता। वे जान जाते थे कि मैं उनके पीछे हूँ, और कहते, 'अमुक कमरे में जाकर अमुक अमुक दवाई लाओ।' मैं वह लाया करता था। वे रोगियों के आराम में बाधा पहुँचाये बिना प्रत्येक का निरीक्षण करते थे, और यदि उन्हें नींद नहीं आयी होती थी तो पूछते कि क्या किस वस्तु की आवश्यकता है। रात के समय दो या तीन बार वे इस प्रकार जाया करते थे। इस बारे में उन्होंने कभी किसी को नहीं बताया। यह काम वे स्वयं ही करते थे। फिर वे लौटकर लेट जाते। इस कारण उनका स्वास्थ्य गिर गया था। वृद्धावस्था में उन्हें मधुमेह की शिकायत हो गयी थी और वे अधिक कार्य नहीं करते थे। फिर भी, आवाज सुनने पर वे धीरे से उठ जाते।

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Sunday, 24 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 12

रोगियों के प्रति उनकी उद्विग्नता

एक अन्य समय उन्होंने एक रोगी के बारे में कहा, 'मानो तुम्हारा भाई भी वैसा हो तो तुम उसके लिये क्या करोगे? तुम्हें इस दृष्टि से सोचना चाहिये। वे सभी यहाँ तुम्हारे पर पूरा भरोसा रख कर आते हैं। यदि तुम रोगी को उसके हाल पर छोड़ दो तो उन्हें देखनेवाला कोई नहीं है। वे और कहीं नहीं जा सकते। सबसे अधिक आवश्यक बात यह है कि हम यहाँ उन्हीं की सेवा के लिये हैं। इसे कभी मत भूलना। लोग यहाँ पूरी तरह हमारे भरोसे आते हैं। तुम्हें उन्हें अपना समझकर इलाज करना चाहिये। कभी किसी रोगी को अस्वीकार मत करो।' उन्होंने डाक्टर को विशेषकर बताया, 'नारायण को बताये बिना किसी रोगी को अस्वीकार न करना। और उसे बताये बिना किसी रोगी की अस्पताल से छुट्टी भी मत करना।' यह इसलिये था कि डॉक्टर सोच सकता था कि रोगी बिल्कुल ठीक है और घर जा सकता है, परन्तु हो सकता था कि घर लौटने पर न तो कोई उसकी देखभाल करे और ही अच्छा भोजन दे; और हो सकता है कि कमजोरी की हालत में ही उसे काम करना पड़ जाता। अतः महाराज कहते, 'उसे और दो दिन रखो और अच्छी तरह खिलाओ, जब उसमें शक्ति आ जाये तब तुम उसे घर भेज सकते हो।' वे इस मामले में बड़े सावधान रहते थे कि प्रत्येक रोगी स्वास्थ्य और शक्ति अर्जित करके ही लौटे क्योंकि वे सभी निर्धन लोग थे और उन्हें काम करना पड़ता था। अस्पताल से छुट्टी करने के बाद भी हम उन्हें भोजन की आपूर्ति किया करते थे। वे इसे रसोईघर में लेने आते थे। दवाइयाँ भी दी जाती थीं। हमारी अपनी 'आर. के. मिशन' बोतलें थी। ये सभी आकारों की थीं। हम उनमें दवाई भर कर बाहरी रोगियों को दिया करते थे।

यदि कोई रोगी गम्भीर होता तो उसे जाकर देखना भी मेरा कर्तव्य हो गया : उसे क्या हुआ है? वह कैसा है? क्या हम उसके लिये और कुछ कर सकते हैं? उदाहरण के लिये, यदि कोई दवाई हमारे पास न होती तो हम उसे बाहरी स्रोतों से प्राप्त करने का प्रयत्न करते। या कभी कभी हमारा डाक्टर उस रोगी के लिये योग्य न होता और हमे दूसरे डाक्टर को लाने की आवश्यकता पड़ती। उस क्षेत्र में एक मेडिकल स्कूल तथा म्युनिसिपल (शहरी) अस्पताल या और हम उनसे सम्पर्क बनाये रखते। डाक्टर बोस नाम के एक स्थानीय प्राइवेट डाक्टर भी थे जिनकी सेवाएँ उपलब्ध थीं। इस प्रकार से महाराज विशेष रूप से देखते थे कि हम प्रत्येक रोगी के लिये जो भी बन पड़े उसके लिये भरसक प्रयत्न करें। उनका ध्यान सर्वदा रोगियों की ओर रहता कि हम उनकी सेवा किस प्रकार से कर पायें। आस पड़ोस के गरीब लोगों को इस अस्पताल की आवश्यकता थी क्योंकि उनके लिये जाने की और कहीं भी जगह न थी। वे कहा करते कि कल्याणानन्द महाराज उनके लिये भगवान हैं। मैंने अनेक बार स्थानीय लोगों को स्वामी निश्चयानन्दजी की प्रशंसा करते भी सुना। वे वास्तव में ही उनके प्रति कृतज्ञ थे, क्योंकि उन्होंने उनकी सेवा इस प्रकार से की थी, मानो वे उनके अपने ही थे। उन सभी लोगों ने इसे याद रखा था। प्रत्येक व्यक्ति कहा करता था कि दूसरे व्यक्ति वे थे जिन्होंने सभी रोगियों की बड़े यत्न और स्नेह से सेवा की। जब भी मैं ऐसा सुनता तो मैं सोचता; क्या हम भी कभी इस स्तर पर पहुँच सकते हैं?

एक अन्य बात महाराज यह कहा करते थे, 'तुम सेवा करने आये हो, करवाने नहीं। कोई दूसरा तुम्हारी सेवा करे इससे अच्छा है कि बीमार मत पड़ो।' वे इस विषय में बड़े सावधान थे। यहाँ तक कि यदि हमें जरा भी मलेरिया बुखार होता तो हम उन्हें नहीं बताते थे। हम कुछ दवाईयाँ ले लिया करते थे और काम में लगे रहते थे, क्योंकि हम यह कभी नहीं चाहते थे कि हम बिस्तर पकड़ लें और स्वयं दूसरे की सेवा करने के स्थान पर हमें किसी और से सेवा करवाने की आवश्यकता पड़ जाये।

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Thursday, 21 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 11

थोड़ी-सी सेवा भी अर्थपूर्ण है

एक बार दोपहर के समय एक ऐसा रोगी लाया गया जिस की अवस्था बड़ी खराब थी। उस समय अस्पताल बंद था। रोगी को लानेवाले लोग उसे अस्पताल के बाहर वाली सड़क के पास छोड़ गये। मैं गंगास्नान से लौट रहा था और मैंने उसे सड़क के पास पड़े देखा। मैंने डाक्टर को बुलाया, उन्होंने आकर रोगी की जाँच-परख की और कहा, 'यह जल्दी ही मर जायेगा; अस्पताल में भर्ती करने से कोई लाभ न होगा।' इतना कहकर डाक्टर चले गये। मैं वहाँ से हिल न सका, मैं वहीं रोगी को देखते हुए खड़ा रहा। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करना चाहिये, क्योंकि डाक्टर का आदेश अन्तिम माना जाता था। उस समय मैंने स्वामी कल्याणानन्दजी को देखा जो भीतर से मेरी ओर देख रहे थे। उन्होंने मुझे इशारे से बुलाया ताकि मैं उनके पास जाऊँ और बताऊँ कि क्या बात है। मैंने अन्दर जाकर कहा, 'एक मरीज बाहर सड़क के पास पड़ा है। डाक्टर ने कहा है कि वह किसी भी समय मर सकता है इसलिये उसे भर्ती करने की क्या आवश्यकता है।'

महाराज ने कहा, 'नहीं, दरवाजा खोलो, एक बिस्तर तैयार करो और उसे अन्दर रखो। यदि वह मरे भी तो उसे शान्ति से मरने दो। कम से कम तुम उसकी कुछ सेवा तो कर सकते हो। हम नहीं जानते कि कौन कब मरेगा। यह सेवाश्रम है, सेवा का स्थान है। चाहे तुम दो मिनट की सेवा करो, या दो घण्टे, दो दिन या दो महीने की, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। तुम्हें तो बस उनकी सेवा करनी है। उसे मरने के लिये सड़क पर छोड़ देना! (यह कैसी बात है)?' तुरन्त ही दौड़कर मैंने दरवाजा खोला और अन्य दो लड़कों की सहायता से रोगी को एक खाली कमरे में रखा। महाराज ने आकर उसे देखा। उन्होंने कुछ दवाइयाँ देने के लिये बतायीं और उसे थोड़ा ग्लूकोज का पानी तथा नीम्बू का शरबत देने के लिये मुझे कहा। मैंने उसे ये दिये। चार घण्टे बाद वह चल बसा। फिर महाराज ने आकर कहा, 'देखो, अब यह देखना तुम्हारा उत्तरदायित्व है कि अन्त्येष्टि अनुष्ठानों का पालन हो। अतः अब तुम इस देह को गङ्गा के किनारे ले जाओ और दाहकर्म सम्पन्न करो। ये सभी बातें लोगों के लिये सहायक हैं। वे दूर गाँवों से आते हैं। वे और कहाँ जा सकते हैं?' इसलिये हमने दाहसंस्कार का भी प्रबन्ध किया और इस बारे में उसे लानेवाले दो व्यक्तियों को बताया। वे बड़े प्रसन्न थे। नहीं तो वे उसे लेकर जाते भी कहाँ ? इस प्रकार महाराज यह बात विशेष ध्यान से देखते थे कि अल्पतम सेवा भी की जाये। यदि आप केवल कुछ ही मिनटों के लिये सेवा करते हैं तो वह भी महत्त्वपूर्ण है। बात यह नहीं कि आप कितनी देर सेवा कर रहे हैं जिसकी जरुरत है वह अवश्य ही करना होगा।

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Wednesday, 20 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 10

'मन्दिर तथा अस्पताल में एक समान रहो'

अस्पताल में सेवाकार्य के लिए भेजने से पहले कई बार महाराज हमें कुछ निर्देश देकर प्रेरित किया करते थे। ऐसे ही एक अवसर पर उन्होंने कहा था, 'देखो, यह मन्दिर है और वह अस्पताल है। जब तुम मन्दिर में जाते हो तो वहाँ फलों, फूलों, स्तोत्रों तथा मन्त्रों सहित जाते हो। जब तुम अस्पताल में जाते हो तो वहाँ भोजन-पथ्य, दवाइयों तथा थोड़े-से सहानुभूतिपूर्ण शब्दों सहित जाते हो। दोनों बिल्कुल एक समान हैं। तुम जो कुछ मन्दिर में करते हो और जो कुछ अस्पताल में करते हो वह एक दूसरे से भिन्त्र नहीं है।। यही स्वामी (विवेकानन्द) जी का आदर्श है। अतः, हमेशा ही ऐसी विचारशीलता का दृष्टिकोण रखो। अपना प्रत्येक व्यवहार अतिसावधानीपूर्वक निर्मल रखो। उनके प्रति स्नेही तथा करुणाशील बनो। वे सभी तुम्हारी सहायता चाहते हैं। जाओ!' इस प्रकार के छोटे छोटे उपदेश देकर वे हमें अस्पताल भेजा करते थे।

एक दिन महाराज ने मुझे बताया, 'इसे "Sick-house" (रुग्ण- शाला) के बजाय "Hospital" (अस्पताल) क्यों कहा जाता है? – इसलिये कि हमें Hospitable (सत्कारशील) होना आवश्यक है। जब लोग आते हैं तो सत्कारशीलता मुख्य बात है। इसे भूलो मत।  Patient (रोगी) क्या है? वे सभी रोगग्रस्त लोग हैं। उनसे व्यवहार करते समय तुममें Patience (धीरता) अवश्य होनी चाहिये। वे "Patient" (रोगी) कहे जाते हैं क्योंकि वे तुम्हें यह सिखाते है कि धैर्यवान कैसे बना जाए।'

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Tuesday, 19 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 9

प्रसन्न रहो तथा अन्यों को भी प्रसन्न रखो

कल्याण महाराज मितभाषी थे। वे शब्दों द्वारा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं देते थे - अपितु उनका जीवन ही एक महान् आदर्श था। वे जो कुछ भी करते हम उसे बहुत ही ध्यानपूर्वका देखते थे। वे अत्यन्त सतर्क, अत्यन्त समर्पित थे और यद्यपि वे अधिक नहीं बोलते थे परन्तु उनके शब्द अतिप्रासंगिक होते थे। एक दिन बहुत सुबह कुछ ब्रह्मचारीगण अस्पताल की डिस्पेंसरी की ओर जा रहे थे, महाराज ने देखा कि उनमें एक का मुख थोड़ा निराश-सा था।

 उन्होंने उन ब्रह्मचारी महाराज से पूछा, 'तुम ऐसे क्यों दिख रहे हो? क्या तुमने नाश्ता किया? तुम्हारी नींद अच्छी हुई थी? परन्तु ब्रह्मचारीजी तब भी थोड़े अस्तव्यस्त थे। महाराज ने कहा, 'तुम अस्पताल में सेवा के लिये जा रहे हो। रोगी तो पहले से ही बीमार है। यदि तुम स्वयं ही इतने निराश हो तो रोगियों को क्या आशा बँधाओगे? ऐसा लटका- सा चेहरा लेकर उनके पास मत जाओ। तुम्हें उन्हें प्रसन्न करना होगा! मन्दिर में जाकर श्रीरामकृष्ण से प्रार्थना करो और फिर प्रसन्नमुख और प्रफुल्लित मुख होकर डिस्पेन्सरी में जाओ। तुम्हें उन्हें प्रेरणा देनी चाहिये, उनकी सहायता करनी चाहिए, कुछ सहानुभूतिपूर्ण शब्द बोलने चाहिएँ और उन्हें प्रसन्न करना चाहिए। यदि तुम स्वयं ही उदास और रोगग्रस्त अस्वस्थ हो तो उन्हें क्या प्रेरणा दोगे?' यदि कोई निराशाजनक मुख लेकर अस्पताल में जाता तो वे कभी पसन्द नहीं करते थे। वे हमें बताया करते, 'तुम सभी यहाँ आनन्द के लिये हो। प्रसन्न हो और वहाँ जाकर उन्हें भी प्रसन्न करो। यह सब से जरुरी बात है। वे तो क्लेशों के मारे रोगी लोग हैं और तुम सभी वहाँ बीमार-सा मुँह लेकर जाते हो!'

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Monday, 11 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 8

'प्रसन्न रहो तथा अन्यों को भी प्रसन्न रखो'
कल्याण महाराज मितभाषी थे। वे शब्दों द्वारा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं देते थे – अपितु उनका जीवन ही एक महान् आदर्श था। वे जो कुछ जाते हो तो वहाँ फलों, फूलों, स्तोत्रों तथा मन्त्रों सहित जाते हो। जब तुम अस्पताल में जाते हो तो वहाँ भोजन-पथ्य, दवाइयों तथा बोड़े-से सहानुभूतिपूर्ण शब्दों सहित जाते हो। दोनों बिल्कुल एक समान हैं। तुम जो कुछ मन्दिर में करते हो और जो कुछ अस्पताल में करते हो वह एक दूसरे से भिन्त्र नहीं है।। यही स्वामी (विवेकानन्द) जी का आदर्श है। अतः, हमेशा ही ऐसी विचारशीलता का दृष्टिकोण रखो। अपना प्रत्येक व्यवहार अतिसावधानीपूर्वक निर्मल रखो। उनके प्रति स्नेही तथा करुणाशील बनो। वे सभी तुम्हारी सहायता चाहते हैं। जाओ!' इस प्रकार के छोटे छोटे उपदेश देकर वे हमें अस्पताल भेजा करते थे।

एक दिन महाराज ने मुझे बताया, 'इसे "Sick-house" (रुग्ण- शाला) के बजाय "Hospital" (अस्पताल) क्यों कहा जाता है? – इसलिये कि हमें Hospitable (सत्कारशील) होना आवश्यक है। जब लोग आते हैं तो सत्कारशीलता मुख्य बात है। इसे भूलो मत। और "Patient" (रोगी)? Patient (रोगी) क्या है? वे सभी रोगग्रस्त लोग हैं। उनसे व्यवहार करते समय तुममें Patience (धीरता) अवश्य होनी चाहिये। वे "Patient" (रोगी) कहे जाते हैं क्योंकि वे तुम्हें यह सिखाते है कि Patient (धैर्यवान) कैसे बना जाए।'

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Sunday, 10 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 7

महाराज की दिनचर्या

प्रतिदिन प्रातःकाल नाश्ते के बाद मैं उनके कमरे में जाता। फिर हम रोगियों के कक्षों में जाते, वहाँ से बगीचे में, वहाँ काम में लगे लोगों को देखते; फिर गोशाला में; इसके बाद पुस्तकालय में और फिर मन्दिर में जाते। बाद में हम रसोईघर में जाते और सम्भवतः रसोइये को कुछ बताते; फिर वे धीरे धीरे लौट आते। इसके बाद वे कुछ आहार लेते और रोगियों को एक एक कर देखने पुनः अस्पताल जाते। इसमें सन्देह नहीं कि रोगियों को देखने के लिये वहाँ डॉक्टर था। परन्तु डॉक्टर के अतिरिक्त वे स्वयं प्रत्येक रोगी से जान-पहचान रखते थे कि उसे क्या दिया गया है, और वह कैसा अनुभव कर रहा है। वे रोगी के पास बैठ जाते तथा उसका स्पर्श करते हुए कहते, 'कल रात तुम अच्छी तरह सोये थे?' और वे उसका हाल- चाल पूछते। यह सब वे बहुत अच्छे ढंग से पूछते। प्रत्येक रोगी के पास वे काफी समय बिताते। हमारे पास पैंतीस से चालीस रोगी रहते थे - इससे अधिक नहीं। वे प्रत्येक रोगी से बातचीत किया करते थे। यदि कुछ आवश्यकता होती तो वे मुझे कहते कि जाकर अमुक दवाई ले आओ या डाक्टर को बुलाने को कहते। यह हर रोज का नित्यक्रम था।

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Saturday, 9 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 6

मेरे प्रशिक्षण का प्रारम्भ

परन्तु हिसाब-किताब देखने से भी अधिकतर में साये की तरह हमेशा उनके साथ घूमता-फिरता था। वे जहाँ भी जाते, जो कुछ भी करते, मैं उनकी हर बात का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता। मुझे और कुछ करने के लिये नहीं कहा गया था। मेरा केवल इतना ही काम था कि मैं उनके साथ रहूँ। कुछ सप्ताह बाद मैंने उन्हें पुनः कहा कि मैं अस्पताल में काम करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा, 'जाकर उनलोगों से पूछ लो कि वे तुम्हारे से क्या करवाना चाहते हैं।' अस्पताल वालों ने मुझे रोगियों के कक्षों की सफाई करने को कहा। मैं ब्रश से पीकदानियों तथा हाजतियों (Bed pans) को साफ करता। झाडू देनेवाली एक स्त्री ने मुझे उनकी सफाई करने का ढंग बताया। मैंने उससे यह कार्य सीख लिया। ये घास के ब्रश हम ही बनाते थे और उन्हीं की सहायता से मैं सफाई किया करता। परन्तु जब भी महाराज मुझे बुलाते तब वे जहाँ भी जाते, मुझे उनके साथ चलना पड़ता था। जब कभी वे बगीचे में जाते तो मैं उनके साथ जाता। वे चाहते थे कि मुझे प्रत्येक बात का ज्ञान हो - जैसे कि; बगीचे में क्या-क्या है, रोगी कौन हैं इत्यादि। एक बार उन्होंने पूछा, 'क्या तुम आज बगीचे में गये थे? वह छोटा मैगनोलिया का पौधा कैसा है? उस पर कितने फूल आये हैं?' मैंने कहा, 'मैंने उसे कभी नहीं देखा।' उन्होंने कहा, 'जानते नहीं; वह बहुत ही विशेष पौधा है। तुम्हें देखना चाहिये कि उस पर कितनी कलियाँ आयी हैं।' वे ऐसे प्रश्न पूछा करते ताकि मैं प्रत्येक वस्तु को सूक्ष्म-निरीक्षण की दृष्टि से देखना सीखें। वे इसी प्रकार परख रखते थे। एक बार उन्होंने एक रोगी के बारे में पूछा, 'अमुक कैसा है?' और मैंने कहा, 'मैं नहीं जानता।' उन्होंने कहा, 'क्या तुम अस्पताल में घूम-फिर कर नहीं देखते कि क्या हो रहा है?' तब मैं पता करने को दौड़ा। इस प्रकार उनके आने से पहले ही मैंने अस्पताल में घूम कर इन बातों का पता लगाना सीखा। मैं गंभीर रोगियों के हालचाल के बारे में पूछताछ करता; फिर मैं इन बातों को लिख लेता तथा महाराज को बताता। मधुमेह की शिकायत के कारण महाराज अधिक चल-फिर नहीं सकते थे और उन्हें आराम की आवश्यकता होती थी। अतः कई बार वे स्वयं अस्पताल नहीं जा सकते थे। उन्होंने हर बात को विस्तारपूर्वक जानने का मेरा स्वभाव बना दिया। मुझे प्रत्येक जानकारी प्राप्त करके उन्हें देनी होती थी। इस प्रशिक्षण द्वारा मैं अस्पताल के काम, आश्रम के काम के साथ साथ यह भी सीख गया कि वे इसका व्यवस्थापन किस प्रकार करते हैं।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

Friday, 8 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 5

महाराज का मुझ में अड़िग विश्वास

एक बार मैंने पाया कि डाक विभाग हमारे डाक-खाते से कर (टैक्स) काट रहा है। मैंने कहा, 'महाराज, हमारी संस्था तो धर्मार्थ है परन्तु वे कर काट रहे हैं। हमें उन्हें बताना चाहिये।' उन्होंने उत्तर दिया, 'ओह, क्या करना चाहिए इसे वे मेरे या तुम्हारे से अच्छी प्रकार जानते हैं।'

मैंने दृढ़तापूर्वक कहा, 'महाराज, यह ठीक नहीं हो रहा है।' परन्तु उन्होंने इस बारे में अधिक ध्यान नहीं दिया। मैं चुप न रह सका; मैंने पोस्टमास्टर को बताया। उसने मुझे अपनी संस्था की स्थिति को धर्मार्थ घोषित करनेवाला विवरण पेश करने को कहा। कुछ समय बाद डाक विभाग ने महाराज को सूचित किया कि कुछ हजार रुपये की एक बड़ी राशि उनके खाते में जमा कर दी गयी है। महाराज ने मुझे पूछा तो मैंने उन्हें बताया कि मैंने पोस्टमास्टर से बात की थी और उसने यह व्यवस्था की है। महाराज ने पूछा, 'क्या तुम्हारे कहने का यह मतलब है कि उन्होंने यह धन हम से ले लिया था।' मैंने कहा, 'हाँ महाराज।' तब से महाराज को मुझ पर अद्भुत विश्वास हो गया। इससे पहले मैंने उन्हें बताया था कि हिसाब-किताब ठीक रखने के लिये हमें एक खाता-बही, दैनिकी तथा अन्य वस्तुएँ खरीदनी हैं। उन्होंने पूछा, 'ये सब क्या हैं? मैंने पैंतीस साल तक काम चलाया और तुम आकर मुझे बताते हो कि हमें इन बही-खातों की जरुरत है।' मैंने कहा, 'महाराज हिसाब को सुव्यवस्थित रखने के लिये वे अच्छे हैं।' परन्तु बाद में, उन्हें धन मिल जाने पर उन्होंने कहा, 'तुम्हें जिस वस्तु की आवश्यकता हो, खरीद लो।' अब उन्हें पूर्व विश्वास हो गया था तथा फिर कभी उन्होंने इस बारे में चिन्ता नहीं की।

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Thursday, 7 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 4

स्वर्ग में भी मुनीमी !

मेरे आने के कुछ दिनों बाद मैंने कल्याण महाराज को बताया कि मैं अस्पताल में कुछ सेवा करना चाहता हूँ। परन्तु वे बार बार कहते, 'करना तो आसान है पर समझना कठिन है।' मैं सोधता: इस में जानने की क्या बात है? मैंने उन्हें बताया, 'अस्पताल में कितना ही काम करने लायक है, वहाँ काम करने वालों का अभाव है। मैं उनकी सहायता के लिये कुछ करना चाहता हूँ। मैं यहाँ खाली बैठने के लिये नहीं आया।' उन्होंने मुझे पूछा, 'यहाँ आने से पहले तुम क्या कर रहे थे?' मैंने कहा कि मैं लेन-देन और हिसाब-किताब का थोड़ा-बहुत काम किया करता था।' उन्होंने कहा, 'यही तो मैं चाहता हूँ, कुछ महीने पहले (अक्तूबर १९३४ में) स्वामी निश्चयानन्द महासमाधि में लीन हो गये। सारा हिसाब-किताब वैसे ही पड़ा है; कुछ नहीं हुआ है। तुम वही काम करो।' और उन्होंने एक चुटकुला सुनाया : 'मानो गारा लगाने का काम करने वाला कोई व्यक्ति स्वर्ग में जाता है - वह वहाँ क्या करेगा? गारा लगायेगा। तुम हिसाब-किताब का काम जानते हो और तुम यहाँ स्वर्ग में आये हो यह भी वैसी बात है!' वे बड़े प्रसन्न थे कि मैं वह कार्य कर सकता था। मैंने जाकर हिसाब देखा। दो या तीन महीनों से कुछ नहीं किया गया था। फिर महाराज ने मुझे वही ढंग अपनाने को कहा जिसे स्वामी निश्चयानन्दजी अपनाते आये थे। निश्चयानन्दजी भी स्वामीजी के समर्पित शिष्य थे, अक्तूबर १९३४ में अपनी महासमाधि से पूर्व तक उन्होंने तीस वर्ष की लम्बी अवधी तक कनखल सेवाश्रम में सेवा की थी। दो ही दिनों में मैंने काम निबटा दिया तथा उन्हें बताया, 'महाराज, काम समाप्त हो गया।' उन्होंने कहा, 'इतने जल्दी?' मैंने कहा, 'केवल थोड़ा- सा ही काम है - अधिक तो नहीं है।' उन्होंने मुझे बेलूड़ मठ भेजने के लिये एक लेखा-विवरण तैयार करने के लिये कहा। यह प्रक्रिया बड़ी रोचक थी। वे कुमार लाहा नामक पेंट (रंग) वाले व्यक्ति द्वारा प्रकाशित कैलेण्डर का मासिक पन्ना फाडते और इसके पीछे मासिक लेखा-विवरण लिख देते। फिर वे उन संख्याओं को बेलूड़ मठ के लेखे-विवरण में भरकर भेज देते। कैलण्डर का वह पन्ना उनकी कार्यालय-प्रति के रूप में रहता। वे इस प्रकार काम चलाते थे।

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Wednesday, 6 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 3

स्वयं संघगुरु का आदेश!

मैंने अधिक बातचीत नहीं की, केवल इतना ही कहा, 'मैं यहाँ आज ही पहुंचा हूँ।' महाराज ने वासुदेव नामक एक ब्रह्मचारीजी को बुलाया तथा जिस भवन में वे (स्वामी कल्याणानन्दजी) रहते थे, उसी में मेरे रहने के स्थान का प्रबन्ध करने को उसे कहा। उन्होंने बँगला भाषा में उन्हें कहा कि वे मेरे स्नान, भोजन तथा वस्त्रों इत्यादी का सारा प्रबन्ध कर दें। ब्रह्मचारी महाराज बहुत मृदु तथा स्नेही थे। एक अन्य ब्रह्मचारी महाराज ने उनका हाथ बंटाया और दोनों ने ऐसा व्यवहार किया कि मानो वे मुझे जानते हों। उन्होंने मुझे स्नान करने को कहा और फिर मुझे नये वस्त्र दिये। मुझे ऐसा व्यवहार मिला कि विश्वास नहीं हो रहा था। वे तो मेरे अपनों जैसे लग रहे थे। उन्होंने मेरे लिये शय्या का प्रबन्ध किया और उस संध्या को मुझे कुछ अच्छा भोजन मिला। स्वामी ब्रह्मानन्द महाराज का जन्मदिन दो दिन पहले ही मनाया गया था अतः वहाँ बहुत सी मिठाइयाँ थीं। उन दोनों ने पास बैठकर मुझे भोजन कराया।

इसके पश्चात् मैं महाराज के पास आया। उन्होंने मेरे स्वास्थ्य का हाल जाना और कहा, 'तुम्हारी हालत खराब हो गयी है।' (मेरे पैरों की स्थिति खराब थी तथा अन्य कुछ समस्याएँ थीं, दूसरे दिन मैं अस्पताल गया) महाराज बहुत दयालु थे। उन्होंने मेरे पूरे जीवन के बारे में पूछताछ की और पता लगाया कि मैं स्वामी अखण्डानन्द महाराज से कैसे मिला। उन्होंने अखण्डानन्द महाराज का बंगला में लिखा पत्र पढ़ा। इस में लिखा था, 'छेलेके पाठाच्चि; जत्न कोरे देखबे।' अर्थात्, 'इस लड़के को मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ, अच्छी तरह से देखभाल करना।' पत्र में और कुछ नहीं; बस, यही बात थी – यह नहीं कि वह एक संन्यासी बनेगा या ऐसी कोई और बात। बाद में स्वामी कल्याणानन्दजी ने कहा, 'मेरे सम्पूर्ण जीवन में किसी ने भी, यहाँ तक की संघ के महाध्यक्ष महाराज ने भी, पहले कभी ऐसा कोई व्यक्ति नहीं भेजा और न ही कभी उसकी देखभाल करने को कहा। और ये आदेश संघ के महाध्यक्ष के थे।'

स्वामी अखण्डानन्दजी से मेरी प्रथम भेंट

कुछ महीनों पहले जब मैं स्वामी अखण्डानन्दजी से पहली बार मिला था तो उन्होंने मुझसे पूछा था कि मैं क्या बनना चाहता हूँ। मैंने कहा कि मैने स्वामी विवेकानन्द के भाषणों और लेखों को पढ़ा है और उन्होंने मुझ पर अत्यधिक प्रभाव डाला है। मैं अरविन्द घोष तथा रमण महर्षि के बारे में भी कुछ जानता था, और मैं महात्मा गान्धी से भी मिला था तथा उनके स्थान पर सामाजिक कार्य भी कर चुका था, परन्तु वहाँ आध्यात्मिक वातावरण नहीं था। वे सभी अपनी जगह अच्छे थे परन्तु मैंने अनुभव किया कि स्वामीजी के विचारों में कुछ विशेष बात है : उनमें केवल अच्छा जीवन बिताने की ही नहीं वरन् लोगों की सहायता तथा सेवा की भी बात है। व्यक्तिगत संघर्ष तथा आध्यात्मिक विधि से दूसरों की सहायता करने का यह संयुक्त आदर्श मुझे बहुत भाया। मैंने अखण्डानन्द महाराज को बताया, 'इस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है और यही मेरा आदर्श है, मैं ऐसा ही स्थान चाहता हूँ।' अखण्डानन्द महाराज ने मुझे बताया, 'मैं तुम्हें ऐसे ही स्थान पर भेजूंगा, और तुम्हें वहाँ बहुत अच्छा लगेगा। वहाँ उचित व्यक्ति है और उचित वातावरण है।' इसीलिये उन्होंने मुझे कनखल भेजा जहाँ स्वामीजी के मन्त्रशिष्य स्वामी कल्याणानन्दजी कार्यरत थे। वे उस आदर्श के मूर्तरूप थे जिसकी मुझे तलाश थी। अतः उन्होंने मुझे हरिद्वार जाने की आज्ञा दी और कहा कि वे स्वामी कल्याणानन्दजी को इस विषय में पत्र लिख देंगे।

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Tuesday, 5 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 2

स्वामी सर्वगतानन्द (तब ब्रह्मचारी नारायण) के लिए ३ दिसम्बर सन् १९३४ का दिन, मुम्बई से कनखल की एक हजार मील यात्रा का प्रथम दिन था। कुछ सप्ताह पूर्व वे स्वामी अखण्डानन्दजी (स्वामी विवेकानन्द के गुरुधाई) से मिले थे जिन्होने उन्हें रामकृष्ण संघ में लेना स्वीकार किया था तथा जिन्होंने उन्हें बताया था कि यदि वे संन्यासी बनना चाहते हैं तो वे कनखल पैदल चलकर जायें। क्योंकि अपने परिव्राजक काल में उनके गुरु ने हिमालय क्षेत्र में प्रायः नंगे पैरों ही प्रव्रजन किया था, इसलिए नारायण ने अपने जूते निकाल फेंक हजार मील नंगे पाँव चलने का निश्चय किया। रास्ते की कठिनाइयाँ और अनुभव अन्य कहानी का विषय हैं। यह कहानी यात्रा की समाप्ति पर शुरु होती है।

कनखल सेवाश्रम में मेरा आगमन

मैं ७ फरवरी १९३५ के दिन हरिद्वार आया और रामकृष्ण मिशन का पता जानना चाहता था। मैंने बाजार में कुछ लोगों को पूछा परन्तु कोई भी समझ न पाया कि मैं किस बारे में पूछ रहा है। अन्त में मैंने गंगा-नहर की तरफ एक सुन्दर भवन देखा जिस पर लिखा था- 'मद्रासी धर्मशालार मैं उसके भीतर गया तथा एक स्वामीजी से रामकृष्ण मिशन के बारे में पूछा। उन्होंने कहा, 'ओऽऽऽ, तो तुम्हारा तात्पर्य बंगाली अस्पताल से है।' मैंने कहा, 'हाँ, अवश्य वहीं होगा।' उन्होंने पूछा, 'कहाँ से आये हो?' मैंने उन्हें बता दिया, तब उन्होंने कहा, 'वहाँ क्यों जाना चाहते हो?' वे चाहते थे कि मैं उन्हीं के दल में शामिल हो जाऊँ अतः उन्होंने मुझे निरुत्साहित किया। मैंने कहा, 'नहीं, मैंने रामकृष्ण मिशन में शामिल होने का निलय किया है। मैंने उन्हें अन्य बातें विस्तार से नहीं बतायी। तब उन्होंने मुझे वहाँ पहुँचने का रास्ता बताया कि पुल पार करके कनखल मार्ग पकड़ना होगा।

उनके निर्देशानुसार चलते हुए मैं ऐसी जगह पहुँचा जहाँ दायीं ओर के मुख्य मार्ग से एक और सड़क निकलती थी। मैंने पाँच बड़े द्वारों वाला एक विशाल परिसर देखा। मैंने प्रत्येक द्वार से प्रवेश करने का प्रयत्न किया परन्तु वे बन्द थे और लगता था कि उनका कभी भी प्रयोग नहीं किया गया था। परन्तु एक द्वार के पास एक और छोटा फाटक था जहाँ से लोगों के आने जाने का अनुमान लगता था। अतः मैं उस छोटे फाटक से अस्पताल के अहाते में दाखिल हुआ। मैं वहाँ किसी को न पा सका। आगे बढ़ने पर मुझे बाड़ दिखाई दी जिसमें से अन्दर जाने का कोई रास्ता नहीं था। इसलिये मैं इसे फाँद गया और तब मैंने पाया कि आगे और भी एक बाड़ है। जब मैंने आसपास देखा तो कुछ दूरी पर मुझे एक विशाल लॉन और एक सुन्दर भवन दिखा। वहाँ एक स्वामीजी खड़े थे तथा उनके साथ एक बड़ा कुत्ता था। मैंने वह बाड़ भी कूद कर पार की। मैं कुत्ते से बहुत ही डरा हुआ था क्योंकि वह मुझे आँखे फाड़कर देख रहा था। परन्तु मैं धीरे धीरे स्वामीजी की ओर बढ़ने लगा, वे भी मेरी ओर देख रहे थे। मैंने जाकर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने पूछा, 'क्या तुम नारायण हो? मैंने उत्तर दिया, "हाँ महाराज।" स्वामी कल्याणानन्दजी ने अत्यन्त हर्षपूर्वक कहा, 'ठीक है, बहुत देर पहले मुझे स्वामी अखण्डानन्दजी का पत्र मिला था जिस में लिखा था कि तुम आ रहे हो।' अब, जबकि हम एक दूसरे बात कर रहे थे, कुत्ता समझ गया कि हम एक दूसरे से परिचित है, अतः रह मेरे साथ बड़ी मित्रता करने लगा और पास आकर अपनी पूँछ हिलाने लगा।

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Monday, 4 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 1

एक बार जब स्वामी विवेकानन्द कलकत्ते में थे तो उन्होंने कल्याण महाराज को हावड़ा स्टेशन से बर्फ लाने के लिये पाँच रुपये दिये। उन्होंने बर्फ का एक बड़ा टुकड़ा सिर पर उठाया, पूरा रास्ता पैदल चलकर स्वामीजी को बर्फ ला दी।

स्वामीजी विस्मित होकर कह उठे, 'तुम इतनी बर्फ को लाये?'

'आपने मुझे पाँच रुपये दिये थे! अतः मैं पाँच रुपये की बर्फ ले आया।'

स्वामीजी ने कहा, 'मैंने तो तुम्हें पाँच रुपये की बर्फ लाने को नहीं कहा।'

स्वामीजी ने उनका सिर बर्फ से पिघले ठण्डे पानी से तर- बतर और उन्हें निश्चल खड़े देखकर कहा,

'कल्याण, अन्त में तुम परमहंस हो जाओगे।'

और कल्याण महाराज वास्तव में ही परमहंस हुए।

वे सर्वदा शान्त, निराडम्बर, तथा प्रशान्त रहे कभी उद्विग्न या घबराहट से व्याकुल नहीं हुए।

वे दृढ़विश्वाससम्पन्न महापुरुष थे।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ )

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Sunday, 3 November 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 18

कोलकाता के विशिष्ट चिकित्सकगण महाराज की अद्भुत सहनशीलता को देखकर विस्मित रह जाते थे। असह्य शारीरिक कष्ट के बीच भी वे कहते, 'मुझे क्या चिन्ता है? मेरे ऊपर उनकी अपार कृपा है; बिना माँगे ही सब दिया है। और समय हो जाने पर, मेरे बिना कहे वे मुझे गोद में उठा लेंगे।' रोग- शय्या पर लेटे हुए भी वे भक्त-दर्शनार्थियों के प्रति करुणा दिखाने में ज़रा भी कृपणता नहीं करते थे। ऐसी अवस्था में भी उन्होंने दो-एक मधुर बातें कहकर या क्षण भर की स्नेह भरी दृष्टि से सैकड़ों तापित लोगों को शान्ति प्रदान की। यहाँ तक कि जब वे शारीरिक क्लान्ति या विभिन्न कार्यों में व्यस्तता के कारण आए हुए जिज्ञासुओं से बात नहीं कर पाते थे, तब भी वे उनकी हित-चिन्ता से विरत नहीं होते थे। उनसे बातें करने का अवसर न पाकर, उनके एक युवक शिष्य ने एक बार उनसे शिकायत करते हुए एक पत्र लिखा। इसके उत्तर में उन्होंने लिखा था, 'केवल बातें करना मैं बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं मानता। तुम लोग चाहे दूर रहो या निकट, अपने द्वारा दीक्षित प्रत्येक शिष्य के लिए मैं ठाकुर तथा माँ के चरणों में प्रार्थना करता हूँ और उनके लिए शुभ कामना करता हूँ। तुम अपने मन में कोई खेद या दुःख मत रखना।'

वे जिज्ञासुओं की विभिन्न जटिल समस्याओं का बड़े ही सहज-सरल भाव से समाधान कर देते। अपने जीवन में उन्हें विविध प्रकार के अनुभव हुए थे अतः किसी भी समस्या के समाधान में उनकी अपूर्व दक्षता दीख पड़ती थी। उनकी 'परमार्थ प्रसंग' पुस्तक इसका एक उत्कृष्ट प्रमाण है। उनका यह उपदेश-संकलन हिन्दी, अँग्रेज़ी, मराठी, गुजराती आदि अनेक भाषाओं में अनूदित होकर देश-विदेश के असंख्य जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन कर रहा है। 

जैसे खेल से थका हुआ एक बालक माँ की गोद में जाकर विश्राम करने को व्याकुल हो उठता है, स्वामी विरजानन्द भी उसी प्रकार चिर-विश्राम के लिए उत्कण्ठित हो रहे थे। श्रीमाँ सारदा देवी के आविर्भाव की शताब्दी निकट थी। मातृपूजा के इस समारोह के लिए पहला दान महाराजजी से ही संग्रह किया गया। दान में दिए गए रुपयों की रसीद को परम भक्ति के साथ अपने सिर से लगाते हुए उन्होंने अपने सेवक को आदेश दिया कि उसे उनके सिरहाने तकिये के नीचे रख दिया जाए, क्योंकि उसके माध्यम से उन्हें माँ का स्मरण होता रहेगा। कभी-कभी उनके सेवक उन्हें धीमे स्वर में कहते सुनते, 'हे प्रभो, हे माँ!' और कभी यह प्रार्थना करते हुए सुनते, 'माँ, मुझे अपने पास बुला लो, पास बुला लो।' 

स्वामी श्रद्धानन्द ने अपने 'अतीतेर स्मृति' (In English - The Story of an Epoch) नामक बँगला ग्रन्थ में महाराज के तपोपूत महाजीवन का एक अत्यन्त मनोहर चित्रण किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्रीरामकृष्ण के पदचिह्नों पर चलनेवाले लोग इस महान जीवन से संसार-पथ के लिए काफ़ी मूल्यवान पाथेय ग्रहण कर सकेंगे। " उनके सुदीर्घ जीवन में श्रीमाँ, स्वामीजी तथा श्रीरामकृष्ण के अन्य पार्षदों का सहयोग इतने घनिष्ठ भाव से प्राप्त हुआ था कि लगता मानो वे भी श्रीरामकृष्ण के ही शिष्यों में एक हैं। वस्तुतः वराहनगर मठ की जाज्वल्यमान अग्निशिखा ने जिन जीवनों को साक्षात् रूप से प्रदीप्त किया था, स्वामी विरजानन्द के महासमाधि के साथ उनमें से कोई भी बाकी नहीं बचा। इसीलिए उस बहुमानित अग्निशिखा की अन्तिम किरण की विदा का क्षण निश्चित रूप से सबके मन में एक गहरी वेदना तथा शून्यता का बोध जाग्रत कर गया है। "

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Saturday, 2 November 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 17

विवेकानन्द-विद्युत् विरजानन्दजी की धमनी में किस प्रकार सहज-स्वच्छन्द रूप से दौड़ती थी, यह उन्हें देखने या उनकी बाते सुनने से तो अनुभव होता ही था, उनके पत्र-व्यवहार में भी यह सहज ही प्रकट हो उठता था। उदाहरण के रूप में यहाँ उनके कुछ पत्रों के अंश उद्धृत किए जा रहे है, जिनकी हर पंक्ति से मानो विवेकानन्द ही झाँक रहे हैं। एक युवक को उन्होंने लिखा था - 

'वीर बनना चाहिए और संसार को तुच्छ समझना चाहिए। मै बड़ा दुर्बल हूँ, मैं कुछ नहीं कर सकता, आप ही सब कर दीजिए इन सब भावों का त्याग किए बिना कुछ भी नहीं होगा। उपदेश तो तुम्हें पर्याप्त दिए जा चुके है। यदि तुम उनका पालन न कर सको, तो कोई भी तुमसे कुछ करवा नहीं सकेगा। तुम्हें मैंने जो भी पत्र लिखे हैं, उन्हें बार-बार पढ़ना और उन्हीं के अनुसार चलने की चेष्टा करना। ठीक-ठीक धर्मलाभ करना बहुत कठिन है - सबको नहीं होता। भीगा और असार काठ हो, तो ठाकुर भी उसकी ओर दृष्टिपात् नहीं करना चाहते थे।' इस पत्रांश में स्नेह तथा करुणा के साथ तेज तथा शक्ति का कैसा अपूर्व समन्वय है!

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Friday, 1 November 2024

आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च : 16

१९४३ ई. में बंगाल में हुए भयानक अकाल के समय विरजानन्दजी द्वारा लिखित एक अन्य पत्र से पता चलता है कि किस प्रकार उनके महान हृदय में स्वामीजी के आदर्श प्रतिबिम्बित हुआ करते थे। पत्र में लिखा है- इस वर्ष भी मठ में दुर्गापूजा का आयोजन हो रहा है, यह जानकर प्रसत्रता हुई।...
 
"मुझे लगता है कि इस बार की पूजा में केवल नितान्त आवश्यक अनुष्ठानों को ही सम्पन्न करें। पूजा में यथासम्भव कम (करीब दो-तीन सौ रुपए) खर्च करके बाकी रुपए, मठ में जितने भी पीड़ित, भूखे, अनाथ, आतुर लोग आएँ, उन्हें खिलाने में ही व्यय करना अच्छा रहेगा। कोई भी निराश न लौटे। पर्याप्त मात्रा में खिचड़ी की व्यवस्था करनी होगी। शाक-सब्जी जो कुछ भी हो, सब उसी में डालना। खिचड़ी को माँ के सामने पात्रों में रखकर विराट् भोग लगाने के बाद उसे उदार भाव से उनकी संहार मूर्ति इस सचल श्मशान रूप सर्वहारा नारायणों को परोसना होगा। इस बार माँ इसी रूप में पूजा ग्रहण करेगी और हमारी पूजा सार्थक होगी। मठ के साधु और छोटे-बड़े सभी भक्त सभी इस खिचड़ी का ही प्रसाद पाएँगे। कुछ भी विशेष नहीं होगा। ठाकुर ने भी कहा था, "मैं हण्डी भर-भर के दाल-भात खाऊँगा।" यही तो उसका समय है। इन भूख से क्लांत दुर्दशाग्रस्त लोगों को यदि हम लोग तीन दिन भी भरपेट खिला सके, अन्न-वस्त्र दे सके, तो मेरा विश्वास है कि ठाकुर, माँ और स्वामीजी को इससे अधिक प्रिय कोई और कार्य नहीं लगेगा। दुर्दशाग्रस्त नारायणो की इस भीषण हृदय-विदारक स्थिति की सम्भवतः स्वामीजी भी कल्पना नहीं कर सके थे। अतएव मेरी इच्छा है कि पूजा के तीन दिन इस प्रकार पर्याप्त मात्रा में खिचड़ी बनाकर भूखे लोगों को भरपेट खिलाया जाए।' इस पत्र की हर पंक्ति में मानो विवेकानन्द के ही जीवप्रेम की प्रतिध्वनि विद्यमान है।

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26