Tuesday, 5 November 2024

तुम परमहंस हो जाओगे - 2

स्वामी सर्वगतानन्द (तब ब्रह्मचारी नारायण) के लिए ३ दिसम्बर सन् १९३४ का दिन, मुम्बई से कनखल की एक हजार मील यात्रा का प्रथम दिन था। कुछ सप्ताह पूर्व वे स्वामी अखण्डानन्दजी (स्वामी विवेकानन्द के गुरुधाई) से मिले थे जिन्होने उन्हें रामकृष्ण संघ में लेना स्वीकार किया था तथा जिन्होंने उन्हें बताया था कि यदि वे संन्यासी बनना चाहते हैं तो वे कनखल पैदल चलकर जायें। क्योंकि अपने परिव्राजक काल में उनके गुरु ने हिमालय क्षेत्र में प्रायः नंगे पैरों ही प्रव्रजन किया था, इसलिए नारायण ने अपने जूते निकाल फेंक हजार मील नंगे पाँव चलने का निश्चय किया। रास्ते की कठिनाइयाँ और अनुभव अन्य कहानी का विषय हैं। यह कहानी यात्रा की समाप्ति पर शुरु होती है।

कनखल सेवाश्रम में मेरा आगमन

मैं ७ फरवरी १९३५ के दिन हरिद्वार आया और रामकृष्ण मिशन का पता जानना चाहता था। मैंने बाजार में कुछ लोगों को पूछा परन्तु कोई भी समझ न पाया कि मैं किस बारे में पूछ रहा है। अन्त में मैंने गंगा-नहर की तरफ एक सुन्दर भवन देखा जिस पर लिखा था- 'मद्रासी धर्मशालार मैं उसके भीतर गया तथा एक स्वामीजी से रामकृष्ण मिशन के बारे में पूछा। उन्होंने कहा, 'ओऽऽऽ, तो तुम्हारा तात्पर्य बंगाली अस्पताल से है।' मैंने कहा, 'हाँ, अवश्य वहीं होगा।' उन्होंने पूछा, 'कहाँ से आये हो?' मैंने उन्हें बता दिया, तब उन्होंने कहा, 'वहाँ क्यों जाना चाहते हो?' वे चाहते थे कि मैं उन्हीं के दल में शामिल हो जाऊँ अतः उन्होंने मुझे निरुत्साहित किया। मैंने कहा, 'नहीं, मैंने रामकृष्ण मिशन में शामिल होने का निलय किया है। मैंने उन्हें अन्य बातें विस्तार से नहीं बतायी। तब उन्होंने मुझे वहाँ पहुँचने का रास्ता बताया कि पुल पार करके कनखल मार्ग पकड़ना होगा।

उनके निर्देशानुसार चलते हुए मैं ऐसी जगह पहुँचा जहाँ दायीं ओर के मुख्य मार्ग से एक और सड़क निकलती थी। मैंने पाँच बड़े द्वारों वाला एक विशाल परिसर देखा। मैंने प्रत्येक द्वार से प्रवेश करने का प्रयत्न किया परन्तु वे बन्द थे और लगता था कि उनका कभी भी प्रयोग नहीं किया गया था। परन्तु एक द्वार के पास एक और छोटा फाटक था जहाँ से लोगों के आने जाने का अनुमान लगता था। अतः मैं उस छोटे फाटक से अस्पताल के अहाते में दाखिल हुआ। मैं वहाँ किसी को न पा सका। आगे बढ़ने पर मुझे बाड़ दिखाई दी जिसमें से अन्दर जाने का कोई रास्ता नहीं था। इसलिये मैं इसे फाँद गया और तब मैंने पाया कि आगे और भी एक बाड़ है। जब मैंने आसपास देखा तो कुछ दूरी पर मुझे एक विशाल लॉन और एक सुन्दर भवन दिखा। वहाँ एक स्वामीजी खड़े थे तथा उनके साथ एक बड़ा कुत्ता था। मैंने वह बाड़ भी कूद कर पार की। मैं कुत्ते से बहुत ही डरा हुआ था क्योंकि वह मुझे आँखे फाड़कर देख रहा था। परन्तु मैं धीरे धीरे स्वामीजी की ओर बढ़ने लगा, वे भी मेरी ओर देख रहे थे। मैंने जाकर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने पूछा, 'क्या तुम नारायण हो? मैंने उत्तर दिया, "हाँ महाराज।" स्वामी कल्याणानन्दजी ने अत्यन्त हर्षपूर्वक कहा, 'ठीक है, बहुत देर पहले मुझे स्वामी अखण्डानन्दजी का पत्र मिला था जिस में लिखा था कि तुम आ रहे हो।' अब, जबकि हम एक दूसरे बात कर रहे थे, कुत्ता समझ गया कि हम एक दूसरे से परिचित है, अतः रह मेरे साथ बड़ी मित्रता करने लगा और पास आकर अपनी पूँछ हिलाने लगा।

(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ  - स्वामी सर्वगतानन्द)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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