'प्रसन्न रहो तथा अन्यों को भी प्रसन्न रखो'
कल्याण महाराज मितभाषी थे। वे शब्दों द्वारा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं देते थे – अपितु उनका जीवन ही एक महान् आदर्श था। वे जो कुछ जाते हो तो वहाँ फलों, फूलों, स्तोत्रों तथा मन्त्रों सहित जाते हो। जब तुम अस्पताल में जाते हो तो वहाँ भोजन-पथ्य, दवाइयों तथा बोड़े-से सहानुभूतिपूर्ण शब्दों सहित जाते हो। दोनों बिल्कुल एक समान हैं। तुम जो कुछ मन्दिर में करते हो और जो कुछ अस्पताल में करते हो वह एक दूसरे से भिन्त्र नहीं है।। यही स्वामी (विवेकानन्द) जी का आदर्श है। अतः, हमेशा ही ऐसी विचारशीलता का दृष्टिकोण रखो। अपना प्रत्येक व्यवहार अतिसावधानीपूर्वक निर्मल रखो। उनके प्रति स्नेही तथा करुणाशील बनो। वे सभी तुम्हारी सहायता चाहते हैं। जाओ!' इस प्रकार के छोटे छोटे उपदेश देकर वे हमें अस्पताल भेजा करते थे।
कल्याण महाराज मितभाषी थे। वे शब्दों द्वारा अधिक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं देते थे – अपितु उनका जीवन ही एक महान् आदर्श था। वे जो कुछ जाते हो तो वहाँ फलों, फूलों, स्तोत्रों तथा मन्त्रों सहित जाते हो। जब तुम अस्पताल में जाते हो तो वहाँ भोजन-पथ्य, दवाइयों तथा बोड़े-से सहानुभूतिपूर्ण शब्दों सहित जाते हो। दोनों बिल्कुल एक समान हैं। तुम जो कुछ मन्दिर में करते हो और जो कुछ अस्पताल में करते हो वह एक दूसरे से भिन्त्र नहीं है।। यही स्वामी (विवेकानन्द) जी का आदर्श है। अतः, हमेशा ही ऐसी विचारशीलता का दृष्टिकोण रखो। अपना प्रत्येक व्यवहार अतिसावधानीपूर्वक निर्मल रखो। उनके प्रति स्नेही तथा करुणाशील बनो। वे सभी तुम्हारी सहायता चाहते हैं। जाओ!' इस प्रकार के छोटे छोटे उपदेश देकर वे हमें अस्पताल भेजा करते थे।
एक दिन महाराज ने मुझे बताया, 'इसे "Sick-house" (रुग्ण- शाला) के बजाय "Hospital" (अस्पताल) क्यों कहा जाता है? – इसलिये कि हमें Hospitable (सत्कारशील) होना आवश्यक है। जब लोग आते हैं तो सत्कारशीलता मुख्य बात है। इसे भूलो मत। और "Patient" (रोगी)? Patient (रोगी) क्या है? वे सभी रोगग्रस्त लोग हैं। उनसे व्यवहार करते समय तुममें Patience (धीरता) अवश्य होनी चाहिये। वे "Patient" (रोगी) कहे जाते हैं क्योंकि वे तुम्हें यह सिखाते है कि Patient (धैर्यवान) कैसे बना जाए।'
(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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