मेरे प्रशिक्षण का प्रारम्भ
परन्तु हिसाब-किताब देखने से भी अधिकतर में साये की तरह हमेशा उनके साथ घूमता-फिरता था। वे जहाँ भी जाते, जो कुछ भी करते, मैं उनकी हर बात का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता। मुझे और कुछ करने के लिये नहीं कहा गया था। मेरा केवल इतना ही काम था कि मैं उनके साथ रहूँ। कुछ सप्ताह बाद मैंने उन्हें पुनः कहा कि मैं अस्पताल में काम करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा, 'जाकर उनलोगों से पूछ लो कि वे तुम्हारे से क्या करवाना चाहते हैं।' अस्पताल वालों ने मुझे रोगियों के कक्षों की सफाई करने को कहा। मैं ब्रश से पीकदानियों तथा हाजतियों (Bed pans) को साफ करता। झाडू देनेवाली एक स्त्री ने मुझे उनकी सफाई करने का ढंग बताया। मैंने उससे यह कार्य सीख लिया। ये घास के ब्रश हम ही बनाते थे और उन्हीं की सहायता से मैं सफाई किया करता। परन्तु जब भी महाराज मुझे बुलाते तब वे जहाँ भी जाते, मुझे उनके साथ चलना पड़ता था। जब कभी वे बगीचे में जाते तो मैं उनके साथ जाता। वे चाहते थे कि मुझे प्रत्येक बात का ज्ञान हो - जैसे कि; बगीचे में क्या-क्या है, रोगी कौन हैं इत्यादि। एक बार उन्होंने पूछा, 'क्या तुम आज बगीचे में गये थे? वह छोटा मैगनोलिया का पौधा कैसा है? उस पर कितने फूल आये हैं?' मैंने कहा, 'मैंने उसे कभी नहीं देखा।' उन्होंने कहा, 'जानते नहीं; वह बहुत ही विशेष पौधा है। तुम्हें देखना चाहिये कि उस पर कितनी कलियाँ आयी हैं।' वे ऐसे प्रश्न पूछा करते ताकि मैं प्रत्येक वस्तु को सूक्ष्म-निरीक्षण की दृष्टि से देखना सीखें। वे इसी प्रकार परख रखते थे। एक बार उन्होंने एक रोगी के बारे में पूछा, 'अमुक कैसा है?' और मैंने कहा, 'मैं नहीं जानता।' उन्होंने कहा, 'क्या तुम अस्पताल में घूम-फिर कर नहीं देखते कि क्या हो रहा है?' तब मैं पता करने को दौड़ा। इस प्रकार उनके आने से पहले ही मैंने अस्पताल में घूम कर इन बातों का पता लगाना सीखा। मैं गंभीर रोगियों के हालचाल के बारे में पूछताछ करता; फिर मैं इन बातों को लिख लेता तथा महाराज को बताता। मधुमेह की शिकायत के कारण महाराज अधिक चल-फिर नहीं सकते थे और उन्हें आराम की आवश्यकता होती थी। अतः कई बार वे स्वयं अस्पताल नहीं जा सकते थे। उन्होंने हर बात को विस्तारपूर्वक जानने का मेरा स्वभाव बना दिया। मुझे प्रत्येक जानकारी प्राप्त करके उन्हें देनी होती थी। इस प्रशिक्षण द्वारा मैं अस्पताल के काम, आश्रम के काम के साथ साथ यह भी सीख गया कि वे इसका व्यवस्थापन किस प्रकार करते हैं।
परन्तु हिसाब-किताब देखने से भी अधिकतर में साये की तरह हमेशा उनके साथ घूमता-फिरता था। वे जहाँ भी जाते, जो कुछ भी करते, मैं उनकी हर बात का सूक्ष्मता से निरीक्षण करता। मुझे और कुछ करने के लिये नहीं कहा गया था। मेरा केवल इतना ही काम था कि मैं उनके साथ रहूँ। कुछ सप्ताह बाद मैंने उन्हें पुनः कहा कि मैं अस्पताल में काम करना चाहता हूँ। उन्होंने कहा, 'जाकर उनलोगों से पूछ लो कि वे तुम्हारे से क्या करवाना चाहते हैं।' अस्पताल वालों ने मुझे रोगियों के कक्षों की सफाई करने को कहा। मैं ब्रश से पीकदानियों तथा हाजतियों (Bed pans) को साफ करता। झाडू देनेवाली एक स्त्री ने मुझे उनकी सफाई करने का ढंग बताया। मैंने उससे यह कार्य सीख लिया। ये घास के ब्रश हम ही बनाते थे और उन्हीं की सहायता से मैं सफाई किया करता। परन्तु जब भी महाराज मुझे बुलाते तब वे जहाँ भी जाते, मुझे उनके साथ चलना पड़ता था। जब कभी वे बगीचे में जाते तो मैं उनके साथ जाता। वे चाहते थे कि मुझे प्रत्येक बात का ज्ञान हो - जैसे कि; बगीचे में क्या-क्या है, रोगी कौन हैं इत्यादि। एक बार उन्होंने पूछा, 'क्या तुम आज बगीचे में गये थे? वह छोटा मैगनोलिया का पौधा कैसा है? उस पर कितने फूल आये हैं?' मैंने कहा, 'मैंने उसे कभी नहीं देखा।' उन्होंने कहा, 'जानते नहीं; वह बहुत ही विशेष पौधा है। तुम्हें देखना चाहिये कि उस पर कितनी कलियाँ आयी हैं।' वे ऐसे प्रश्न पूछा करते ताकि मैं प्रत्येक वस्तु को सूक्ष्म-निरीक्षण की दृष्टि से देखना सीखें। वे इसी प्रकार परख रखते थे। एक बार उन्होंने एक रोगी के बारे में पूछा, 'अमुक कैसा है?' और मैंने कहा, 'मैं नहीं जानता।' उन्होंने कहा, 'क्या तुम अस्पताल में घूम-फिर कर नहीं देखते कि क्या हो रहा है?' तब मैं पता करने को दौड़ा। इस प्रकार उनके आने से पहले ही मैंने अस्पताल में घूम कर इन बातों का पता लगाना सीखा। मैं गंभीर रोगियों के हालचाल के बारे में पूछताछ करता; फिर मैं इन बातों को लिख लेता तथा महाराज को बताता। मधुमेह की शिकायत के कारण महाराज अधिक चल-फिर नहीं सकते थे और उन्हें आराम की आवश्यकता होती थी। अतः कई बार वे स्वयं अस्पताल नहीं जा सकते थे। उन्होंने हर बात को विस्तारपूर्वक जानने का मेरा स्वभाव बना दिया। मुझे प्रत्येक जानकारी प्राप्त करके उन्हें देनी होती थी। इस प्रशिक्षण द्वारा मैं अस्पताल के काम, आश्रम के काम के साथ साथ यह भी सीख गया कि वे इसका व्यवस्थापन किस प्रकार करते हैं।
(स्वामी कल्याणानंद तथा कनखल सेवाश्रम की स्मृतियाँ - स्वामी सर्वगतानन्द)
कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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