१९४३ ई. में बंगाल में हुए भयानक अकाल के समय विरजानन्दजी द्वारा लिखित एक अन्य पत्र से पता चलता है कि किस प्रकार उनके महान हृदय में स्वामीजी के आदर्श प्रतिबिम्बित हुआ करते थे। पत्र में लिखा है- इस वर्ष भी मठ में दुर्गापूजा का आयोजन हो रहा है, यह जानकर प्रसत्रता हुई।...
"मुझे लगता है कि इस बार की पूजा में केवल नितान्त आवश्यक अनुष्ठानों को ही सम्पन्न करें। पूजा में यथासम्भव कम (करीब दो-तीन सौ रुपए) खर्च करके बाकी रुपए, मठ में जितने भी पीड़ित, भूखे, अनाथ, आतुर लोग आएँ, उन्हें खिलाने में ही व्यय करना अच्छा रहेगा। कोई भी निराश न लौटे। पर्याप्त मात्रा में खिचड़ी की व्यवस्था करनी होगी। शाक-सब्जी जो कुछ भी हो, सब उसी में डालना। खिचड़ी को माँ के सामने पात्रों में रखकर विराट् भोग लगाने के बाद उसे उदार भाव से उनकी संहार मूर्ति इस सचल श्मशान रूप सर्वहारा नारायणों को परोसना होगा। इस बार माँ इसी रूप में पूजा ग्रहण करेगी और हमारी पूजा सार्थक होगी। मठ के साधु और छोटे-बड़े सभी भक्त सभी इस खिचड़ी का ही प्रसाद पाएँगे। कुछ भी विशेष नहीं होगा। ठाकुर ने भी कहा था, "मैं हण्डी भर-भर के दाल-भात खाऊँगा।" यही तो उसका समय है। इन भूख से क्लांत दुर्दशाग्रस्त लोगों को यदि हम लोग तीन दिन भी भरपेट खिला सके, अन्न-वस्त्र दे सके, तो मेरा विश्वास है कि ठाकुर, माँ और स्वामीजी को इससे अधिक प्रिय कोई और कार्य नहीं लगेगा। दुर्दशाग्रस्त नारायणो की इस भीषण हृदय-विदारक स्थिति की सम्भवतः स्वामीजी भी कल्पना नहीं कर सके थे। अतएव मेरी इच्छा है कि पूजा के तीन दिन इस प्रकार पर्याप्त मात्रा में खिचड़ी बनाकर भूखे लोगों को भरपेट खिलाया जाए।' इस पत्र की हर पंक्ति में मानो विवेकानन्द के ही जीवप्रेम की प्रतिध्वनि विद्यमान है।
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"मुझे लगता है कि इस बार की पूजा में केवल नितान्त आवश्यक अनुष्ठानों को ही सम्पन्न करें। पूजा में यथासम्भव कम (करीब दो-तीन सौ रुपए) खर्च करके बाकी रुपए, मठ में जितने भी पीड़ित, भूखे, अनाथ, आतुर लोग आएँ, उन्हें खिलाने में ही व्यय करना अच्छा रहेगा। कोई भी निराश न लौटे। पर्याप्त मात्रा में खिचड़ी की व्यवस्था करनी होगी। शाक-सब्जी जो कुछ भी हो, सब उसी में डालना। खिचड़ी को माँ के सामने पात्रों में रखकर विराट् भोग लगाने के बाद उसे उदार भाव से उनकी संहार मूर्ति इस सचल श्मशान रूप सर्वहारा नारायणों को परोसना होगा। इस बार माँ इसी रूप में पूजा ग्रहण करेगी और हमारी पूजा सार्थक होगी। मठ के साधु और छोटे-बड़े सभी भक्त सभी इस खिचड़ी का ही प्रसाद पाएँगे। कुछ भी विशेष नहीं होगा। ठाकुर ने भी कहा था, "मैं हण्डी भर-भर के दाल-भात खाऊँगा।" यही तो उसका समय है। इन भूख से क्लांत दुर्दशाग्रस्त लोगों को यदि हम लोग तीन दिन भी भरपेट खिला सके, अन्न-वस्त्र दे सके, तो मेरा विश्वास है कि ठाकुर, माँ और स्वामीजी को इससे अधिक प्रिय कोई और कार्य नहीं लगेगा। दुर्दशाग्रस्त नारायणो की इस भीषण हृदय-विदारक स्थिति की सम्भवतः स्वामीजी भी कल्पना नहीं कर सके थे। अतएव मेरी इच्छा है कि पूजा के तीन दिन इस प्रकार पर्याप्त मात्रा में खिचड़ी बनाकर भूखे लोगों को भरपेट खिलाया जाए।' इस पत्र की हर पंक्ति में मानो विवेकानन्द के ही जीवप्रेम की प्रतिध्वनि विद्यमान है।
कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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