1. हमारे लोग सोचने लगे थे कि विदेशियों की वेषभूषा, रहन-सहन, भाषा, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्थाओं की नकल करने से प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। आज भी वही अनुकरण की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। यद्यपि अंग्रेज यहाँ से चले गये हैं, तथापि वेषभूषा, भाषा, राजनैतिक, सामाजिक व्यवस्थाओं तथा आर्थिक पुनर्रचना में हम किसी न किसी विदेशी प्रणाली की नकल करने में लगे हैं। कहा जाता है कि अपने देश में पुनरुज्जीवन की लहर आई है, उसके प्रभाव से हमारे समाज-जीवन में हम पहली बार आधुनिक और प्रगतिशील समाज के रूप में सामने आ रहे हैं। सामाजिक न्याय, राजनैतिक, औद्योगिक और आर्थिक क्रांति आदि बातें पहली बार अपने यहाँ आई हैं। लोगों का मानना है कि इन सबसे हम अपनी संस्कृति की पुनःस्थापना कर सकेंगे। यद्यपि हम जानते हैं कि हम यह जो सामाजिक पुनर्रचना कर रहे हैं, वह पाश्चात्य देशोंमें प्रचलित उस आकारहीन समाज-व्यवस्था का अंधानुकरण है, जिसने समाजजीवन के विभिन्न कार्यों के संचालन की दृष्टि से कोई निश्चित धारण नहीं किया है। पाश्चात्य समाजरचना, समाज की प्रगतीशिलता की चरम अवस्था है और वह सर्वाेत्तम है, यह भी अभी अनुभव से सिद्ध नहीं हुआ है।
2. खुली आँखों से दुनिया की ओर देखते हुए, भिन्न-भिन्न प्रगत देशों से उत्तम, उपयुक्त व अपने जीवन से साम्य पा सकनेवाली बातें लेकर, उन्हें पचाकर अपने जीवन में मिला लेना एवं उससे अपने वैशिष्ट्यपूर्ण जीवन को समृद्ध करना योग्य है। परंतु दूसरे देशों की ऐहिक प्रगति देखकर केवल अंधों के समान उनका अनुकरण करना घातक है। कोई भी राष्ट्र परानुकरण करके दुनिया में उत्कर्श, मान, प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकता। उलटे वह हास्यास्पद होगा। सिंह की खाल ओढे़ गधे-सी उसकी स्थिति होगी।
3. कई लोग पृथ्वी के भिन्न-भिन्न समाजों की जीवन प्रणालियों को अपने यहाँ लादने की चेष्टा करते हैं। एक दूसरे पर मढ़ने से काम नहीं चलेगा। यदि मनोरचना का विचार न करते हुए बलात् लादने का प्रयत्न हुआ, तो भ्रम ही उत्पन्न होता है। स्वभाव का सहज विकास न करके कोई वस्तु जबरदस्ती थोपने से भ्रष्टता उत्पन्न होती है। इसके अनेक उदाहरण आज के जीवन में तो मिलते ही ह, प्राचीन ग्रंथोमें भी तपोभ्रष्ट ऋषियों का उल्लेख है। राष्ट्र के बारे में भी यही बात सत्य है। राष्ट्र भी एक जीवमान व्यक्तिसदृश इकाई है। जैसे व्यक्ति की प्रकृति के विरुद्ध दूसरी भावना का आरोप करना हानिकारक होता है, वैसे ही राष्ट्रजीवन में उसकी विशेषता को भुलाकर बलपूर्वक दूसरे भाव भरना व्यभिचार है। अतः जो अपने राष्ट्रजीवन को दूसरे ढाँचे में ढालना चाहते हैं, वे समाजजीवन के साथ प्रामाणिकता का व्यवहार नहीं करते।
2. खुली आँखों से दुनिया की ओर देखते हुए, भिन्न-भिन्न प्रगत देशों से उत्तम, उपयुक्त व अपने जीवन से साम्य पा सकनेवाली बातें लेकर, उन्हें पचाकर अपने जीवन में मिला लेना एवं उससे अपने वैशिष्ट्यपूर्ण जीवन को समृद्ध करना योग्य है। परंतु दूसरे देशों की ऐहिक प्रगति देखकर केवल अंधों के समान उनका अनुकरण करना घातक है। कोई भी राष्ट्र परानुकरण करके दुनिया में उत्कर्श, मान, प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कर सकता। उलटे वह हास्यास्पद होगा। सिंह की खाल ओढे़ गधे-सी उसकी स्थिति होगी।
3. कई लोग पृथ्वी के भिन्न-भिन्न समाजों की जीवन प्रणालियों को अपने यहाँ लादने की चेष्टा करते हैं। एक दूसरे पर मढ़ने से काम नहीं चलेगा। यदि मनोरचना का विचार न करते हुए बलात् लादने का प्रयत्न हुआ, तो भ्रम ही उत्पन्न होता है। स्वभाव का सहज विकास न करके कोई वस्तु जबरदस्ती थोपने से भ्रष्टता उत्पन्न होती है। इसके अनेक उदाहरण आज के जीवन में तो मिलते ही ह, प्राचीन ग्रंथोमें भी तपोभ्रष्ट ऋषियों का उल्लेख है। राष्ट्र के बारे में भी यही बात सत्य है। राष्ट्र भी एक जीवमान व्यक्तिसदृश इकाई है। जैसे व्यक्ति की प्रकृति के विरुद्ध दूसरी भावना का आरोप करना हानिकारक होता है, वैसे ही राष्ट्रजीवन में उसकी विशेषता को भुलाकर बलपूर्वक दूसरे भाव भरना व्यभिचार है। अतः जो अपने राष्ट्रजीवन को दूसरे ढाँचे में ढालना चाहते हैं, वे समाजजीवन के साथ प्रामाणिकता का व्यवहार नहीं करते।
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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