1. हम हिंदुओं ने अनन्यसाधारण आत्मिक संपत्ति प्राप्त करना अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया है। वह मानवी जीवन का अनुपमेय संपत्तिकोष है। इसकी हम स्वतंत्र रीति से अपने अंदर वृद्धि कर सकते हैं। चिरस्थायी सद्गुण, परिपूर्ण ज्ञान और आत्मा की सर्वश्रेष्ठता ही वह संपत्ति है। यह सत्य और शाश्वत संपत्ति अपना जीवनाधार है। इसीलिये अन्य देशों की तुलना में श्रेष्ठता का अधिक अस्तित्व अपने देश में दिखाई देता है। अन्यत्र सर्वसामान्य जनता किसी वीर सेनापति अथवा पराक्रमी अधिपति की पूजा करती है। परन्तु अपने देश में सामान्य जनता ही क्या, बड़े-बड़े वीर और राजा भी अरण्यवासी, अकिंचन (जो अपने पास फटे कपड़े का एक लत्ता तक नहीं रखता), अर्धनग्न संन्यासी की चरणधूलि शिरोधार्य करते हैं।
2. हिंदू सिद्धांत के अनुसार कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठता के अंतिम आविश्कार के रूप में उत्पन्न नहीं होता। ऐसा कहना ठीक भी नहीं है। क्योंकि उसका अर्थ यही होगा कि अपने समाज की नए-नए श्रेष्ठ नररत्नों के प्रसव की शक्ति समाप्त हो गई है। अपने यहाँ के सभी जानकार लोगों ने कहा है कि अखंड रूप से महापुरुष हुए हैं, हो रहे हैं और आगे भी होगें।
3. हिंदू समाज में सबके लिये व्यवहार के एक नियम नहीं बनाये गये। नियमों के ये भेद प्रकृतिभिन्नता के ही कारण हैं। तात्पर्य यह कि हमने सबको एक ही लकड़ी से हाँकने का विधान नहीं किया। यदि जीवन में हम समान नियम लागू करें और उसके अनुसार सबको बराबर मात्रा में भोजन दें तो कुछ बदहजमी के कारण मर जाएंगे, जबकि कुछ भूख से। अतः अपने यहाँ क्रमानुसार विकास का विचार है। हमने मनुष्य समूहों के गुण वैशिष्ट्य के अनुसार व्यवहार का निर्देश किया है। यह उचित भी है। सारी अवस्थाओं को देखते हुए यदि मानव के पोशण के लिये उसके वैशिष्ट्य को बनाये रखकर उसका राष्ट्र के रूप में विकसित होना आवष्यक है, तो मानवता के विकास तथा कल्याण के लिये अपने राष्ट्र को उसकी संपूर्ण विशेषताओं तथा विविधताओं के साथ विकसित करना भी परमावशयक है।
2. हिंदू सिद्धांत के अनुसार कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठता के अंतिम आविश्कार के रूप में उत्पन्न नहीं होता। ऐसा कहना ठीक भी नहीं है। क्योंकि उसका अर्थ यही होगा कि अपने समाज की नए-नए श्रेष्ठ नररत्नों के प्रसव की शक्ति समाप्त हो गई है। अपने यहाँ के सभी जानकार लोगों ने कहा है कि अखंड रूप से महापुरुष हुए हैं, हो रहे हैं और आगे भी होगें।
3. हिंदू समाज में सबके लिये व्यवहार के एक नियम नहीं बनाये गये। नियमों के ये भेद प्रकृतिभिन्नता के ही कारण हैं। तात्पर्य यह कि हमने सबको एक ही लकड़ी से हाँकने का विधान नहीं किया। यदि जीवन में हम समान नियम लागू करें और उसके अनुसार सबको बराबर मात्रा में भोजन दें तो कुछ बदहजमी के कारण मर जाएंगे, जबकि कुछ भूख से। अतः अपने यहाँ क्रमानुसार विकास का विचार है। हमने मनुष्य समूहों के गुण वैशिष्ट्य के अनुसार व्यवहार का निर्देश किया है। यह उचित भी है। सारी अवस्थाओं को देखते हुए यदि मानव के पोशण के लिये उसके वैशिष्ट्य को बनाये रखकर उसका राष्ट्र के रूप में विकसित होना आवष्यक है, तो मानवता के विकास तथा कल्याण के लिये अपने राष्ट्र को उसकी संपूर्ण विशेषताओं तथा विविधताओं के साथ विकसित करना भी परमावशयक है।
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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