ॐ
मुक्ति का अर्थ है, सम्पूर्ण स्वाधीनता-शुभ और अशुभ, दोनों प्रकार के बन्धनों से छुटकारा पा जाना। इसे समझना जरा कठिन है। लोहे की जंजीर भी एक जंजीर है, और सोने की जंजीर भी एक जंजीर ही है। यदि हमारी अँगुली में एक काँटा चुभ जाये, तो उसे निकालने के लिए हम दूसरा काँटा काम में लाते हैं, परन्तु जब वह निकल जाता है, तो हम दोनों को ही फेंक देते हैं।
हमें फिर दूसरे काँटे को रखने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि दोनों आखिर काँटे ही तो हैं। इसी प्रकार कुसंस्कारों का नाश शुभ संस्कार द्वारा करना चाहिए और मन के अशुभ विचारों को शुभ संस्कारों द्वारा दूर करते रहना चाहिए, जब तक कि समस्त अशुभ विचार नष्ट न हो जायेँ अथवा पराजित न हो जायेँ या वशीभूत होकर मन में कहीं एक कोने में न पडे रह जायेँ। परन्तु उसके उपरान्त शुभ संस्कारों पर भी विजय प्राप्त करना आवश्यक है। तभी जो 'आसक्त' था, वह 'अनासक्त' हो जाता है।
कर्म करो, अवश्य करो, पर उस कर्म अथवा विचार को अपने मन के ऊपर कोई गहरा प्रभाव न डालने दो। लहरें आयें और जायें, मांसपेशियों और मस्तिष्क से बडे-बडे कार्य होते रहें, पर वे आत्मा पर किसी प्रकार का गहरा प्रभाव न डालने पायें।
(III, ३१)
स्वामीजी ने 'स्वतंत्रता के विचार ' का प्रयोग, पश्चिमी लोगों को मुक्ति अथवा स्तंत्रता के महान् भारतीय आदर्श को समझाने हेतु किया था। उनके लिए यह ज्ञान पूर्णतया नया था कि मुक्ति प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को बुरे और अच्छे दोनों से मुक्त होना पडता है। इसी प्रकार अनासक्त भाव से कर्म करना उनके लिए एक नया अनुभव था। इस प्रकार के अपूर्व विचार, जिनके बारे में पश्चिम ने न सुना था न अनुभव किया था। उन्हें आसानी से स्वामीजी द्वारा अपने व्यक्तित्व के बल पर प्राप्त अपने सत्य के साथ प्रयोगों और उनकी अभिव्यक्तियों के द्वारा बताये जा सकते थे।
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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