ॐ
वेदान्त के इन सब महान तत्वों का प्रचार आवश्यक है, ये केवल अरण्य में अथवा गिरिगुहाओं में आबद्ध नहीं रहेंगे; वकीलों और न्यायाधीशों में, प्रार्थना-मन्दिरों में, दरिद्रों की कुटियों में, मछुओं के घरों में, छात्रों के अध्ययन-स्थानों में - सर्वत्र ही इन तत्वों की चर्चा होगी और ये काम में लाये जायेंगे। हर एक व्यक्ति, हर एक सन्तान चाहे जो काम करे, चाहे जिस अवस्था में हो - उनकी पुकार सबके लिए है। भय का अब कोई कारण नहीं है।
मछुआ यदि अपने को आत्मा समझकर चिन्तन करे, तो वह एक उत्तम मछुआ होगा। विद्यार्थी यदि अपने को आत्मा विचारे, तो वह एक श्रेष्ठ विद्यार्थी होगा। वकील यदि अपने को आत्मा समझे, तो वह एक अच्छा वकील होगा। औरों के विषय में भी यही समझो। इसका फल यह होगा कि जातिविभाग अनन्त काल तक रह जायेगा; क्योंकि विभिन्न श्रेणियों में विभक्त होना ही समाज का स्वभाव है। पर रहेगा क्या नहीं? विशेष अधिकारों का अस्तित्व न रह जायेगा।
जाति-विभाग प्राकृतिक नियम है। सामाजिक जीवन में एक विशेष काम मैं कर सकता हूँ, तो दूसरा काम तुम कर सकते हो। तुम एक देश का शासन कर सकते हो, तो मैं एक पुराने जूते की मरम्मत कर सकता हूँ, किन्तु इस कारण तुम मुझसे बडे नहीं हो सकते। क्या तुम मेरे जूते की मरम्मत कर सकते हो? मैं क्या देश का शासन कर सकता हूँ? यह कार्यविभाग स्वभाविक है।
मैं जूते की सिलाई करने में चतुर हूँ, तुम वेदपाठ में निपुण हो। यह कोई कारण नहीं कि तुम इस विशेषता के लिए मेरे सिर पर पाँव रखो। तुम यदि हत्या भी करो तो तुम्हारी प्रशंसा और मुझे एक सेब चुराने पर ही फाँसी पर लटकना हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसको समाप्त करना ही होगा। जाति-विभाग अच्छा है। जीवन समस्या के समाधान के लिए यही एकमात्र स्वभाविक उपाय है।
(V, १४०)
आधुनिक विश्व में समाजवाद के विस्तार से ही पूर्व उसके आधारभूत सूत्र स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्मित किये जा चुके थे। आाध्यात्मिकता में दृढता से जड़ जमाने वाले स्वामीजी ने आत्मा को उद्वेलित करने के साथ-साथ सान्त्वना प्रदान करने वाली भाषा में समानता, बन्धुत्व और स्वतन्त्रता के महत्व पर अधिक बल दिया। उनके लिए मानव विकास के लिए स्वतन्त्रता सर्वप्रथम पूर्वाकांक्षित है और वे किसी भी प्रकार की गुलामी को सहन नहीं करते थे। आज के समाजवाद के अग्रणी नेताओं को गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि उन्होंने कहाँ त्रुटि की है।
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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