Wednesday 23 July 2014

भगवद्गीता में समन्वय

            गीता इन सत्यों के सदृश है, जो सुन्दर ढंग से यथास्थान व्यवस्थित है-वह एक सुन्दर पुष्पमाला के या सर्वोत्तम चुने हुए फूलों के गुलदस्ते के समान है.....

 

            गीता की मौलिकता किस बात में है, जिससे पूर्ववर्ती सभी शास्त्रों से वह विशिष्ट मानी जा सकती है? यद्यपि उसके प्रवर्तन के पूर्व योग, ज्ञान, भक्ति आदि सभी के दृढ अनुयायी थे। अपने चुने हुए मार्गों की सर्वोत्कृष्टता का प्रत्येक दावा करता था। इन विभिन्न मार्गों में समन्वय स्थापित करने का किसी ने कभी प्रयत्न नहीं किया। गीता के रचीयता ने ही सर्वप्रथम उनमें समन्वय का प्रयास किया। तत्कालीन प्रचलित सभी धर्म-सम्प्रदायों के सर्वोत्तम तत्वों को उन्होंने लिया और गीता में सूत्रबद्ध कर दिया।

           

            सच्चे निष्काम कर्मी (बिना कामना के काम करने वाले) को तो पशु बनना है, जड, ह्रदयहीन। वह तामसिक नहीं, बल्कि विशुद्ध सात्विक होता है। उसका ह्रदय प्रेम और सहानुभूति ने इतना ओतप्रोत है कि वह अपने प्रेम से सारे विश्व को लपेट सकते हैं। किन्तु संसार साधारणतः उसके सर्वग्राही प्रेम तथा सहानुभूति को पूरी तरह समझ नहीं पाता।

           

            धर्म के विभिन्न मार्गों का समन्वय और निःस्पृह या निष्काम कर्म-ये गीता की दो प्रमुख विशेषताएँ हैं।

(VII, ३१७-३१८)

 

जिस समन्वय का सूत्रपात श्री कृष्ण ने किया था उसे श्री रामकृष्ण द्वारा सम्पूर्ण किया गया था। उन्होंने विभिन्न अाधुनिक धार्मिक आदर्शों का समावेश कर उसे आधुनिक बनाया। विश्व ने अभी तक उच्चतम स्थिति को पूर्ण मान्यता प्रदान नहीं की है जो निष्काम-कर्म के अभ्यास द्वारा मानव-जीवन की वृद्धि करे। सम्भवतया, इसी ने स्वामीजी को प्रेरित किया कि वे बार-बार इसकी सामर्थ्यता को स्पष्ट करें।


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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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