Tuesday, 15 July 2014

वेदान्त की शिक्षाएँ

    वेदान्त पाप और पापी की स्थापना नहीं करता। वह (ईश्वर) एक ऐसी सत्ता है, जिससे हम कभी अातंकित नहीं होंगे; क्योंकि वह हमारी अात्मा है। उसमें भीति जगाने वाले ईश्वर का अातंक नहीं। केवल एक ही सत्ता है, जिससे हमें डर नहीं है, वह ईश्वर है। 


    तो क्या ईश्वर से डरने वाला प्राणी ही यथार्थ में सबसे अन्धविश्वासी नहीं है? निज छाया से भले ही कोई भयभीत हो उठे, किन्तु वह भी निज से संत्रस्त नहीं है। ईश्वर मानव की ही अात्मा है। वही एक ऐसी सत्ता है, जिससे तुम कदापि भयभीत नहीं हो सकते। ईश्वर का भय व्यक्ति के अन्तराल में घर कर जाय, वह उससे थर्रा उठे, ये सब बातें अनर्गल नहीं तो और क्या हैं?

 

    कोई धर्मग्रंथ नहीं, कोई व्यक्ति (अवतार) नहीं, कोई सगुण ईश्वर नहीं। इन सभी को जाना होगा। फिर इन्द्रियों को भी जाना पडेगा। हम इन्द्रियों के दास नहीं रह सकते। अभी हम नदी में ठण्ड से ठिठुरकर मरनेवालों की भाँति, अाबद्ध हैं।

 

    हम इन्द्रिय-सुख की सस्ती वस्तु के शिकार हैं, भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों हो। हमने यह भुला दिया है कि जीवन में और अधिक महान् वस्तुएँ हैं।

 

    वेदान्त की शिक्षा क्या है? प्रथमत:, यह शिक्षा देता है, कि सत्य-दर्शन के लिए तुम्हें अपने से भी बाहर जाने की जरुरत नहीं। सभी अतीत और सभी अनागत इसी वर्तमान में निहित हैं। 


    कभी किसी ने अतीत को नहीं देखा। क्या तुममें से किसी ने अतीत को देखा है? जब तुम यह सोचते हो कि तुम अतीत को जानते हो, तो तुम केवल वर्तमान में ही अतीत की कल्पना करते हो। भविष्य को देखने के लिए तुम्हें इसे वर्तमान में उतार लाना पडेगा, जो वर्तमान यथार्थ सत्य है शेष सब कल्पना है। वर्तमान ही सब कुछ है। केवल वही 'एक' है एकमेवाद्वितीयम्। जो कुछ है, सब इसी में है। अनन्त काल एक क्षण दूसरे प्रत्येक क्षण की ही  भाँति अपने में पूर्ण और सबको समाहित कर लेनेवाला है। जो कुछ है, था और होगा, सब इसी वर्तमान में है। इससे परे किसी कल्पना में कोई प्रवृत हो तो वह विफल मनोरथ होगा।

                                                                                     (IX, ८१-८२)

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कथा : विवेकानन्द केन्द्र { Katha : Vivekananda Kendra }
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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