Thursday, 10 July 2014

विचार, शब्द और कर्म में एकत्व


    ... सिद्धांत बिल्कुल ठीक होने पर भी उसे कार्यरूप में परिणत करना एक समस्या हो जाती है। यदि उसे कार्य में परिणत नहीं किया जा सकता, तो बौद्धिक व्यायाम के अतिरिक्त उसका कोई मूल्य नहीं। अतएव वेदान्त यदि धर्म के स्थान पर आरूढ होना चाहता है, तो उसे सम्पूर्ण रूप से व्यावहारिक होना चाहिए। हमें अपने जीवन की सभी अवस्थाओं में उसे कार्य रूप में परिणत कर सकना चाहिए। केवल यही नहीं, अपितु आध्यात्मिक और व्यावहारिक जीवन के बीच जो एक काल्पनिक भेद है, उसे भी मिट जाना चाहिए; क्योंकि वेदान्त एक अखण्ड वस्तु के सम्बंध में उपदेश देता है - वेदान्त कहता है कि एक ही प्राण सर्वत्र विद्यमान है। धर्म के आदर्शों को सम्पूर्ण जीवन को आविष्ट करना, हमारे प्रत्येक विचार के भीतर प्रवेश करना और कर्म को अधिकाधिक प्रभावित करना चाहिए।......

    इन सब बातों से यही स्पष्ट होता है कि यह दर्शन व्यावहारिक है। परवर्ती काल की भगवद्गीता को तो तुम लोगों में से बहुतों ने पढा होगा। यह वेदान्त दर्शन का सर्वोत्तम भाष्यस्वरूप है। कितने आश्चर्य की बात है कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्राम-स्थल, जहाँ श्री कृष्ण ने अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दिया है और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर जो मत उज्जवल रूप से प्रकाशित है, वह है तीव्र कर्मण्यता, किन्तु उसीके बीच अनन्त शान्तभाव। इसी तत्व को कर्म-रहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है।

    हम सामान्यतया अकर्म का अर्थ करते हैं निश्चेष्टता, पर यह हमारा आदर्श नहीं हो सकता। यदि यही होता तो हमारे चारों ओर की दीवालें भी परमज्ञानी होतीं, वे भी तो निश्चेष्ट हैं। मिट्टी के ढेले और पेडों के तने भी जगत् के महातपस्वी गिने जाते, क्योंकि वे भी तो निश्चेष्ट हैं। और यह भी नहीं कि किसी भी तरह कामनायुक्त होकर किये जाने वाले कार्य कर्म कहलाये जा सकते। वेदान्त का आदर्श जो प्रकृत कर्म है, वह अनन्त शान्ति के साथ संयुक्त है। किसी भी प्रकार की परिस्थिति में वह स्थिरता कभी नष्ट नहीं होती-चित्त का वह साम्यभाव कभी भंग नहीं होता।                            
(VIII, ३-४)

    जैसा कि स्वामीजी कहते हैं वेदान्त को केवल व्यावहारिक ही नहीं अपितु काव्यात्मक भी होना चाहिए। कर्मों को आध्यात्मिक जागरूकता के फलस्वरूप प्राप्त आन्तरिक शान्त स्थिति के साथ जोड देना चाहिए। तभी वे मनुष्य और उसके चारों ओर के संसार को ऊँचा उठा सकते हैं और उसे प्रबुद्ध बना सकते हैं। पुराणों में ऐसी कहानियाँ है कि महान राजाओं ने गहन विचारमय जीवन व्यतीत किए और अपनी प्रजा को नेकनामी के मार्ग पर चलने के लिए मार्ग-दर्शन किया। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण राजा जनक की, ऐसे ही एक राजर्षि के उदाहरण के रूप में प्रशंसा करते हैं। विश्च ने पहले कुरुक्षेत्र की लडाई में श्रीकृष्ण की भगवद्गीता द्वारा वेदान्त की व्यावहारिकता के सम्बंध में सुना। परन्तु उसने उसकी पूर्णता स्वामीजी के व्यावहारिक वेदान्त में देखी।

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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