ॐ
इसीलिए वेदान्त का प्रतिपाद्य है विश्व का एकत्व, विश्वबन्धुत्व नहीं। मैं भी वैसा हूँ, जैसा एक मनुष्य है, एक जानवर है - बुरा, भला या और कुछ भी। सब परिस्थितियों में यह एक ही देह, एक ही मन और एक ही आत्मा है। आत्मा का अन्त नहीं। कहीं कोई विनाश नहीं, देह का भी अन्त नहीं| मन भी मरता नहीं है। देह का अन्त हो कैसे? यह एक पत्ती झड जाये तो पेड का अन्त हो जायेगा? यह विराट विश्व ही मेरी देह है। देखो, कैसी इसकी अविकल परम्परा है। सारे मन मेरे मन हैं। सबके पैरों से मैं ही चलता हूँ। सबके मुँह से मैं ही बोलता हूँ। सबके शरीर में मेरा निवास है। (IX, ८३)
उपर्युक्त शब्द स्वामी जी के व्याख्यान 'क्या वेदान्त भावी युग का धर्म होगा?' से उद्धृत किये गये हैं, जो उन्होंने १८ मार्च, १९९० को सैन फ्रांसिस्को में दिया था।
जो व्यक्ति विश्व को अपना शरीर मानने की घोषणा करता है उसके लिए भय का प्रश्न कहाँ है। प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रदत्त अन्तर्दृष्टि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' आज भी हजारों, हजारों गुरूओं की कविताओं और उनके आलेखों के माध्यम से हमारे देश में गूँज रही है।
दुर्भाग्यवश, हम इस विस्तृत विचार से समरूपता स्थापित करने में स्वयं को सजीव प्राणियों में एक को जानने, सभी मानों में देखने में स्वयं की सामर्थ्य को खो रहें है। दुर्भाग्य से, हमारी शिक्षा, स्वयं को उच्चतर बनाने और संपूर्ण विश्व के साथ एकाकार हो जाने, का प्रशिक्षण नहीं देती।
सामान्यतया यह माना जाता है कि मृत्यु के पश्चात् हमारा ईश्वर से मिलन होगा। याद रखो, यदि तुम उससे यहाँ नहीं मिल सके तो वहाँ भी नहीं मिल सकोगे। हमें अनन्त जीवन स्वर्ग में नहीं, परन्तु जब हम अपने तुच्छ शूकर शरीर को त्याग देंगे, प्रदान किया जायेगा।
वेदान्त यह नहीं कहता 'इसे त्याग दीजिए' वह कहता है इसे अत्युत्तम बनाइये। सम्पूर्ण विश्व को अपने शरीर की तरह अनुभव करना सीखिए। यही अमृतत्व है।
श्री रामकृष्ण, अपने गले में कैंसर की गाँठ हो जाने के कारण, भोजन नहीं कर सकते थे| जब उनके शिष्यों ने इसके लिए आग्रह किया तो उन्होंने कहा कि माँ ने उनके साम्मुख यह रहस्योद्घाटन किया है कि वे उनके (शिष्यों के) के मुँह से ही खा रहे थे। अतः उनके लिए अपने मुँह से भोजन ग्रहण करने की कोई आवश्यकत नहीं थी।
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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