Monday 6 May 2013

स्वामी विवेकानन्द: श्री अरविन्द की दृष्टि में

वीरेश्वराय विद्महे विवेकानन्दाय धीमहि । तन्नो वीर: प्रचोदयात् ।

 स्वामी की प्रथम पाश्चात्य यात्रा एवं प्रचार-कार्य की समाप्ति और इंग्लैण्ड से भारत की उनके प्रस्थान के अवसर पर एक वृहत् विदाई-सभा का आयोजन हुआ था। इस सभा में उनके कई अनुरागी भावाभिभूत होकर मौन रह गये, नके नेत्र छलछला आये। यह दृश्य देखकर स्वामी जी एक आत्म विस्मृत ऋषि के समान सहसा बोल उठे थे, ‘‘यदि आवश्यक हुआ तो मैं अपने इस शरीर को एक जीर्ण वस्त्र की भाँति त्याग दूँगा, पर मैं अपने कार्य को विराम न दँगा। मैं सर्वत्र सभी को तब तक प्रेरणा देता रहूँगा, जब तक कि सम्पूर्ण जगत् ईश्वर के साथ अपने एकत्व की अनुभूति नहीं कर लेता।’’
 
  1902 ई. में अपने देहत्याग के बाद से अब तक उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से असंख्य लोगों को प्रेरणा एवं सहायता दी है। अपने विरोभाव के करीब छः वर्ष बाद स्वामी जी ने कारागार में उपस्थिति होकर अपनी ‘अशरीरी वाणी से श्री अरविन्द को आध्यात्मिक जीवन के बारे में कुछ विशेष महत्वपूर्ण निर्देश प्रदान किए थे। स्मरणीय है कि श्री अरविन्द ने 4 मई 1908 ई. से प्रायः एक वर्ष का समय एक विचाराधीन बन्दी के रूप में बिताया था। इस काल की अपनी जीवन-घटनाओं का विवरण देते हुए उन्होंने अपने एक पत्र में लिखा है - ‘‘यह सत्य है कि जेल में अपने एकान्त-ध्यान के समय एक पखवाड़े तक प्रतिदिन मैं विवेकानन्द की वाणी सुनता रहा और साथ ही मुझे उनकी उपस्थिति का भी अनुभव होता रहा। ... वह वाणी आध्यात्मिक अनुभव के एक विशिष्टि तथा सीमित परन्तु अति महत्वपूर्ण विषय पर बोली और उस विषय पर अपना कथन समाप्त होते ही बन्द हो गयी।’’
 
  एक अन्य अवसर पर इसी घटना का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘मैंने विवेकानन्द की उपस्थिति का बड़ा प्रस्तुत अनुभव किया था, जब मैं जेल में हठयोग का अभ्यास कर रहा था। मैं हमेशा अनुभव करता था कि वे मेरे पीछे खड़े होकर मुझे देख रहे हैं। यह विवेकानन्द की आत्मा थी जिसने मुझे उच्चतर चेतना की कुंजी बतायी। इससे मुझे स्पष्ट हुआ कि सत्-चेतना किस प्रकार प्रत्येक वस्तु में क्रियाशील है। किस तरह अतिमानस की उपलब्धि के लिए अभ्यास किया जाता है, यह समझाया और संकेत द्वारा बतलाया। वे अलीपुर जेल में लगातार पन्द्रह दिनों तक आते रहे। और जब तक मैंने यह पूरा समझ नहीं लिया कि उच्चतर चेतना की सक्रियता कैसी होती है और कैसे वह अतिमानस की ओर ले जाती है, वे लगातार बताते रहे। उन्होंने जब तक मुझे नहीं छोड़ा, जब तक वह बात मेरे मन में अच्छी तरह पैठ नहीं गयी।’’
 
  इस विषय में उनकी कुछ और भी उक्तियाँ उल्लेखनीय हैं, यथा- ‘‘विवेकानन्द ने अलीपुर जेल में मुझे उस ज्ञान के मूल तत्व दिये जो हमारी साधना के आधार हैं।’’ या फिर - ‘‘विवेकानन्द की आत्मा ने ही मुझे सर्वप्रथम अतिमानस की दिशा में संकेत दिया था। ... परवर्ती काल में इस घटना का मेरे मन पर विशेष प्रभाव पड़ा था।’’
 
  श्री अरविन्द ने अनेकों बार स्वामी विवेकानन्द के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धान्जलि अर्पित की है और स्वाभाविक रूप से ही उसमें आराध्य गुरुदेव का भी उल्लेख आ गया है। वे लिखते हैं - ‘‘रामकृष्ण क्या थे? - माधवी आधार में प्रकट भगवान, ...और विवेकानन्द? - महादेव के नयन से निःसृत एक दीप्त कटाक्ष।’’
 
 ‘‘विवेकानन्द जब पहली बार श्री रामकृष्ण के पास आये थे, तो उन्हें देखते ही वे समझ गये कि समस्त भारत मेरे समीप आया है, समस्त भारत मेरे चरणों में सिर झुका रहा है, समस्त भारत मुझे अपना सर्वस्व समर्पित करने आया है।  भारत के आदर्श का बीज विवेकानन्द के भीतर निहित था। ठाकुर रामकृष्ण ने उसी को जल से सींचकर विकसित किया था। इसी कारण भारत के भावी प्रतिनिधि को उन्होंने अतीव यत्नपूर्वक गढ़ा था। उन्हें (विवेकानन्द) देखते ही वे समझ गये थे कि इन्हीं के द्वारा भारतवर्ष तथा सम्पूर्ण पृथ्वी का कल्याण सम्पन्न होगा। उन्होंने चित्र की भाँति स्पष्ट रूप से देखा था कि स्वामी जी उनके सन्देश का सम्पूर्ण पृथ्वी पर प्रचार कर रहे हैं विवेकानन्द ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के संगठक हैं। वे ही इसके प्रधान नायक हैं। इसीलिए कल उनका जो आदर्श था, आज उसी को अपनाकर भारतवासी जीवन-पथ पर अग्रसर हो रहे हैं।’’ 

 ‘कर्म योगिन्’ पत्रिका में उन्होंने लिखा था - गुरु द्वारा निर्दिष्ट होकर, एक वीर पुरुष की भाँति, पूरे जगत्को अपने दोनों हाथों में लेकर बदल डालने के सुनिश्चित उद्देश्य के साथ विवेकानन्द का उदय विश्व के समक्ष पहला संकेत था कि भारत न केवल आत्मरक्षा के लिए अपितु विजय करने के लिए जगा है।’’
 
  अपनी एक अन्य बँगला रचना में श्री अरविन्द लिखते हैं - ‘‘हमारा विश्वास है कि जो कुछ उन्होंने (श्रीराकृष्ण ने) मुख से नहीं कहा, उसे वे कार्य-रूप में परिणत कर गये हैं। वे भावी भारत को, भावी भारत के प्रतिनिधि को अपने समक्ष बैठाकर गढ़ गये हैं और वे हैं स्वामी विवेकानन्द। बहुतेरे लोगों का मत है कि स्वामी विवेकानन्द की स्वदेशप्रीति उनकी अपनी ही देन है। परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है अपना स्वदेशप्रेम उन्हें अपने परमपूज्य गुरुदेव से प्राप्त हुआ है। उन्होंने भी इसे अपना कहकर कोई दावा नहीं किया है। लोकगुरु उन्हें जिस पद्धति से गढ़ गये थे, वही भावी भारत के गठन का उत्कृष्ठ पथ है। उनके बारे में कोई नियम आदि का विचार न था - उन्होंने उनको पूर्णतः एक वीर साधक के रूप में गढ़ा था। जन्मजात वीर थे और यही उनका स्वभाविक भाव था। श्रीरामकृष्ण उनसे कहा करते थे - ‘तू तो वीर है रे! वे जानते थे कि जिस शक्ति का आज वे विवेकानन्द के भीतर संचार कर रहे हैं, उसके विकसित होने पर राष्ट्र उसकी रविरश्मिमाला से आवृत हो उठेगा। हमारे नवयुवकों को भी इसी भाव की साधना करनी होगी। उन्हें (अपने स्वार्थ के प्रति) बेपरवाह होकर देश का कार्य करना होगा और निरन्तर यह भगवद्वाणी स्मरण रखनी होगी - ‘तू तो वीर है रे!’’
  
 स्वामीजी के अलौकिक ‘अहं’ -भाव के प्रसंग में श्री अरविन्द कहते हैं - ‘‘मद्रासी पण्डित के प्रति विवेकानन्द की उस प्रसिद्ध उक्ति को ही लो। उनकी किसी एक बात पर पण्डित ने संशय व्यक्त करते हुए कहा था, ‘परन्तु शंकराचार्य तो ऐसा नहीं करते!’ इस पर विवेकानन्द का उत्तर था, ‘नहीं, पर मैं विवेकानन्द ऐसा करता हूँ।’ पण्डितजी तो यह सुनकर अवाक ही रह गये थे। ‘मैं विवेकानन्द’ - उनकी यह उक्ति सामान्य लोगों को हिमालय सदृश ‘अहं’-भाव की बोधक प्रतीत होगी। परन्तु विवेकानन्द के आध्यात्मिक ज्ञान में कुछ भी अतिशयोक्ति या मिथ्यावाद नहीं था। और यह उनका अहंभाव नहीं है, यह है एक अति महत् का बोध, जिसके लिए उनका जीवन था, जिसके प्रतिनिधि के रूप में वे संग्राम कर रहे थे - और उसे यदि कोई तुच्छ कहे, यह उन्हें सहन नहीं होता था।’’
 
 उनके सन्देश के बारे में श्री अरविन्द कहते हैं - उनका एक-एक कार्य, उनकी वाणी या लेखनी से प्रस्फुटित एक-एक शब्द, भारतीय राष्ट्रीयता की कल्पना से लिपटे हुए भ्रमों, मिथ्या धारणाओं, मरीचिकाओं, अन्धानुकरणों तथा निराशाओं के लिए अग्निबाण था। ...राष्ट्रीयता को युगधर्म के रूप में स्वीकार करना और राष्ट्रभक्ति को जगाने में जीवन का क्षण-क्षण लगाना ही उनमनुष्यों के बीच इस साक्षात् सिंह’ का सन्देश था।’’

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