Friday, 10 May 2013

श्रीरामकृष्ण के प्रतिनिधि

वीरेश्वराय विद्महे विवेकानन्दाय धीमहि । तन्नो वीर: प्रचोदयात् ।

श्रीरामकृष्ण कहा करते थे कि नरेन्द्र सप्तऋषियों में से एक है। वह नर है नारायण(अनंत परमात्मा) का एक अंश। वह श्रीकृष्ण का शाश्वत सहचर अर्जुन है। अर्जुन व कृष्ण की जोड़ी अजेय थी। जहाँ भी वे दोंनो एक साथ उपस्थित रहे वहीं श्री(संपत्ति) विजय और भूति (उन्नति) तथा नीति का अस्तित्व रहा। जैसा कि भगवदगीता भगवदगीता में संजय कहते हैं:-
 
"यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:,
तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।"

आज विश्व को इसी यथार्थ सम्पदा की आवश्यक्ता है जिसका तात्पर्य है शुद्व भोजन, पर्याप्त वस्त्र, आवास तथा अन्य सुख-सुविधाएँ जो इस पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी के लिए उपलब्ध हो सके। वस्तुस्थिति यह है कि विकसित राष्ट्र अभावग्रस्त राष्ट्रों की तुलना में पन्द्रह गुना (या इससे भी अधिक) भोजन वस्त्र आवास इत्यादि से सम्बन्धित सुविधाओं का भोग कर रहे हैं। अगला बिन्दू है विजय आज विश्व के लिए अभिप्सित विजय का स्वरूप यही है कि हम उन दुष्ट शक्तियों पर विजय प्राप्त करें जो उग्र राष्ट्रवाद (उपनिवेशवाद) कम्युनिस्टवाद तथा साम्प्रदायिकता (धार्मिक उग्रवाद) के रूप में हमें पीड़ीत कर रही हैं।
अगला बिन्दू है - भौतिक, बौद्विक, भावनात्मक एवं इच्छाशक्ति का, सन्तुलित विकास न कि बौद्विंकता का एकांगी विकास जो प्रेम, सौन्दर्य, पवित्रता एवं त्याग इत्यादि महान्‌ जीवन मूल्यों को क्षतिग्रस्त करे। अंतिम परन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बिन्दू है- धर्म, वह ध्रुवनीति जिसका निर्माण सत्य, पवित्रता, निस्वार्थ सेवा तथा आध्यात्मिक प्रज्ञा से होता है। विश्व को इसी श्री, विजय, भूति और नीति से सम्पन्न करने हेतु द्वापर युग के कृष्ण व अर्जुन का वर्तमान युग में श्रीरामकृष्ण व विवेकानन्द के रूप में अविर्भाव हुआ है।

स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे बहुमुखी प्रतिभावान, शारीरिक सौष्ठव एवं बल सम्पन्न, कलात्मक उपलब्धियों से मंडित उन्नीस वर्षीय युवक नरेन्द्र के रूप में १८८२ में श्रीरामकृष्ण के सम्पर्क में आये जिसकी आध्यात्मिक तेजस्विता उल्लेखनीय थी। चार बर्षों के शिष्यत्व काल के भीतर ही वे श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक साम्राज्य के निर्विवाद अधिपति बन गए। श्रीरामकृष्ण ने यह कहते हुए उन्हें अपना समस्त उत्तराधिकार सौंपा कि "नरेन, मैने तुम्हें अपना सर्वस्य दे दिया है और स्वयं भिखारी बन गया हूँ। तुम इन शक्तियों के द्वारा महान्‌ कार्य सम्पन्न करोगे।" वे युगावतार रामकृष्ण के उसी प्रकार सच्चे प्रतिनिधि बन गए जिस प्रकार त्रेतायुग में अवतार पुरूष रामचन्द्र के प्रतिनिधि हनुमान बने जिन्होंने लंका जाकर सीता माता का शोध किया, रावण का मानमर्दन करते हुए उसकी राजधानी लंका का दहन करने के पश्चात ही प्रत्यागमन किया। बिल्कुल उसी तरह स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका व युरोप जाकर हिन्दु धर्म के गौरव की प्रतिष्ठा की व पाश्चात्यों के वस्तुवाद एवं मिशनरी धर्म तंत्र-जनित अहंकार का मर्दन किया। धर्म संसद में (जहाँ कुछ सर्वश्रेष्ठ बुद्विजीवियों ने उनकी धर्म संसद का महानतम प्रतिनिधि कहकर भूरि-भूरि प्रशंसा की) उन्होंने भारतीय इतिहास को एक विजयी राष्ट्र एवं अग्रदर्शी आध्यात्मिक विश्व गुरू के इतिहास के रूप में पुनलिर्खित किया।

इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द विश्व में सत्यधर्मकी इन लोगों का चतुर्योग (राजयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग) के साथ तत्त्वमसि अर्थात्‌ मनुष्य़ के दिव्यत्व का बोध दिया जिससे वे भौतिक सुखों की लिप्सा से मुक्त होकर आध्यात्मिक उन्नति व श्रेष्ठता की लक्ष्य का संधान कर सकते थे।

दूसरा समूह उन भारतीयों का था जो जाति-विवाद, कर्मकाण्ड, पुरोहितों के पाखण्ड, जनसाधारण व स्त्री जाति के शोषण जैसी संकुचित व स्वघाती क्रियाओं में जुटे हुए थे। उन्होंने भारतीयों के सच्चे कर्मयोग अर्थात्‌ मनुष्य-सेवा के माध्यम से ईश-सेवा (बंग्ला में- शिव जनाने जीव सेवा) का पाठ पढ़ाया। जिससे समाज निर्धनता के समृद्वि व समृद्वि से आध्यात्मिक प्रज्ञा की ओर अग्रसर हुआ।

सम्पूर्ण मानवजाति को उन्होंने निम्नाँकित वेदान्त सत्य का उपदेश दिया। () अनुभव करो कि आप दिव्यात्माएँ हैं, पवित्र सर्व शक्तिमान और परमानन्द सम्पन्न आध्यात्मिक जीव हैं। () निरन्तर शिवोअहं का जाप करें। जब यह जाग्रति आएगी तब शक्ति, गौरव, साधुता व जो कुछ भी श्रेष्ठ है वह सब प्राप्त होगा।
जब वे पश्चिम में शिवो‌‍‌हं का उपदेश दे रहे थे तब श्रोता वर्ग से एक महिला ने खड़े होकर कहा कि "स्वामीजी, आप बार-बार शिव-शिव कहने का उपदेश देकर हमें आत्मसम्मोहन सिखा रहे हैं।"

स्वामीजी ने तुरन्त उत्तर दिया, "नहीं यह सम्मोहन मुक्ति की प्रक्रिया है। में इसे इसलिए सिखा रहा हूँ कि क्योंकि आप पहले से ही इन विचारों द्वारा सम्मोहित हैं कि आप एक महिला हैं, अमरीकी हैं, वृद्व हैं इत्यादि। वेदान्त सभी को यह सिखाता है कि प्रत्येक जीव एक अनन्त आत्मा है।

उनका यह सन्देश भारत में व्याप्त सामाजिक विभेद को उत्तरी एवं पश्चिमी भारत के केन्द्रों में जाकर आपस में एक सच्ची आध्यात्मिक एकता का अनुभव करते हैं। स्वामीजी का एक अन्य महान उपदेश जीवन लक्ष्य से सम्बन्धित है। उन्होंने कहा कि अपने वास्तविक रूप अर्थात दिव्य आत्मन्‌ का साक्षात्कार ही हमारा जीवन लक्ष्य होना चाहिए। धन संग्रह, प्रजनन एवं अन्य ऐंन्द्रिक सुखों को गौण समझना चाहिए।
 
 न कर्मणा न प्रजया त्यागेन
एके अमृतात्वम्‌ अनासू:

अपने भीतर विधमान दिव्यत्व के साक्षात्कार के लिए स्वामीजी ने एक अद्‌भुत व्यावहारिक उपाय का निदर्शन किया। उन्होंने कहा" इस धरती के जीवित देवताओं अर्थात सभी प्रजातियों, धर्मों, जाति व सम्प्रदाय के निर्धन, अज्ञानी व अभाबग्रस्त लोगों की सेवा करके अपने मानस का परिष्कार करो। अपने सर्वस्य का त्याग करते हुए अभावग्रस्त लोगों के लिए भोजन, वस्त्र और आश्रय का प्रबन्ध इस भावना से करो कि आप उनके माध्यम से ईश्वर की आराधना कर रहे हैं। निर्धनता के उन्मूलन के लिए सभी प्रकार की सहायता प्रदान करो। स्वामीजी ने इसे एक अर्थ गंभीर मंत्र- ‘दरिद्र देवो भवके माध्यम से प्रेषित किया। उन्होंने ऐसे ही एक और मंत्र मूर्ख देवो भवके माध्यम से मूर्ख, अज्ञानियों की सेवा का सन्देश भी दिया और कहा कि हम उन्हें समुचित शिक्षा प्रदान कर प्रबुद्व व आत्मनिर्भर बनाए और उनमें स्वयं तथा ईश्वर के प्रति विश्वास जगाएँ। शिक्षा एवं गरीबी उन्मूलन ये दोंनो ही प्रकल्प प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सहगामी हों तथा प्रत्येक भारतीय की शिक्षा व संस्कृति का अभिन्न अंग बनें।

हम जानते हैं कि अशिक्षा और निर्धनता ये दोनों ऐसे अभिशाप हैं जो आज स्वतन्त्रता के ५९ वर्षों बाद भी हमारे राष्ट्र की महत्ता का क्षय कर रहे हैं। अनाध्यात्मिक नेतृत्व द्वारा चलाई गई आज तक की सरकारों ने "मनुष्य में ईश्वर का दर्शन करो और उसकी सेवा करो" इस धारणा की उपेक्षा करते हुए वस्तुत: व्यक्तिगत स्वार्थ व सत्ता के लिए मानव का दमन ही किया है। विवेकानन्द ने इसे एक एक बड़ा राष्ट्रीय अपराधकहा है। अनंतर स्वामीजी ने अपने एक प्रसिद्व पत्र में दैवी प्रेरणा से उदभूत सन्देश दिया है। वे लिखते हैं "जो भी अब निर्धनों और अभावग्रस्तों आदि के लिए कार्य करेंगे वे ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न होंगे। देवी सरस्वती उनकी जिह्वा के माध्यम से प्रकट होंगी और जगन्माता स्वयं उनकी भुजाएँ बनकर कार्य करेगी।"

अंतत: स्वामी विवेकानन्द यह चाहते हैं कि हम सदैव यह स्मरण रखें कि श्रीरामकृष्ण की असीम सत्‌ शक्ति का सम्बल सदैव हमारे साथ रहेगा। अत: उनकी शक्ति से सम्पन्न होकर हम भारत को विश्व का आध्यात्मिक गुरू बनाने के महान्‌ एवं गौरवशाली लक्ष्य की ओर अग्रसर हों।

एक अमरीकी वेदांतिन्‌ भगिनी गार्गी जिनका हाल ही में ९१ वर्ष की आयू में निधन हुआ स्वामी विवेकानन्द के सन्देश का पश्चिम में अत्यन्त उत्साहपूर्वक प्रचार व प्रसार करती रही। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के अमरीका-वास के सम्बन्ध में विशद्‌ शोध कार्य करते हुए उसे छह खण्डों में प्रस्तुत किया।

देखो! श्रीरामकृष्ण अपने आराधकों और प्रिय भक्तों को कैसी अद्‌भुत शक्ति प्रदान करते हैं। हमें श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द से ऐसी ही शक्ति और गौरव प्राप्त हो और आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर हम मनुष्य सेवा के रूप में ईश सेवा करते हुए स्वामी विवेकानन्द का अनुग्रह प्राप्त करें।

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