Friday 17 May 2013

राष्ट्रीय एकात्मता में स्वामी विवेकानन्द का योगदान

वीरेश्वराय विद्महे विवेकानन्दाय धीमहि । तन्नो वीर: प्रचोदयात् ।
 
“जब राष्ट्र का शरीर कमज़ोर हो जाता है, तो सभी प्रकार के रोगों के कीटाणु, समाज की राजनैतिक स्थिति में या सामाजिक स्थिति में अथवा शैक्षणिक या बौद्धिक स्थिति में, इसके तंत्र में प्रवेश कर जाते हैं और रोग उत्पन्न करते हैं”

-  स्वामी विवेकानंद
  
विख्यात राष्ट्रभक्त संत स्वामी विवेकानंद के अतिरिक्त हमारे देश में कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसने हमारे राष्ट्र की स्थिति के सभी विविधतापूर्ण पहलुओं पर विचार किया हो। उनकी राष्ट्रभक्ति का मूल हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक परंपरा में था, किन्तु उनका राष्ट्रवाद अनेक जड़ों वाले विशाल वटवृक्ष के समान विकसित हुआ, जिसका दायरा इस राष्ट्र के सामर्थ्य और संभावनाओं के समस्त क्षेत्र तक फैल गया। इसमें उनका यह दृढ़ विश्वास भी जुड़ा हुआ था कि भारत को संपूर्ण मानवता को एक संदेश देना है और यह संदेश भारत के लोगों के जीवन के माध्यम से दिया जाना है। यही कारण है कि उन्होंने वेदांत के ज्ञान को हिमालय की ऊंचाइयों से देश के दीन-हीनों एवं पतितों के जीवन तक पहुँचाकर उसे व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया।

भारत भूमि के अंतिम छोर पर स्थिर शिला पर ध्यान के द्वारा उनके राष्ट्रवादी विचारों में वैश्विक आयाम जुड़ गया, जिससे जगतगुरु के रूप में भारत माता की भूमिका के उनके स्वप्न और आकांक्षा की पुष्टि हुई। आज जब हम स्वामीजी की १५०वीं जयंती मना रहे हैं, तो स्वामीजी से विरासत में हमें प्राप्त दृष्टि एवं हमारे पास जो होना चाहिए, उसे प्राप्त करने में हमारी विफलता के संबंध में उनके उचित अवलोकन  का स्मरण स्वयं को कराना हमारे लिए लाभदायक होगा।

हम सभी यह जानते हैं कि सभी मोर्चों पर सभी प्रकार के रोगों के कीटाणुओं द्वारा किए जा रहे आक्रमणों के कारण हमारे राष्ट्र का शरीर आज कमज़ोर हो गया है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि स्वामी विवेकानंद ने १९वीं शताब्दी में ही इस कमज़ोरी और परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली गंभीर बीमारी को स्पष्ट रूप से देख लिया था।

अपनी विविधतापूर्ण सांस्कृतिक विशिष्टता, जातियों, धर्मों, भाषाओं आदि से परिपूर्ण यह भारतीय राष्ट्र एक बहुआयामी रत्न है। इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि हमारी समस्याएं भी किसी अन्य देश की समस्याओं की तुलना में अधिक जटिल, अधिक कठिन हैं। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इनका कोई समाधान नहीं है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हम सभी इनका उपचार तो जानते हैं, किन्तु उस औषधि के उपयोग के लिए हममें राष्ट्रीय इच्छाशक्ति का अभाव है। आज राष्ट्रीय स्वार्थ पर हावी हो जाने वाले निजी स्वार्थ सतत इन विविधताओं को प्रचारित करते हैं किन्तु लोगों की एकता को नहीं, जिसके कारण हमारा राष्ट्रवाद निरंतर और भी खंडित होता जा रहा है। अनेकता में एकता की पहचान भारतीय संस्कृति की विशिष्टता रही है। एकता को ढूँढकर शिक्षात्मक, संवैधानिक और राजनैतिक निरूपणों के माध्यम से उसे प्रचारित करने के बजाए क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के लिए जानबूझकर लोगों को बाँटने के प्रयास किए जाते हैं। यह आज राष्ट्र को कष्ट देने वाल दोहरा दुःख है। यदि यह बिखराव और विभाजन इसी गति से जारी रहा, तो हम अपने राष्ट्रवाद को कब तक बचा पाएँगे?

वर्तमान में हमारा समाज जिस सबसे बड़े कष्ट से गुज़र रहा है, वह है, अपने सर्वाधिक भयंकर व ख़तरनाक रूप में जातिवाद का पुनः प्रचलन। यह अवसर की मांग है कि हम इस परिस्थिति को महान मार्गदर्शक स्वामी विवेकानंद की दृष्टि से देखें, जिन्होंने इस विपत्ति को पहले ही पहचान लिया था और हमें चेतावनी भी दे दी थी।

अपने गुरुदेव के देहावसान के बाद पूरे देश में भ्रमण के दौरान स्वामीजी ने हमारे राष्ट्र की शक्ति और कमियों को ढूँढने के लिए अथक प्रयास किए थे। उनका लक्ष्य उन स्तंभों को और अधिक शक्ति प्रदान करना था, जिन्होंने प्राचीन-काल से अभी तक इस राष्ट्र के विशाल स्मारक को थाम कर रखा था और इस प्रकार वे राष्ट्र को दुर्बल बनाने वाली कमियों से बाहर लाना चाहते थे। वे यह जान गए थे कि भारत एक विशाल आध्यात्मिक एकीकरण का केंद्र है और इसका लाभ समस्त मानवजाति को प्राप्त होना चाहिए। संपूर्ण विवेकानंद साहित्य में हमें जातिवाद और अन्य राष्ट्रीय समस्याओं के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं के बारे में उनके सुविचारित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। आज जिन चुनौतियों के कारण हमारे सदियों पुराने सामाजिक ताने-बाने के विखंडन का खतरा उत्पन्न हो गया है, उनका सामना करने के लिए स्वामीजी के कुछ अत्यंत उपयुक्त निष्कर्षों का स्मरण करना हमारे लिए एक अच्छी सीख होगी। भले ही उन्मादी भीड़ कुछ सुनने को तैयार न हो, तब भी कम से कम उन लोगों को तो इस अभ्यास से अवश्य लाभ होगा, जिन्होंने अभी तक अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया है।

स्वामी विवेकानंद के  निष्कर्ष हमें हमारी समस्या के मूल तक वापस ले जाते हैं। यूरोपीय सभ्यता के साथ इसकी तुलना करते हुए वे कहते हैं, अन्य बातों के साथ-साथ, यूरोप के लोगों का उद्देश्य सभी का विनाश करना है, ताकि वे स्वयं जीवित रह सकें। आर्यों का उद्देश्य सभी को न केवल अपने स्वयं के स्तर तक, बल्कि स्वयं के स्तर से भी ऊँचा उठाना है। यूरोपीय सभ्यता का माध्यम तलवार है; आर्यों का माध्यम है, विभिन्न वर्णों (स्वाभाविक जातियों) में विभाजन। वर्ण-विभाजन की यह पद्धति सभ्यता की सीढ़ी है, जो प्रत्येक व्यक्ति को उसकी शिक्षा और संस्कृति के अनुपात में ऊपर की ओर ले जाती है। यूरोप में सर्वत्र ही शक्तिशाली की विजय होती है और दुर्बलों को मृत्यु मिलती है। भारत-भूमि में प्रत्येक सामाजिक नियम दुर्बल की सुरक्षा के लिए है।”

इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं: वर्ण व्यवस्था सदैव ही अत्यधिक लचीली रही है, ताकि जिन जातियों को संस्कृति में निम्न स्थान प्राप्त है, उन्हें भी ऊपर आने का निष्पक्ष अवसर मिल सके। कम से कम सैद्धांतिक रूप से यह पूरे भारत को-न ही धन के और न ही तलवार के- बल्कि आध्यात्मिकता द्वारा अनुशासित व नियंत्रित विवेक के अधीन रखती है।”

अतीत के उन दिनों में इस तरह की व्यवस्थाएं हमारे राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए आवश्यक थीं। जिन लोग अपनी क्षमता से अधिक जी चुके हैं, अब उन्हें उनकी स्वाभाविक मृत्यु प्राप्त हो जानी चाहिए। स्वामीजी इस बात की ओर संकेत करते हैं कि अपने विशेषाधिकारों के परित्याग की अस्वीकृति ही जाति व्यवस्था के नष्ट होने का कारण रहा है। अब इसे संक्षेप में दो प्रकार से कहा जा सकता है: ‘उच्चवर्णीय’ आध्यात्मिक एकता  का पुनरुच्चार करें और सहानुभूति एवं सहायता के लिए अपने हाथ बढाएं, ‘निम्नवर्णीय’ जाति के कलंक की तीव्र वेदना से बाहर आकर अपने समस्त प्रयास स्वयं को उस नए आत्मविश्वास और शक्ति से परिपूर्ण करने में लगाएं, जो उन्हें आधुनिकता द्वारा प्राप्त हो सकते हैं। पिछड़ेपन को मूल्यवान खजाना मानकर इसे अविरत बनाए रखने की भूल करने के बजाए उन्हें अपने स्वयं के और इस राष्ट्र के महान हित के लिए अपनी बेड़ियां तोड़ने की तत्परता और इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए।

सामाजिक या राजनैतिक स्तरों पर हम चाहे जो भी करें, किन्तु अंतिम विश्लेषण यही है कि व्यक्तियों या समूहों के सच्चे प्रयास ही शक्ति और गौरव लाएंगे। दोनों ओर से, व्यापक लक्ष्य पर केंद्रित, संयुक्त प्रयास किए बिना आने वाली प्रत्येक पीढ़ी के साथ यह अंतर केवल बढ़ता ही रहेगा, जिसके परिणामस्वरूप हमारा राष्ट्र वर्ग/जाति संघर्ष और टकरावों के स्थायी गर्त में और गहराई तक डूबता जाएगा।

केवल आध्यात्मिक दृष्टि से देखने पर ही हम जीवन को इसकी समग्रता, संपूर्णता और गतिशीलता में देख सकते हैं। हमारे समाज की आध्यात्मिक जागृति और आकांक्षाओं का पालन-पोषण करना ही स्वामी विवेकानंद द्वारा हमारे राष्ट्रीय रोग के लिए बताई गई दवा है। “सभी बुराइयां मतभेदों पर आश्रित होती हैं। सभी अच्छाइयां  समता, समानता व एकात्मता पर विश्वास से प्राप्त होती हैं।”  धर्म और साथ ही मनुष्य की आध्यात्मिक आकांक्षाओं का त्याग कर देना इसका समाधान नहीं है। स्वामी जी संकेत देते हैं कि “धर्म को इसकी उचित सीमाओं के भीतर रखा जाना चाहिए और समाज को विकसित होने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।”  वे आगे कहते हैं, “भारत में किए गए सभी सुधार-कार्यों एक बड़ी गलती ये की कि उन्होंने धर्म को ही कर्म-काण्ड की सभी बुराइयों और समाज के पतन का कारण माना और इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने एक अविनाशी संरचना को तोड़ने का प्रयास किया; और इसका परिणाम क्या हुआ? विफलता। जाति केवल एक सुव्यवस्थित सामाजिक रचना है, जो अपना कार्य पूर्ण करने के बाद अब भारत के वातावरण को अपनी दुर्गंध से भर रही है; और इसे केवल लोगों को उनकी खोई हुई सामाजिक पहचान लौटाकर ही  दूर किया जा सकता है।”

आज भी वही गलती जारी है और इसका परिणाम हम सभी देख सकते हैं। प्रत्येक व्यक्त में विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष प्रवृत्ति का पोषण करने और कट्टरपंथी भावनाओं व मार्गों को नष्ट करने के लिए हमारे राष्ट्र-जीवन के प्रत्येक पहलू में एक वैश्विक आध्यात्मिक आयाम पर बल दिया जाना आवश्यक है। दुर्भाग्य से वास्तविक धर्मनिरपेक्षता छद्म-धर्मनिरपेक्षता में रूपांतरित हो रही है, जो इस दुर्गंध को और बढ़ा रही है।

स्वामी विवेकानंद जाति को वंशानुगत प्रणाली मानने के दृढ़ विरोधी थे क्योंकि वे जानते थे कि इससे मनुष्य की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। दूसरी ओर, वे लोगों के बौद्धिक वर्गीकरण को कुछ सीमा तक उपयोगी भी मानते थे, ताकि लोगों के संपूर्ण समूहों  को आगे बढ़ने में सभी प्रकार की सहायता व समर्थन दिया जा सके।

इस प्रगति के द्वारा स्वामी जी का आशय केवल आर्थिक अथवा राजनैतिक स्वतंत्रता से ही नहीं, बल्कि मन की वास्तविक स्वतंत्रता पर आधारित नैतिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक बंधुता से भी था। वे व्यक्ति का स्तर उठाने में विश्वास रखते थे, नीचे गिराने में नहीं।

क्षमता और जीविका में अंतरों को संवैधानिक माध्यमों द्वारा अस्वीकृत या समाप्त नहीं किया जा सकता। समाज को अधिक समृद्ध, सक्रिय और सतत प्रगतिशील बनाने के लिए इन अंतरों का होना आवश्यक है। साथ ही, स्वामीजी हमें यह भी स्मरण कराते हैं कि “हमारा कार्य दीन-दुखियों, निर्धनों व अशिक्षित कृषक एवं श्रमिक वर्गों के लिए और उनके लिए सब-कुछ कर लेने के बाद यदि समय बचता है, तो कुलीन वर्ग के लिए...”

“व्यक्ति को स्वयं अपने प्रयासों से प्रगति करनी चाहिए... ...यह बात जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू होती है।”
 

मानवता का उत्थान इसी में निहित है। हमें कम भाग्यशाली लोगों की सहायता करनी चाहिए, ताकि वे अपनी जीवन-शक्ति पुनः प्राप्त कर सकें। स्वामीजी यह कहकर हमें चेतावनी भी देते हैं कि “किन्तु तुम्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि निर्धन कृषकों, श्रमिक वर्ग और धनवान वर्गों के बीच वर्ग-संघर्ष उत्पन्न न हो जाए। धनवान वर्गों की आलोचना मत करो।”

वे निर्धनों, पतितों और दीन-दुखियों की सहायता के परम समर्थक थे और उन्होंने अपने देशवासियों से आह्वान किया कि वे अतीत की गलतियों को सुधारें और वेदांत के आदर्शों को जाति, संप्रदाय और लिंग-भेद के बिना प्रत्येक व्यक्ति तक पहुँचाएं, ताकि वे सभी अपने भीतर स्थित दिव्यता की खोज कर सकें

वर्तमान समय में, संदिग्ध उद्देश्यों, स्वार्थपूर्ण प्रेरणाओं और गलत तरीकों के द्वारा हमने इस खाई को पाटने का प्रयास किया है और जैसा कि पूर्वानुमान किया जा सकता है, इसका परिणाम केवल अव्यवस्था के रूप में ही मिला है। पुनः एक बार हमने यह सिद्ध कर दिया है कि अनुपयुक्त पद्धति से किया गया अच्छा कार्य भी एक प्रतिघात उत्पन्न कर देता है, जिससे देने वाले और पाने वाले, दोनों की ही हानि होती है।

भारत के पुनर्निर्माण के लिए उनका महामंत्र था ‘त्याग और सेवा’।  उन्होंने भारतीयों से आह्वान किया कि वे इन्हें राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में सशक्त करें, ताकि भौतिकतावादी अतिक्रमणों द्वारा होने वाले आध्यात्मिक मूल्यों को ह्रास को रोका जा सके।

तो मार्ग कौन दिखाएगा? या आखिर मार्ग है किसके पास?


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