आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्। वैदीहीहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्।।
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्। पश्चाद् रावण कुम्भकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम्।।
सियाराममय सब जग जानी, करहूं प्रणाम जोरि जुग पाणी" राम के परम उपासक भक्त शिरोमणि महाकवि तुलसीदास की श्रीराम के प्रति भावात्मक रूप-गरिमा की अन्यतम सारगर्भित चौपाई है, जो श्रीराम के प्रति भक्तिभाव रूप को उद्घाटित करती है तथा भारतीय आध्यात्मिक चेतना की मूल अभिव्यक्ति है। इसी के आभामण्डल में विभिन्न आध्यात्मिक भाव-चेतना के स्रोत निहित हैं। सभी मत-पंथ अपनी-अपनी मान्यताओं-संकल्पनाओं का आश्रय इसी आधार को लेकर परमसत्ता को मूर्तिमान करने में सचेष्ट हैं।
महर्षि श्री वाल्मीकि की रचना " श्रीवाल्मीकि रामायण" संस्कृत का प्रथम महाकाव्य है जिसमें श्रीराम को एक ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में प्रस्थापित किया गया है। परन्तु उनकी आध्यात्मिक दृष्टि श्रीराम को अलौकिक ब्रह्म-लीलामय रूप को उद्घाटित करने में निरपेक्ष रही है। उनके सहस्त्रों वर्ष पश्चात कलयुग में श्री गोस्वामी तुलसीदास श्रीराम को आध्यात्मिक पटल पर 'रामचरितमानस' महाकाव्य की अवधी भाषा में रचना कर युगानुकूल आध्यात्मिक चेतना को जन-जन के मानस पटल पर अंकित करने में सफल हुए। अपने जीवन काल में ही श्रीराम का ब्रहा-लीलामय रूप रामलीला मंचन के माध्यम से बनारस से शुभारम्भ कराया जो आज तक परम्परागत राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर वार्षिक आयोजन के रूप में शाश्वत रूप ग्रहण कर चुका है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में भाषागत विभिन्नता के कारण रामचरित कथा को न्यूनाधिक अंतर के आधार पर आत्मसात किया गया तथा क्षेत्रीय संतों, भक्तों और कवियों ने अपनी भाषा में अनेक रामायण- रामचरित ग्रंथों की रचना कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के भावरूप को चित्रित किया है।
उत्तर प्रदेश के कुरुक्षेत्र में कोरवी खड़ी बोली का रूप विद्यमान है। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम को लौकिक जीवन व्यवहार, पर्वों तथा पारिवारिक उत्सवों में समाहित किया गया है। विवाहोत्सव में दूल्हे को श्रीराम तथा दुल्हन को सीताजी के रूप में गौरव और पावित्र्य की गरिमा प्रदान की गई है। यह परम्परा कुरू प्रदेश में महिलाओं की सद्भावना तथा सीताराम भावरूप की मान्यता-सौजन्यता की सुदीर्घ परम्परा के रूप में विद्यमान है। उसी भाव रूप को गीतों के माध्यम से अपनाकर महिलाएं आनन्दातिरेक तथा आध्यात्मिक भक्तिभाव बोध को धरोहर के रूप में संजोये हैं।
कुरूप्रदेश क्षेत्र में रामकथा रामचरित (राधेश्याम रामायण) पंडित राधेश्याम द्वारा रचित ठेठ खड़ी बोली का अद्भुत ग्रन्थ है। जिसमें ६३३ पृष्ठों में ८ काण्ड (लवकुश काण्ड सहित) है जो सोलह मात्रीय मुक्तक तथा दोहा छन्द की सम्पुट शैली में संगीतमय रूप में उपलब्ध है जो स्थानीय भजनीकों, कथावाचकों का प्रिय समाहार बन गया है।
इस ग्रन्थ में श्रीराम के धर्मनीति भावरूप को निम्न रूप से चित्रित किया गया है। जब लक्ष्मण मूर्छा के अवसर पर उपचार हेतु सुसैन वैद्य को लंका से हनुमानजी द्वारा लाया गया तो उसने श्रीराम के सम्मुख लंकापति के बैरी की सहायता करना अधर्म का द्योतक बताया। तत्सम्बंधी श्रीराम का निम्न कथन दृष्टव्य है :-
मैं बैद्य दशानन के घर का, किस तरह आपका काम करूँ ?
अनुचित होगा यदि बैरी को लंकापति के आराम करूँ।।
जिसमें प्रत्यक्ष बुराई है-कैसे यह कर्म किया जाए ?
हे राम, आज्ञा देते हो ? इस समय अधर्म किया जाए।।
दोहा :- यह सुनते ही चौक कर, बोल उठे रघुराय।
धर्म छोड़ने की कभी, राम न देगा राय ।।
जिस धर्म हेतु राज्य गया, श्रीपितृ देव का मरण हुआ।।
जिस धर्म हेतु भरत छूटा, सीता प्यारी का हरण हुआ।।
उस धर्म सत्य पर लक्ष्मण भी, यदि मर जाये तो मर जाये।
आवाज यही होगी अपनी, हाँ धर्म नहीं जाने पाये।।
इस उदार वक्तव्य से वैद्य हो गया शान्त।
चरणों पर गिरकर कहा, जय जय सीता कान्त।। (पृष्ठ ४१६) रावण का वध हो जाने पर सबसे पहले श्रीराम जी ने श्री लक्ष्मण को विभीषण का राज्यतिलक कराने का आदेश देकर राजधर्म का पालन किया :- देखें
दौहा - जब यह लीला हो चुकी तब बोले रघुराज।
लक्ष्मण विभीषण को राजतिलक दो आज।
श्रीराम बाली का वध करने के पश्चात दिये वचन का पालन अंगद को पुत्रवत समझते हैं तथा लंका में दूत बनाकर भेजने करने हेतु के प्रस्ताव पर कहते हैं :-
प्रभु बोले बाली तनय तुमको हम पुत्र समान समझते हैं।
लंका में दुश्मन के घर में इसलिए भेजते डरते हैं।।
फिर उचित नहीं है दूत कार्य किष्किन्धा के युवराज तुम्हें।
सभी सेना का संचालन शोभा देता है आज तुम्हें ।।
दोहा - अंगद बोले सिर नवा, सुनिये कोशलनाथ।
रखिये आशीर्वाद का मेरे सिर पर हाथ ।।
(पृष्ठ ३८५)
स्वामी का सेवक द्वारा की गई सेवा से उऋण होना सनातन रोति-नीति है, जिसके पालन हेतु केवट द्वारा गंगा पार कराने पर श्रीराम उसको उतरायी देने के दायित्व बोध से सकुचाहट का अनुभव करते हैं देखें:-
आदत तो वही राजसी है, किस तरह त्याग दे राम उसे।
जिसने भी कोई सेवा की, फौरन दे दिया इनाम उसे।
लेकिन अब देने को क्या है ? गाती है मुनियों का पठ है।
कुछ दिया नहीं दे सके नहीं, बस इतनी सी सकुचाहट है।।
वन जाने की आज्ञा पर श्रीराम पुत्र का माता-पिता की आज्ञा पालन को अपना अहोभाग्य मानते हैं देखें :-
"बड़भागी वह बेटा है, जो पितृमाता का आज्ञाकारी है।
माता यदि यही आज्ञा तो, जिन्दगी पवित्र हमारी है।।
हम इतने बड़े हुए फिर भी यह खेद सदा ही रहा हमें।
माता या पिता किसी ने भी आदेश न कोई दिया हमें ।।
निश्चय है आज स्वर्ण अवसर आज्ञा हमको देती है माँ।
है आज हमारा अहोभाग्य, हमसे सेवा लेती है माँ।।
श्रीराम के धनुष तोड़ने पर श्रीराम छोटे भ्राता लक्ष्मण को शान करने के पश्चात भृगु सुत परशुराम को मर्यादित रूप में शांत करते हैं और अपने सूर्यकुल की परम्परा एवं मर्यादा का वर्णन निम्न पंक्तियों में करते हैं।
अभिमान प्रशंसा रोष नहीं अपना स्वभाव कहते हैं हम
अत्याधिक छेड़ता है कोई तो मौन-नहीं रहते हैं हम।।
रघुकुल का रक्त चुनौती पर रण मध्य खौलने लगता है।
फिर महाकाल भी हो सम्मुख उससे भी लड़ना पड़ता है।।
इसलिए न परसा दिखलाएँ, उससे हम कभी न डरते हैं।
हाँ एक शस्त्र द्विजवर पर है, जिसका हम आदर करते हैं।।
साथ ही परशुराम जी का सम्मान प्रमुख रूप से करते हैं तथा उनके चरणों का वन्दन करना अपना परम कर्तव्य मानते हैं तथा उनको
आस्था एवं श्रद्धा के भाव से नमन करते हैं।
द्विजराज देखिए नीचे को, वह उन चरणों की ठोकर है।।
दोहा :- कोमल है वह, पर हमें रखती है भयभीत।
उसमें ही यह शक्ति है ले त्रिभुवन को जीत ।।
बस वही शस्त्र है महाशस्त्र जिससे अपना नीचा सिर है।
यदि उसका करें प्रयोग आप तो यह वक्षस्थल हाजिर है।।
विप्रों के हम हैं कृपापात्र यह ध्यान रहे इस ठौर प्रभो।
उसकी भी छाप वहाँ पर हो जिस जगह चिन्ह हैं और प्रभो।।
(पृष्ठ-८३)
निष्कर्षतः कोरवी खड़ी बोली में रचित "राधेश्याम रामायण" में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का धर्म, नीति, राजनीति, स्वामी-सेवक सम्बंध, विप्रों का सम्मान तथा रघुवंश की मर्यादा और परम्परा का चित्रण कवि श्री पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अत्यंत सहज, सरल तथा प्रभावी रूप में किया है जो आज कुरू प्रदेश की जनता के मानस को पारितोष एवं आध्यात्मिक चेतना का पोषक है।
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- डॉ. ज्वालाप्रसाद कौशिक 'साधक'
(संदर्भ - साहित्य परिक्रमा - जनवरी २०१२ - भाव रुप राम )
पॉडकास्ट प्लेलिस्ट : रामायण दर्शन
The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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