Wednesday 17 January 2024

पहाड़ी रामायण में अद्भुत प्रसंग

आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्।  वैदीहीहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्।।
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्।  पश्चाद् रावण कुम्भकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम्।।

हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में प्रचलित पहाड़ी हि लोक रामायण में ऐसे अद्भुत प्रसंग हैं जो मूल रामायण या रामचरित मानस में नहीं मिलते। यही इस लोक रामायण की महत्ता है। लोक कवियों ने अपने ढंग से राम कथा का बखान किया । वे रामचरित मानस घटनाक्रम, पात्रों, संवादों से अलग एक रामायण की रचना करते हैं जो लोग के अनुकूल तथा लोक के करीब है। कुल्लू, महासू, किन्नौर, चम्बा, सिरमौर, कांगड़ा आदि  क्षेत्रों में यह लोक रामायण अपने ढंग से बखानी जाती है।

यूं तो हिमाचल ही नहीं, पूरे भारतीय मानस में राम शब्द प्रत्येक मनुष्य की रग-रग में समाया है। लोक संस्कृति में तो राम के बिना कुछ सम्भव ही नहीं। दुःख में कुछ में राम का साथ, साये की तरह बना रहता है। यदि दीपकण कण में भगवान का वास मानते हैं तो मनुष्य के नेत्ररोम में राम है। हिमाचल में भी कांगड़ा से किन्नौर, शिमला से सिरमौर, कुल्लू से भरभौर तक राम का वही महत्व है जो यहां की हवा का है, यहां के पानी का है।
 
"सिया राम मय सब जग जानी" की उक्ति इस प्रदेश में बिल्कुल सटीक बैठती है। बेशक यहां हजारों की इंख्या में देवी देवता हों, लोक या ग्राम देवताओं में कितनी ही आस्था हो, राम सब में समाए हैं। अंततः लीग राम का स्मरण करते हैं। "हे राम !" शब्द एक ऐसा शब्द है जिसका उच्चारण मनुष्य चलते उठते बैठते करता है। जो नहीं भी करता है, उस के मुंह से भी गाहे बगाहे हे राम निकल जाता है। है। खूशी में, गमी में, हास में, परिहास में राम नाम का उच्चारण वैसे ही होता है, जैसे आदमी के मुंह से 'माँ' शब्द उच्चारण स्वाभाविक और सहज रूप से होता है।

"राम" शब्द की महिमा का गान करते हुए हम संत तुलसीदास को नहीं भुला सकते। यह तुलसीदास का ही प्रताप है कि आज सब लोग राम राम का जाप करते हैं। तुलसीदास ने अपनी शब्द शक्ति के बल से पूरे भारत में राम नाम का प्रचार किया। "रामायण" जैसी कृति दे कर उन्होंने राम नाम की महिमा रामायण' जैसी कृति दे कर भारत में इसका ऐसा प्रचार किया कि यह शब्द जन-जन का मंत्र बन गया। वाल्मीकि राम जैसे सशक्त बातमी कि पहले ऐसी विभूति थे जिन्होंने तुलसीदास ही ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने रामको जन जन तक पहुंचाया। इनमें तुलसीदास ने राम को लोक का नायक बना दिया और सभी जन राम मंत्र का जाप करने लगे। हमारे प्रदेश में भी राम कथा का गायन घर-घर होने और सर्दियों में लंबी रातों में रामकथा का गायन सुनने आसपास के लोग किसी एक घर में इकट्ठा हो जाते। राम नाम की महिमा ने कई लोगों को सहारा दिया और राम शब्द कइयों का सम्बल बना। रामचरित मानस का पवित्र ग्रंथ घर में रखना एक धार्मिक और पवित्र कृत्य माना जाने लगा।

लोक में राम एक आदर्श पुरुष हैं। उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। एक आदर्श राजा और प्रजापालक होने के साथ-साथ, वे एक आदर्श पुत्र, पति, भाई हैं। रावण जैसे राक्षसों का नाश करने और साधारण जन के सम्बल राम एक आदर्श मित्र और दुर्बलों के बल हैं।

राम नाम की महिमा भी अपरम्पार है। हर बोल में राम बोलने की एक प्रथा है। कभी एक दूसरे से मिलने पर भी "राम राम" या "जै रामजी की" बोला जाता है। "हे राम" जैसे शब्द तो अनायास ही मुंह से निकल जाते हैं। दुख में, तकलीफ में, आश्चर्य में 'राम', 'हाय राम' नाम ही उच्चरित होता है।

ऊना के एक गीत में सब कुछ राममय होने का सुन्दर वर्णन है। गीत में सीता कहती है -
 तुम बी राम, चलते राम फिरते राम।  
 अंदर राम बाहर राम, चक्की राम चूल्हा राम।
 राम सुआरे सब के काज, जप लै श्रीरामराम।।"
 
  कांगड़ा के एक गीत में उल्लेख है: ,राम राम इदये बसाये जोवन जन्म सुधारेया।"
यह बात कम आश्चर्य की नहीं है कि सदियों से हमारे यह भी रामलीला का मंचन हो रहा है। रामलीला हमारे लोक में रामलीला, वही प्रसंग, वही संवाद। इसके बावजूद हर वर्ष उसी तरह का मंचन बार बार। यह राम कथा के महत्व और लोगों में इसके प्रति अगाध विश्वास लोक नाटक, नौटंकी या अच्छे से अच्छा को नाटक या फिल्म कोई व्यक्ति दूसरी बार नहीं देखना चाहता। बार बार देखने का तो कोई औचित्य ही नहीं। अच्छी से अच्छी फिल्म भी कोई दो बार से अधिक नहीं देखता। किंतु यह बहुत ही हैरानी का विषय है कि वही राम कथा, वही पात्र, वही दृश्य, वही संवाद लोग बार- बार देखते हैं। आज भी लोग राम लीला उसी चाव से देखते हैं चाहे वह व्यवसायिक कलाकारों द्वारा की जा रही हो, चाहे गांव के लड़कों द्वारा। यह सदियों से हो रहा है जो राम तथा राम कथा के प्रति हमारी आस्था को दर्शाता है। नवरात्रों में देश और प्रदेश के कई भागों या यूं कहें कि गांव गांव में राम लीला का मंचन होता है और हर वर्ष उसी चाव से लोग देखते हैं। गांव तो गांव शहरों में भी उतनी ही संख्या में लोग आते हैं बेशक टेलिविजन जैसे दैत्य ने सब को बांध रखा है। राम लीला में बच्चे, जवान और बूढ़े सभी उत्सुक दर्शक बन जाते हैं, हालांकि उसमें नया कुछ नहीं होता। अमीर, गरीब, शिक्षित, अशिक्षित सब एक समान और एक जगह बैठ कर रामलीला का आनन्द लेते हैं। यही इस कथा की महानता है और महत्व है।

हिमाचल प्रदेश में रामायण या रामकथा की करें विशेषताएं रही हैं। इन में प्रमुख यह हैं कि यहां राम का मानवीकरण किया गया है। राम या किसी भी अन्य शक्ति को एक साधारण मानव या यूं कहें अपनी तरह देखने का एक प्रबल भाव यहां के लोक मानस में रहा है। शिव को गद्दी लोग अपनी तरह मूंछ वाला बनाते हैं।  गौरा उसे नालों में ढूंढती है:

"रिढ़ियां तां रिढ़ियां धूडू नचंदा, नाले तो खोले गौरां तोपंदी"

इसी तरह उनके राम और लक्ष्मण चौसर खेलते। तो सिया कसीदा काढ़ती है: "राम ते लछमन चौसर खेलंदेः सिया राणी कढंदी कसीदा हो"

यहां राम न तो भगवान हैं और न ही राजपुत्र, साधारण मानव हैं और उसी तरह रहते हैं जैसे स्वयं गद्दी लोग रहते हैं। वही पहनते हैं, वही खाते पीते हैं। राम को ऐसा अपनी तरह मानव समझने का भाव पूरे प्रदेश में पाया जाता है।

दूसरी प्रमुख विशेषता यह है कि महाभारत हो चाहे रामायण, लोक में उसका गायन, घटनाओं का वर्णन अपने ढंग से किया गया है। यह आवश्यक नहीं है कि में रामायण में घटनाक्रम का वर्णन है उसका ज्यों का ज्ये वर्णन लोक में भी किया जाए। कथा में अपने पात्र भी हैं। इसी तरह राम कथाओं में अंतर भी पाया जाता है। किन्नोर में प्रचलित एक लोक गीत में भरत को बड़ा भाई बताया गया है और भरत को राजा बनने के योग्य न होने पर उसे राजा नहीं बनाया गया। कैकेयी का चरित्र भी बुरा नहीं बताया गया। कैकेयी पर दबाव डालने वाली औरत का नाम फाफा कुटोन है। किन्नौर में राम कथा का श्रवण श्रद्धा से धूप दीप आदि जला कर करने के निर्देश दिए गए हैं। कुल्लू में कैकेयी राक्षसों की धियाण अर्थात वंशज या बेटी हैं। कांगड़ा, चम्बा में राम कथा को "रमैणी" कहा जाता है। इस लोक गीत में बचपन में राम गांव में मुंडुओं अर्थात लड़कों के साथ खिन्नू अर्थात गेंद खेलने लगते हैं। वे गेंद को इतनी जोर से मारते हैं कि गेंद कुएं में जा गिरती है। गेंद का स्वामी राम पर बहुत गुस्सा करता है। राम ने बमत्कार दिखाया। कुएं से एक बिल्ब का पेड़ उगा जिसकी हर शाख में गेंद लटके थे। सभी बच्चों ने एक- एक गेंद लिया और मजे से खेलने लगे।

निरमण्ड की ओर राम कथा में यह उल्लेख आता है कि कैकेयी ने जब भरत को राज्य और राम को वनवास मांगा तो एक शर्त रखी कि वे सोने की एक गेंद आकाश की ओर फेंकेंगी। जितनी देर में गेंद वापिस आएगी, दशरथ उतने समय में अपना निर्णय कागज पर लिख दें, वह उसे मान जाएगी। कैकेयी ने गेंद उछाली और उसकी बहन कोकई ने पकड़ ली और नीचे ही नहीं आने दी। राजा दशरथ ने कागज पर राम को वनवास और भरत को राजपाट लिख दिया और मुख्य द्वार पर टांग दिया। राम लक्ष्मण ने द्वार पर यह लिखा हुआ पढ़ा और निर्णय लिया कि अब इस नगरी में अन्न खाना हमारे लिए घोर पाप है। इसी तरह का प्रसंग कांगड़ा में भी मिलता है। गीत में वर्णन है कि राजा दशरथ राम को बनवास की बात बता नहीं पाए और उन्होंने यह आदेश एक कागज पर लिखा और प्रवेश द्वार पर चिपका दिया। राम खेलने के बाद घर आए तो यह आदेश द्वार पर लिखा हुआ पढ़ा। इसे पढ़ते ही वे खुशी से वन में जाने को तैयार हो गए।

लाहौल में "घुरे" गीत में राम लक्ष्मण को जो "सोदुरू" अर्थात सगे भाई माना गया है: "ए रामा ए चों लकूमाणा दुये सौदुरे भाये। ए राणी ए सीता बरूं ए हैं मंगाये।।" सीता हरण प्रसंग में राम मायावी हिरण को  मारने में सफल हो जाते हैं। कौवा उन्हें हिरण की खाल खींचने की विधि बताता है। राम उस विधि से हिरण की खाल निकाल लेते हैं और सोने के सींग भी निकाल लेते हैं ताकि सीता को दे सकें। हिरण को मारने और खाल निकालने का यहां एक लम्बा प्रसंग है जिसमें रावण का साधु वेश में डमरू बजा कर भिक्षा मांगने और अपनी जटा में बग का फूल लगवाने की कथा है। कांगड़ा में भी राम को खाल उतारने में कठिनाई आती है। राम समझ से काम ले कर जहां खाल उत्तारते हैं, वहां कील लगाते जाते हैं। सिरमौर में प्रचलित गीत के अनुसार जब राम कुटियाँ में वापस आते हैं तो सीता को बहां न पाकर राम लक्ष्मण पर संदेह करते हैं। लक्ष्मण शाम को खाना पकाने के लिए आग जलाने लगते हैं तो चूल्हे में केवल एक लड़की लगा कर ही फूंक मार जलाने का प्रयास करते हैं। राम इस प्रयास को व्यर्थ बताते हैं तो लक्ष्मण कहते हैं कि जिस तरह एक लकड़ी से आग नहीं जल सकती, उसी तरह एक अकेला भाई भी कुछ नहीं कर सकता।

इस तरह अनेकों प्रसंग हैं जो राम कथा में अपने ढंग से बखाने गए हैं और उन में लोक में व्याप्त देश काल को ध्यान में रखा गया है। राम तथा अन्य पात्र अयोध्या के नहीं, बल्कि उसी क्षेत्र के लगते हैं जहां कथा का गायन किया जा रहा है। उसकी वेश-भूषा, हाव-भाव, रहन- सहन, बोल-चाल तथा क्रियाकलाप सब उसी क्षेत्र के होते हैं।

राम या राम कथा की एक अन्य विशेषता यह है कि लोक गीत या कथा किसी भी देवता की हो, उसमें अंत में "राम" अवश्य आता है। सभी संस्कार गीतों में बार-बार राम का उच्चारण किया जाता है और नहीं तो गीत के बोल का अंत राम से किया जाता है यथा एक विवाह गीतः
"चार चकुंटे फिरी आया, वर नजरी नी आयो राम
चार चकूटे च साधु तपस्वी, बैठी धूणियां लगाइयां राम।"

यदि कृष्ण गीत गाया जा रहा है तो उसका अंत भी "राम" से किया जाता है:

"संझां जे होईयां संझैला जे होईयां, कृष्ण घरे नहीं आया राम।"
या एक पंक्ति के साथ "श्याम" लगाया जाता है तो दूसरी के साथ "राम"।

प्रदेश में राम कथा के कई रूपांतर प्रचलित हैं। 'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता उक्ति यहां साकार रूप में देखने को मिलती है। जहां बालक के जन्म से संबंधित अधिकांश को मिलती है जुड़े हैं, वहीं किन्हीं गीतों में राम का भी गीत कृष्ण से जुड़े बिलासपुर का एक लोकगीत देखिए: "चैत्र वानणियां रातीं, अवधपुरी जन्मेया राम जी बैर काहीसे पीहड़ा पलंपूड़ा, काहे री तेरी बणी ओ कटोरी काहे की गुड़ सत्त घोली, मेरे राम जी... चैत्र महीने...।"

कई लोकगीत, कई लोक गाथाएं यहां प्रचलित हैं जो रामकथा को प्रदर्शित करती हैं। रामचरित मानस के अतिरिक्त इन कथाओं में राम कथा अपने अपने ढंग से बखानी गई है। प्रदेश में यूं तो शिव-शक्ति का प्राधान्य बखानी है। आदि देव शिव कैलासवासी हैं। एक ओर तो भरमौर में कैलास हे तो दूसरी और किन्नौर में। उधर कांगड़ा, बिलासपुर, उना में प्रसिद्ध शक्तिपीठ हैं। इस सब बावजूद रामपूजा का भी कम महत्व नहीं है। राम के को लक्ष्मीनारायण के रूप में भी पूजा जाता है। चम्बा का लक्ष्मीनारायण मंदिर प्रसिद्ध है।

राम पूजा के मण्डी तथा कुल्लू, दो जीवन्त उदाहरण हैं। कुल्लू में राजा जगत सिंहः १६३७-१६६२: के समय देव शिरोमणि रघुनाथ जी का आगमन हुआ। इससे पूर्व शैव सम्प्रदाय के नाथ ही राजाओं के गुरु थे। राजा जगत के समय रघुनाथ जी की मूर्ति अयोध्या से लाई। राजा छड़ीबरदार बना और राज्य रघुनाथ जी को सौंपा।

प्रसिद्ध कुल्लू में दशहरे के साथ साथ जलविहार, वनविहार, बसंत पंचमी व होली के त्यौहार मनाए जाने लगे। होली यद्यपि श्रीकृष्ण से संबंधित है। कुल्लू में होली को भी रघुनाथ के गीत गाए जाते हैं। यहाँ "रघुनंदन के संग होरी" मनाई जाती है। इसी तरह लगभग एक ही समय में राजा सूरज सेन के समय (१६३७) मंडी में भी "माधोराव" की मान्यता हुई। इससे पूर्व राजा शैव थे और शिवरात्रि का उत्सव मनाया जाता था। कहा जाता है राजा सूरज सेन के अठारह पुत्र हुए जिनमें कोई जीवित नहीं बचा। राजा है। उत्तराधिकारी के रूप में माधोराव की प्रतिमा बनाई और कुल्लू की भांति राज्य इसे सौंप दिया। राज्य के देवता कुल्लू की भांति शिवरात्रि उत्सव में पहले माधोराव के पास हाजिरी देने लगे। यह प्रतिमा स्वर्णकार भीमा द्वारा इस पर खुदे लेख के अनुसार वि. १७६५ की मानी जाती है। इस तरह इन दोनों राज्यों में रघुनाथ से संबंधित पर्व मनाए जाते रहे।

"उधर चम्बा के राजा भी शैव थे। भरमौर का शिव मंदिर और चौरासी सिद्धों की कथा इसका प्रमाण है। राजा साहिल वर्मन द्वारा (९२०-२४०) राजधानी भरमौर या ब्रह्मपुर में बदल कर चम्बा में स्थापित की गई। गजेटियर में उल्लेख है कि राजा ने अपने पुत्रों को विष्णु प्रतिमा बनाने के लिए विंध्याचल भेजा। इन्हें लुटेरों ने मार दिया। अंत में युगाकरवर्मन सन्यासियों की सहायता से लुटेरों को मार संगमरमर लाने में सफल हुआ और राजा साहिल वर्मन ने विष्णु प्रतिमा बनवा कर लक्ष्मीनारायण मंदिर बनवाया। यहां मिंजर महोत्सव मनाया जाने लगा जिसमें रघुनाथजी की प्रतिमा पालकी में रख कर शोभा यात्रा निकाली जाती है। इस प्रकार हिमाचल प्रदेश में ऐतिहासिक और लोक दोनों ही प्रकार से राम तथा राम कथा का महत्व है। लोक मानस में राम उसी तरह समाए हैं जैसे उनके जीवन और जीवन पद्धति का अभिन्न अंग हों।

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- सुदर्शन वशिष्ठ
(संदर्भ - साहित्य परिक्रमा - जनवरी २०१२ - भाव रुप राम )

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