आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्। वैदीहीहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्।।
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्। पश्चाद् रावण कुम्भकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम्।।
ओड़िसा में भक्ति आन्दोलन और ओड़िआ साहित्य में रामकथा की एक प्राचीन परंपरा है। धर्मनिष्ठ उत्कलियों के साथ रामकथा का संबंध अत्यन्त घनिष्ठ और अभिन्न दिखाई देता है। पन्द्रहवीं शताब्दी के ओड़िआ प्रतिनिधि कवियों में सारलादास का महत्वपूर्ण स्थान है। आपने सबसे पहले ओड़िआ साहित्य में महाभारत के साथ-साथ रामकथा को स्थान दिया था। आपकी विशिष्ट कृति 'सारला महाभारत' की एक अलग पहचान है। यद्यपि है। आपने संस्कृत के 'अद्भुत रामायण' के आधार पर 'विलंका रामायण' लिखी है फिर भी इसमें आपकी मौलिक प्रतिभा का परिचय मिलता है। सारलादास शक्ति के उपासक थे। इसलिए उन्होंने 'विलंका रामायण' में माता सीता को अद्भुत शक्ति और वीरता का वर्णन किया है। लंकापुरी के दक्षिण में सौ योजन की दूरी पर विलंका नगरी के राजा हैं सहस्त्र स्कन्ध रावण। उसके अन्याय और अत्याचार से सारा संसार भयभीत रहता है। तब स्वर्ग में देवताओं के बीच इस पर काफी चर्चा होती है। यमराज भी संत्रस्त होकर इस दुष्ट के निधन के लिए ब्रह्म से अनुरोध करते हैं। ब्रह्मा के मुख से 'विलंका अधिपति रावण का वध केवल श्रीराम से संभव है' ऐसी बात सुनकर देवता लोग राम के पास जाकर गुहार करते हैं। तब श्रीराम लोक कल्याणार्थ रावण के साथ युद्ध करते हैं। युद्ध स्थल में राम, लक्ष्मण और हनुमान आदि को बार-बार पराजय स्वीकार करना पड़ती है। अंत में सीता मंगलादेवी से के वेश में धनुष और पंचवाण लेकर मोहिनी कन्या स्थल में पहुँचती है। कवि के शब्दों में-
"नव जउवनदेवी देलेक देखाइ
पंचुशर वाण गुण रे बसाइ
धनुमंत्र पढ़ि जनक कुमारी
असुर उपरकु विंधिले शर धरि।"
माता सीता के इशारे से प्रभु श्रीराम कामातुर रावण पर वाण चलाकर उसके समस्त सिर काट देते हैं। विलंका रावण की मृत्यु के बाद संसार में शान्ति स्थापित होती है। वस्तुतः सारलादास की 'विलंका रामायण' में इस कुछ ऐसी कथाएँ वर्णित हैं जो रामकथा की परंपरा अलग महत्व रखती हैं। लक्ष्मण के द्वारा सूर्पणखा के पुत्र का वध, हनुमान का रुद्रावतार, ब्रह्मा के शौर्य से वाल्मीकि उत्पत्ति जैसी कथाओं को इस संदर्भ में लिया जा सकता है।
ओड़िआ साहित्य में रामकथा को आगे बढ़ाने है कवि बलराम दास की महत्वपूर्ण भूमिका है। उन्हें उत्कल के वाल्मीकि कहा जाता है। सोलहवीं शताब्दी में ओड़िसा में पाँच महापुरूषों का आविर्भाव हुआ था। ये हैं बलराम दास, जगन्नाथ दास, अनन्त दास, यशोवन्त दास और अय्युतानंद दास। इन्हें पंचसखा कहा जाता है। बलराम दास ने हिंदी के 'रामचरित मानस' और तमिल की' 'कंबु रामायण' की भाँति ओड़िआ भाषा में 'जगमोहन रामायण' लिखा था। उन्होंने महाप्रभु श्री जगन्नाथ जी के आदेश पर इस ग्रंथ की रचना की थी। उनकी निम्नलिखित उक्ति से यह स्पष्ट होता है।
"श्री जगमोहन एहि रामायण ग्रंथ
एथिरे कवि ये नीलगिरि जगन्नाथ।"
बलराम दास और गोस्वामी तुलसीदास दोनों समकालीन हैं। तुलसीदास ने व्यावहारिक और आध्यात्मिक दृष्टि से जहाँ रामकथा को रामचरित मानस कहा है वहीं बलराम दास ने अपने आराध्य प्रभु श्री जगन्नाथ जो के नाम से इसे जगमोहन रामायण कहा है। ओड़िआ के कुछ समीक्षकों ने इसे 'दांडी रामायण' कहा है। 'जगमोहन रामायण' की विषय वस्तु मूल रामायण से मौलिक प्रतिभा का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। इस रामायण में ओड़िसा के लोगो की ह्वदय की बात की है।
ईसमें वर्णित राम और सीता सुदूर अयोध्यापुरी के निवासी नहि बल्कि ओड़िसा के बताये है। इसकी पूरी कथावस्तु शिव-पार्वती के संवाद के रस में प्रस्तुत की गई हैं। ओड़िसा में अभी तक यह ग्रंथ अपने ढंग का बेजोड़ रामायण है। इसमें वर्णित ऋश्थश्रृंग जन्म चरित, अगस्त्य भारत, शिवधनु तोड़ने के लिए वाणासुर, रावण तथा इन्द्र आदि की विफल चेष्टा जैसे कई प्रसंग वाल्मीकि रामायण ते स्वतन्त्र जान पड़ते हैं। सिर्फ इतना ही नहीं कवि बलराम राम ने रामायण की कुछ घटनाओं को ओड़िसा प्रांत में समाहित होने का वर्णन किया है। श्रीराम के वानर सेनापतियों का जन्मस्थान ओड़िसा के कोणार्क, धवलगिरि, विरजा क्षेत्र याजपुर को माना गया है। राजा दशरथ की चौथी रानी ओड़िसा के याजपुर नगर की थी। उसका नाम लीलावती था। वह शत्रुघ्न को अपना पुत्र मानती थी तथा स्तनपान कराती थी। बलराम दास ने ओड़िसा के दंडकारण्य, महेन्द्र गिरि, रामगिरि आदि को राम से संबंधित माना है। श्रीराम के वनवास के समय जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को क्रमशः राम, लक्ष्मण और सुभद्रा माना है और उन्हें श्रीक्षेत्र (पुरी) में घुमाया है। इस प्रकार उत्कल वाल्मीकि बलराम दास ने रामायण की विषय वस्तु के साथ उत्कलीय हिंदू समाज की जीवनशैली, वेशभूषा, चाल चलन आदि का विस्तृत वर्णन किया है। भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से राम साहित्य में जगमोहन रामायण का एक अलग वैशिष्ट्य है।
सोलहवीं शताब्दी में नीलाम्बर दास द्वारा लिखी गई 'टिका रामायण' में विषय वस्तु की दष्टि से कुछ भिन्नता पाई जाती है इसमें रावण की कथा, लव-कुश युद्ध जैसे नवीन प्रसंगो की अवतारणा की गई है। ओड़िसा साहित्य में पंचसखा युग के बाद काव्य युग के कवियों में कवि अर्जन दास द्वारा लिखे गये 'राम विभा' काव्य को पहला गेय काव्य माना जाता है। इसमें रामभक्ति का चरम निदर्शन है। इस काव्य में राम के विश्वामित्र ऋषि के साथ यज्ञ रक्षा के लिए वन गमन, वहीं से जनकपुरी जाकर जानकी से विवाह करना और अंत में अयोध्या प्रत्यावर्तन तक की सारी घटना केवल बारह छन्दों में वर्णित है। रामकाव्य की परंपरा में सत्रहवीं सदी में घुमसर के राजा भंज द्वारा लिखा गाया महाकाव्य - रघुनाथ विलास एक स्वतन्त्र स्थान का अधिकारी अधिकारी है। ईसमें प्रभु श्रीरामचंद्र की अभूतपूर्व महिमा का वर्णन है।
आगे चलकर सत्रहवीं सदी के मध्य भाग के ओड़िआ कवियों में कवि सम्राट उपेन्द्र भंज ने 'वैदेहीश विलास', 'रामलीलामृत', 'अवना रस तरंग' जैसे ग्रंथों की रचना कर राम साहित्य के विकास में चरम उत्कर्षता ला दी। वस्तुतः ओड़िआ राम साहित्य में 'वैदेहीश विलास' काव्य एक अभिनव सृष्टि है। इस काव्य की हर पंक्ति का प्रारंभ 'ब' अक्षर से शुरु होता है। उदाहरण के तौर पर-
"बधिर नुहड़ वीर बोइला तहुँ धीबर
शुणिलिणि पथरे पथर अबका,
बालि पड़ि तो चरण स आशंका उपुजे एणु
नउका नायिका हेले बुड़िव भेका
वृत्ति ए मो पोषे कुटुंब ।।
बसाइ न देवि नावे न धोड़ पाद।।"
श्रीराम जी को वन गमन करते समय रास्ते में गंगा नदी पार करना पड़ता है। नदी में केवट नाव पर बैठा था। श्रीराम जब केवट से गंगा नदी पार करने को कहते हैं तब केवट कहता है- "हे वीर! मैं बहरा नहीं हूँ। रास्ते में आते समय तुम्हारे चरणों में लगी हुई बालू के स्पर्श से पत्थर अबला बन जाने की बात मैंने सुनी है। इसलिए मेरे मन में शंका है। यदि मेरी नाव तुम्हारे चरणों के स्पर्श से नारी का रूप धारण करेगी तो मेरी कैसी दशा होगी। मेरा सहारा डूब जाएगा। यह मेरी वृत्ति है 'इसी से मैं परिवार पोषण' करता हूँ। इसलिए मैं तुम्हारे चरणों को धोये बिना नाव पर बैठने नहीं दूँगा।" अनुरूप पद 'रामचरित मानस' में देखने को मिलता है।
"माँगी नाव न केवट आना। कहै तुम्हार मरम मैं जाना।
चरन कमल रज कहँ सबु कहई। मानुष करनि मूरि कछु अहई ।।
छुवत सिला भड़ नारि सुहाई। पाहन में न काठ कठिनाई।।
तरनिउँ मुनिधरनी होड़ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई ।।
एहि प्रतिपाली सब परिवारू। नहि जानी कए और कथारू ।।
जी प्रभु पार अवसि गा चहरू। मोहि पदपदुम पखारन कहहू।।"
'वैदेहोश विलास' और 'रामचरित मानस' से दिये गये उपर्युक्त दो पदों में भाव साम्य होते हुए ही 'वैदेहोश विलास' के इस पद में भाषा और शैली की दृष्टि से अभिनवता है। वस्तुतः रामकाव्य की परंपरा में विलास को केवल ओडिआ साहित्य में नहीं बल्कि भारतीय साहित्य में एक अलग पहचान है। इसमें प्रभु श्रीरामचंद्र जी की अभूतपूर्व महिमा को सरल और सुबोध्य भाषा में वर्णन किया गया है। इसी युग में प्रख्यात रामोपासक कवि विश्वनाथ खुटिआ से लिखे गये छंदोबद्ध काव्य 'विचित्र रामायण' को बड़ा आदर मिला है। विषयवस्तु की उपस्थापना शैली, भाषा आदि की दृष्टि से इसका महत्व है।
आधुनिक ओड़िआ साहित्य में कई कवियों ने रामकथा को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। कविवर राधानाथ राय, व्यासकवि फकीर मोहन, भक्त कवि मधुसूदन राव जैसे प्रख्यात कवियों ने रामकथा से संबंधित मौलिक और अनुदित रचनाओं से ओड़िआ साहित्य को समृद्ध किया है। नंद किशोर बल का 'सौता वनवास' और गंगाधर मेहेर का 'तपस्विनी' काव्य रामकथा के आधार पर लिखे गये उच्चकोटि के काव्य माने जाते हैं। 'तपस्विनी' काव्य की मूल वस्तु को कवि ने यद्यपि 'रामायण', 'रघुवंश' और 'उत्तर रामचरित' से लिया है, फिर भी इसमें कवि की मौलिकता भरपूर है। इस काव्य को उपजीव्य विषयवस्तु निर्वासित सीता के त्यागपूत जीवन की करुण कहानी है। इस काव्य में सीता ही तपस्विनी हैं। तपस्विनी सीता के चरित्र पर काव्य का नामकरण हुआ है। पूरे काव्य में आदर्श पति, आदर्श पत्नी, आदर्श गृहिणी, आदर्श नारी, आदर्श माता, आदर्श भ्राता आदि का चरित्र चित्रित है। खासकर आलोच्य काव्य में वर्णित सीता का चरित्र अत्यंत हृदयस्पर्शी है। भारतीय नारी शांति, प्रीति, ममता और सतीत्व की मूर्तिमयी प्रतीक है। कवि गंगाधर ने सीता के चरित्र में इन सारे गुणों को दिखाया है। पति देव राम के द्वारा निर्वासिता होने पर भी सीता के मन में विरोध-भाव उत्पन्न नहीं होता। बल्कि अंत तक उनके मन में आराध्य पतिदेव श्रीराम जी के प्रति अटूट भक्ति बनी है। निर्वासिता सीता कहती है- "मो कर्म पाइँ दोषी नुहंति विधि कांत त स्वभावे मो करुणा निधि ।।"
कवि गंगाधर ने श्री रामचंद्र के त्यागपूत आदर्श जीवन का बखूबी चित्रण किया है। एक पत्नी व्रत भारतीय संपूर्ण संस्कृति का आदर्श है, कवि ने श्रीराम के जीवन में इमे दिखाया है। वे दयालु हैं। वीरता के प्रतीक हैं। कवि शब्दों में- "शरण-वत्सल-ध्वज-रिपु राजांकुश, दुःख-गिरि-बज्र जहिं देखन्ति विदुष।"
रामचंद्र प्रजानुरंजन के लिए सीता का निर्वासन करते हैं, परन्तु सीता के प्रति उनके मन में अटूट ममता है। यह निर्वासन उनके लिए असह्य हो जाता है। वे दुःख में व्याकुल हो उठते हैं। कवि ने इसे बड़ी मार्मिकता से स्पष्ट किया है- "नयन युगल काहिंकि विकल होइ छाडुअछि जल,
शुखिगले सर कमलिनी मोर
होइजिब टलमल।"
सांप्रतिक काल के ओड़िआ साहित्य की विविध विधाओं में रामायण की विविध घटनाओं की उपस्थापना की जा रही है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के उदात्त चरित्र का चित्रण किया जा रहा है। सीताकांत महापात्र जैसे प्रख्यात ओड़िआ कवि ने भी रामायण के कुछ चरित्रों को लेकर आधुनिक ओड़िआ कविता में प्रतीक के रूप में स्थान दिया है। इस प्रकार देखा जाय तो ओड़िआ साहित्य में प्राचीनकाल से लेकर आज तक रामकथा की एक अटूट परंपरा है।
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- डॉ. विजय कुमार महांति
(संदर्भ - साहित्य परिक्रमा - जनवरी २०१२ - भाव रुप राम )
पॉडकास्ट प्लेलिस्ट : रामायण दर्शन
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