आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्। वैदीहीहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्।।
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्। पश्चाद् रावण कुम्भकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम्।।
भगीरथ तपस्या के फलस्वरूप धरती पर अवतीर्ण मंदाकिनी भूतल के पर्वतों, जंगलों, मैदानों, गांवों, शहरों का स्पर्श करती हुई आखिर सागर में मिलती है। इसी प्रकार यह रामकथा-मंदाकिनी व्यक्तियों, देशों और भिन्न-भिन्न समाजों के दुष्ट विचारों-समस्याओं के जंगलों से आगे बढ़कर कालानुसार परिस्थिति जन्य परिवर्तनों के पहाड़ों के बीच सुख-दुःख के उतार-चढ़ाव से, यन्त्रिक ढंग से चलायमान काल रूपी मैदानों से बहकर हर दशा में दिशा में मानवसमूह को प्रभावित करती ही रहेगी।
राम विग्रहवान (मूर्तिमान) धर्म हैं। राम जीवन में घटित सुख और क्लेश सब सहते हुए प्रतिकूल स्थिति में भी धीरता से धर्म पर अड़िग रहे। उनका महोनत व्यक्तित्व पग-पग पर मार्ग-निर्देश करने वाला तेजःपुंज है। चाहे कितने ही हजार वर्ष बीत गये हों, चाहे मनुष्य ने कई क्षेत्रों में बहुत बड़ी तरक्की प्राप्त की हो, रामायण आज भी प्रासंगिक है। राम मन-मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान ही नहीं, बल्कि कष्ट-परंपरा में फँसी मानवालि को हाथ का सहारा देकर आगे ले चलने वाले नेता भी हैं। आज का युग वेदयुग नहीं है। आधुनिक मनुष्य के पास श्रुति-स्मृति पढ़ने की फुरसत नहीं है। पढ़ने-समझने के लिए आवश्यक पांडित्य भी नहीं है। लेकिन रामायण रूप में अवतरित वेद और उसका परमार्थ सभी भारतीयों ने ग्रहण किया।
ग्रामीणों के लिए सीता-राम-माँ-बाप हैं। आचार्य बिरुदुराजु रामराजु के शब्दों में "सुख हो अथवा दुःख, राम-नाम-स्मरण के सिवा हमारे लिए दूसरा क्या है? चरण-तल में कांटा गड़ने से और हथेली पर वैकुण्ठ मिलने से रामचन्द्र जी जिह्वाग्र पर घर कर लेते हैं। पूरे भारत में यह आम बात है। रामायण कथा का असीम प्रभाव आन्ध्र ग्रामवासियों पर है। वनवास के दौरान सीता- राम ने कुछ दिन गोदावरी तट पर निवास किया। माना जाता है। कि पर्णशाला के प्रांगण में लगाये गये चेल-पौधों को देने के लिए राम-लक्ष्मण जल से आये। तब सीता माता ने पानी डालकर थांवला बना दिया। उस समय इन तीनों का वार्तालाप गोदावरी-माता ने अपने हृदय में निक्षिप्त किया। तब से लेकर अब तक गोदावरी को झरङ्गा ध्वनि सुन रहे देहातियों को जितने रामायण-रहस्य जात है, संभवतः उतने औरों को मालूम नहीं। उनके मुँह रामायण की शाखा प्रशाखाएँ फूट निकलीं।
ग्रामीणों ने सीता-राम के साथ तादात्म्य की स्थिति प्राप्त की। इस जनता के लिए सीता राम अवतार-पुरुष नहीं हैं। इनका अपना जीवन ही सीता-राम का जीवन है। अपने दुःख-सुख को उस पुराण-दम्पति के के सुख-दुख है रूप में कल्पित करके इन लोगों ने तल्लीनता का अनुभव किया। इनकी भावना है कि अपने दैनंदिन जीवन को प्रत्येक रेखा, हर एक कंपन और प्रत्येक विश्वास सीता- राम के हैं।
मुद्रित लोकरामायण ही बहुत हैं। बाकी जो छपे नहीं, केवल जनता की जीभ पर नाचने वाले ऐसे लोकगीत पता नहीं, कितने और हैं। कृचकोंड रामायण, शारद रामायण, धर्मपुरि रामायण रामकथा सुधार्णव, मोक्षगुण्डरामायण, अध्यात्मरामायण, चिट्टि रामायण, वा सूक्ष्मरामायण, संक्षेपरामायण, श्रीरामदंडक, लंकासारधि, रामायणगोब्विपाट, श्रीरामजाविलि, अडवि गोविंदनामालु, शांत गोविन्दनामालु, पेंड्लि गोविंदनामालु, सेतु गोविन्दनामालु आदि में पूर्णतः या संक्षेप में रामकथा वर्णित हुई। शांता कल्याणमु, पुत्रकामेष्टि, श्रीरामजननमु, राघवकल्याणम्, सुंदरकाण्ड पदं, ऋषिआश्रम, सुग्रीव विजयमु, अंगदरायबारमु, लक्ष्मणमूर्छा, श्रीराम पट्टाभिषेकमु, लक्ष्मणदेवर नव्वु, ऊर्मिलादेवि निद्र, कुशलवयुद्धमु आदि रामकथा के कुछ भागों पर आधारित हैं।
ऐसे लोकगीत बहुत सारे हैं जिनमें सीता - माता वण्य विषय है। सीता-माता के सुख-दुख लोंगे के जीवन में अंकित हैं। सिर्फ एक सीता के बारे में ही अनेक में अंक में प्रचलित हैं। ये सब गांवों में प्रचार में हैं। यदि कहें तो अत्युक्त नहीं इतना विषय - वैविध्य पंडितकविकृत रामायण में नहीं मिलता। परिनिष्ठित साहित्यिक शैली में रचित रामायणों पर शिक्षित लोगों का जितना विश्वास है, उतना ही विश्वास लोकप्रचलित रामगाथाओं पर देहातियों का है।
रंगनाथ, भास्कर, गोपीनाथ आदि रामायणों में कई अवाल्मीकीय अंश हैं। निश्चित रूप से कहना कठिन है कि इन रामायणकारों ने सामान्य जनता से उपर्युक्त अंश रहण किये किंवा उक्त रामायणों से ग्रामीणों ने ग्रहण किये। यह मानना समीचीन होगा कि एक वर्ग से दूसरे वर्ग ने परस्पर विनिमय किया होगा। प्रथम तेलुगु रामायण रंगनाथरामायण में जो वाल्मीकीय अंश हैं, उनसे चौगुनी गाथाएं ग्रामगीतों में हैं।
कुशलव कुच्चल चरित्रः
यह लम्बा कथागीत है। दशरथ के राज्यपालन से सीतादेवी के भूगर्भ प्रवेश की कथा इसमें है। इसकी कुछ कल्पनाएँ इस प्रकार हैं। रावण वध के बाद सीता-राम अयोध्या पहुँच गये। सीता देवी ने पुरस्त्रियों से जो बातचीत हो की है, वह नारी-स्वभाव के अनुरूप है और इसलिए निसर्ग रमणीय है। सीता-माता उन स्त्रियों से कुशल-मंगल पूछती हैं- "बहनो! जब मैं जंगलों में थी, तब तुम लोग मुझे याद करती थीं या भूल गयीं। हे कांता ! तुम्हारी छोटी वाली बिटिया तब बहुत छोटी थी। अरे, अब तीन बच्चों की माँ बन गयी? कम से कम कल तो मेरे पास ले आओ"। उन स्त्रियों ने सीता जी की सराहना इस प्रकार की- "यह देवी चौदह बरस जंगलों में घूम- घूम-घूम कर यहाँ वापस आयी। हम सबको भूली नहीं।"
एक दिन सीता ननद शांता से बात कर रही थी। * बार-बार बुलाने पर भी राम के पास नहीं गयी। राम नाराज हो गये। लक्ष्मण से अपने धनुष बाण मंगाकर उनको दासियों के रूप में बदल दिया। जब वे परिचारिकाएँ राम की सेवा कर रही थीं, वहाँ सीता गयी। सीता ने राम से कहा- "मेरे पिता जी ने मुझे आपके हाथों में दिया, यह समझ करके कि आप परनारीविमुख हैं। आपकी परनारीविमुखता इस तरह प्रकट हुई।" सीता के वचन सुनकर ऐक दासी कहती है- जानकी, तुम अब कहाँ से आयी हो ? राम के साथ हम हमेशा रही है। जंगल कहाँ से से तुम दूर हो गयी। राम तब हमारे साथ प्रसन्नता से रहें हैं। तुम कहाँ की हो सीता?" शांता घटना स्थल पर आयी । सारी बात समझ गयी। पति-पत्नी की संधि करायी। यह कल्पना नारी- मनोविज्ञान को रमणीय ढंग से प्रदर्शित करती है।
हम सब जानते हैं कि राम ने पूर्ण गर्भिणी पत्नी का परित्याग किया। वाल्मीकि रामायण से लेकर लगभग सभी रामायणों में इसका कारण लोकनिंदा बताया गया है। भवभूति के उत्तररामचरित में राम से अनुभूत दारुण दुःख करुणरसात्मक ढंग से चित्रित हुआ है। ग्रामीणों ने इसका एक अद्भुत कारण बताया। यह प्रसंग- मानव मानसिकता और लोक-स्वभाव को उजागर करता है।
राम रावण युद्ध में कई लोग मर गये। लेकिन ईर्ष्यालु शूर्पणखा बची रही। नाक कान कटने के बाद भी राम पर उसका मोह कम नहीं हुआ। सीता को अपने मार्ग की अड़चन मानकर शूर्पणखा संन्यासिन बनकर अयोध्या पहुँची। राम-लक्ष्मण के दर्शन करके अपनी इन्द्रजाल- विद्या को उनके सामने प्रदर्शित किया। राम आखेट के लिए वन जाने की जल्दी में था। लक्ष्मण के मना करने पर भी राम ने आदेश दिया, इस सन्यासिन को शान्ता और सीता के पास ले जाओ। अन्तःपुर में मायावी सन्यासिन का स्वागत सत्कार किया गया। शान्ता को यह अच्छा नहीं लगा। सीताजी ने तो रत्न, माणिक, सोने की रेशमी साड़ियाँ, गहने आदि देकर उस मायाविनी का सत्कार किया। सन्यासिन ने इन अमूल्य रत्नों और वस्त्रों का उपहार ठुकरा दिया। उसने सीता से मांगा कि रावण का चित्र बनाकर दोगी तो मैं इस दुनियाँ में जीवित रहूँगी। "सीता जी का दिल दहल उठा। समझ में नहीं आया कि ऐसी विपरीत इच्छा क्यों। अन्तःपुर की अंगनाओं का दबाव बढ़ने लगा। सीता ने कहा- "मैं दस महीना बन्दी रही, लेकिन उस पापकर्मी को आंखों से देखा नहीं। उसको पिता- तुल्य समझा। उसके पैर का अंगूठा मात्र जानती हूँ" सीता को वह अंगूठा चित्रित करके देना पड़ा। शूर्पणखा ब्रह्मा के पास गयी, मिन्नत की "भैया मरके छः महीना हुआ। तब से भैया को देखा नहीं। भैया के बदले इसी को देखती रहूँगी। इसे आयुष्य दें।" ब्रह्मा ने उसका रोना सच्चा समझा (झूठ-मूठ का नहीं)। चित्रपट में प्राण डाले।
शूर्पणखा चित्र को अयोध्या में छोड़कर चली गयी। वह चित्रपट जानकी के सामने खड़ा होकर - अरी, आओ,लंका चलेंगे। सीता को पकड़कर आफत मचायी। उसे को पकड़ के खींचने लगा।" अतःपुर की स्रीयों ने उसे कुएं में डाल दिया, ऊपर पत्थर रख भी कोई फायदा नहि हुआ। तंग आकर सीता जी रामी कि कसम खाकर को चित्रपट पलंग पर गद्दे के नीचे दबाके रखा। किसी ने राम को यह बात नहीं बतायी। रात में राम पलंग पर बैठकर सीता से सरस वार्तालाप करने लगे। चित्रपट ने राम को नीचे धकेल दिया। राम विस्मित होकर सीता से पूछते हैं "प्रियाएँ हंसती है, खेलती हैं, गाती हैं, धकेलना कोई मजाक है?" तब रावण का चित्रपट राम के सामने आ खड़ा हुआ। राम ने सीता पर संदेह किया। फिर सीता जी को वनवास करना पड़ा। ग्रामीणों ने सीता-परित्याग का यह कारण कल्पित किया। कहते हैं कि ऐसी कल्पनाएँ जैन रामायणों, बंगाली रामायणों और तमिल ग्रामगीतों में हैं।
लंकायागमु :
यह गीत बहुल-प्रचार में हैं। वनगमन के समय लक्ष्मण भी राम के साथ जाने को तैयार हो गये। सुमित्रा ने आशीर्वाद देकर लक्ष्मण से कहा "लखमन! राम को पिता और सीता को माता समझो। सुबह-सुबह उठकर भाभी के चरणों को प्रणाम करो। बगीचे के फल लाकर दोने में भेंट रूप में दे दो। चौदह साल बीत जाने पर तुम लोग हम से मिलने आओ।" कौशल्या ने राम से कहा कि वह भी वन चलेगी। किन्तु सुमित्रा पुत्र वियोग के लिए तैयार हुई और आशीर्वाद दिया। भाई और भाभी की सेवा का परामर्श दिया। यहाँ सुमित्रा का धीर-शांत गुण प्रमुख है। वास्तव में यह भाव वाल्मीकि रामायण में है, यथा-
"रामं दशरथं विद्धि, मां विद्धि जनकात्मजाम्।
अयोध्याम् अटवीं विद्धि, गच्छ तात यथासुखम्।।"
इस गाथागीत में रावणकृत पातालहोम की योजना है जो वाल्मीकि रामायण में नहीं है।
पुत्रकामेष्टि :
यद्यपि गीत का नाम पुत्रेष्टि (यज्ञ) है, तो भी राम आदि भाइयों के विवाह तक की कथा इसमें है। इसमें धनुर्भग के पहले ही राम सीता से मायावेष में मिलते हैं। सीता फूल तोड़ने फुलवारी जाती है। वह है, योगी को पूजा करके पूछती हैं कि योगी किसके शिष्य हैं, राजा को तेजस्विता से युक्त होकर इस छोटी अवस्था में ही संन्यासी क्यों बने। योगी रूप में राम सीता के भवि पति बनेंगे। अन्त में अपने को सही-सही प्रकर करते हैं। कालिदास के कुमारसंभव में भगवान शिव मुनिब्रह्मचारी वेष में आकर पार्वती से बात करते हैं। इसे प्रकार सीता राम का विवाहपूर्व प्रणय-प्रसंग इस लोकगीत भास के यज्ञफल नाटक में, तमिल के कंबरामायण और रामचरितमानस में संयोजित है, जो वाल्मीकिरामायण में, में नहीं है।
ऊर्मिलादेवी की निद्रा
वनवास के बाद भी लक्ष्मण बड़े भाई साहब को सेवा में लगा रहा। बहन ऊर्मिला का मन जानने वाली सीत ने राम से लक्ष्मण को अनुमति दिलाई। लक्ष्मण देर किये बिना तुरन्त शयन-गृह में पहुँचा। लंबे अन्तराल के बाद आने के लिए क्षमा मांगे बिना शय्या पर बैठकर ऊर्मिला से बोलने लगा, "भामिनी ! चांद तुम्हारे प्यारे मुख का सेवन करना चाहता है।" चौदहों बरस निद्रा के लिए ही अभ्यस्त ऊर्मिला मूंदी आंखें खोले बिना पड़ी रही। उसको लगा कि कोई परपुरुष आया है। ऊर्मिला इस प्रकार मना करती है-
"भैया! तुम कौन हो ? इतना जुल्म करने आये।
गली गली ढूंढते हुए इतनी गलती करने आये।
सब की आंख बचाकर एकान्त में आये।
हमारे जनक सुनेंगे तो तुम्हारी खबर लेंगे।
दीदी और जीजा सुनेंगे तो तुम्हारी जान निकालेंगे।
बहन और देवर सुनेंगे तो तुमको जीने नहीं देगे।"
यहाँ ऊर्मिला की लज्जा और सौशील्य अभिव्यक्त
हुए हैं। वह परेशान हो गयी की ऐसी दुर्गति हुई।
"इज्जतदार खानदान में धब्बा लगा, हाय मैं क्या, करूँ?
यशस्वी वंश को अपयश मिला, अब मैं क्या करूँ?"
ऊर्मिला बताती हैं कि, परनारी को चाहने से रावण, देवेन्द्र और कीचक (विराट का साला) कैसे मटियामेट हुए। वह फटकारती है- मेरी जैसी माँ तुम्हारी नहीं ? तुम साथ नहीं जनमे ?
एकान्त में पति, पत्नी के बालजाल में बेला फूल संवार रहे थे। तब वह पूछती है- -
"सिंहविक्रमी आपके रहते, सीता कैसे हर ली गयी?
राज्याधिपति आपके रहते सीता कैसे अपहृत हुई"
आमोद-प्रमोद की संयोग दशा में भी ऊर्मिला के हृदय में बहन की करुण कथा हिलने-डुलने लगी।
लक्ष्मणदेव की हँसी : -
अयोध्या लौट आने के बाद समस्त देवताओं के समक्ष सीता राम का पट्टाभिषेक (राजतिलक) समारोह संपन्न हुआ। भरी सभा में लक्ष्मण खिलखिला उठे। सभी सदस्य अपनी-अपनी गलतियाँ सोचकर कुम्हड़े के चोर की तरह कंधे टटोलने लगे। राम बेमतलब की हँसी समझकर नाराज हुए, तलवार निकालकर लक्ष्मण से पूछा, हँसी का कारण क्या है ? लक्ष्मण ने जवाब दिया- "भैया ! वनवास के समय निद्रा मेरे पास आयी। मैंने कहा, तुम अभी अयोध्या जाओ और राम के राजतिलक के बाद मेरे निकट आओ। एक क्षण भी देर नहीं करके मुझ पर सवार हुई। इसलिए मुझे हँसी आयी।" राम का दिल पानी-पानी हो गया। राम, सोते हुए लक्ष्मण के पांव पलोटने लगे। गाढ़ी नींद में भी उठकर लक्ष्मण ने राम के चरण पकड़े।
ऐसे लोकगीत और कितने ही हैं। ऊर्मिला और लक्ष्मण की त्याग-निष्ठा और सेवाभावना की जो जयपताकाएँ आन्ध्र महिलाओं ने ऊपर उठायीं, वे दो लोकगीत हैं ऊर्मिला देवी की निद्रा और लक्ष्मणदेव की हँसी। प्रायः सभी रामायणकारों ने ऊर्मिला की उपेक्षा की। किन्तु आन्ध्र की देहाती स्त्रियाँ ऊर्मिला को नहीं भूलीं। सीता को तो रामकथा में अग्रस्थान दिया। किन्तु ऊर्मिला की अश्रुपूर्ण कहानी में भँवरजाल बनकर इन नारियों की आंखों में गोदावरियों की सृष्टि की। मैथिलीशरण जी का 'साकेत' और अन्य कवियों के ऊर्मिल काव्यों का बीज यही है।
ग्रामीणों ने रामायण और उसके प्रधान पात्रों के विषय में अपनी मानसिकता के अनुरूप और लोकव्यवहार के अनुसार ढेर सारी चमत्कारपूर्ण कल्पनाए की हैं। किसी भी कथागीत में वर्णनों की भरमार से प्रसंगों को घसीटा नहीं गया। सरलता, क्षिप्रता और लयात्मकता तेलुगु लोकगीतों की विशिष्टताएँ हैं।
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-डॉ. टी. वाणीकुमारी
(संदर्भ - साहित्य परिक्रमा - जनवरी २०१२ - भाव रुप राम )
पॉडकास्ट प्लेलिस्ट : रामायण दर्शन
The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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