Wednesday, 6 December 2017

विवेकानन्द कन्या भगिनी निवेदिता - 2

यतो धर्म: ततो जय:

29 मार्च, १८९८ का दिन मार्गरेट के जीवन में क्रान्ति लाने वाला सिद्ध हुअा। उस दिन उसे ब्रह्मचारिणी की प्रथम दीक्षा मिलने वाली थी। अाज तक के जीवन में पूर्णतया परिवर्तन लाने वाला था तथा नया ही जीवन उसके सामने था। जिसका चिन्तन बहुत दिनों तक चला, वह अज्ञात था परन्तु अाज वह वास्तव में परिणत होने वाला था।

दीक्षा विधि अन्यन्त सादगी वाली तथा छोटीसी थी। अाश्रम अभी बेलुड मठ में स्थापित नहीं हुअा था। नीलाम्बर उद्यान में ही अाश्रम था। वहां प्रातःकाल के प्रवित्र समय में सभी गुरु बन्धु सभामण्डप ध्यान मग्न बैठे हुए थे तथा मन्दिर के गर्भगृह में श्रीमती अोलीबुल व कुमारी मुल्लर के साथ मार्गरेट नोबल खडी थी। जैसे ही स्वामीजी वहाँ पधारे मार्गरेट ने उन्हें साष्टांग प्रणिपात किया। स्वामीजी ने अपनी नूतन शिष्या को अाशीर्वाद दिये तथा माथे पर विभूति लगाई। सभी के हृदय में ईश्वर भक्ति की उपासना मन्त्र स्पन्दित हो रहे थे।

इतने में सभा मण्डप से गम्भीर स्वर सुनाई देने लगे।

असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतंगमय। अाविराविर्म एधि।
रुद्र - यत्ते दक्षिणं मुखं तेन मां पाहि नित्यम् ।।

हे परमात्मन् , मुझे असत्य से सत्य की अोर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की अोर तथा मृत्य से अमृतत्व की अोर ले चलो। हे जगत् जननी शक्ति दो, हमारा सर्वस्व अापकी प्रेम सुधा से भर जाने दो। तुम्हारा अाश्रय हमें सदा प्राप्त होता रहे। अापकी कृपा सदा बरसती रहे।

एक ही प्रणिपात में मार्गरेट ने अपना जीवन गुरुचरणों में समर्पित कर दिया। जो सिर्फ चार शब्दों में व्यक्त होता है परन्तु उसको प्रत्यक्ष करने के लिये धैर्य, श्रद्धा, भक्ति भाव तथा ध्येयनिष्ठा अादि से मन को तैयार करने में बहुत दिन लग जाते हैं - वह अात्म समर्पण मार्गरेट ने अाज किया। अब उसका जीवन उसके लिये, उसके परिवार के लिये या उसके देश अायर्लैण्ड के लिये नहीं रहा। सुख लालसा, भोगतृष्णा अादि का अाज उसने गुरुचरणों में अर्पित किया था। अब उसका जीवन स्वामीजी के हाथ में था। जिस कुम्हार की माटी का कोई मूल्य नहीं रहता उसी तरह मार्गरेट का मूल्य मृतिका जैसा हो गया था।

सद्गुरु के अादेशानुसार हिन्दुत्व की सेवा करना ही उसका जीवन ध्येय हो गया था। एेसा करना ही उसकी उपासना थी अौर उसके माध्यम से परमेश्वर प्राप्ति के लिये साधना कारना ही उसका जीवन मार्ग था।

ब्रह्मचारिणी के अाश्रम में मार्गरेट ने प्रवेश किया था। अब पुराना सब समाप्त हो गया था। नाम भी समाप्त हो गया था। नया नाम धारण करना था। मार्गरेट के जन्म से पूर्व ही जब वह मां के गर्भ में थी तब ही उसकी मां ने उसे भगवत् चरणों में अर्पित कर दिया था। इससे स्वामीजी अनभिज्ञ थे। परन्तु परमेश्वर के चरणों में जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित किया था वह कन्या अाज स्वामीजी के समक्ष खडी थी। तब सहजता से ही स्वामीजी ने उसका नामकरण किया।  -  "निवेदिता"

स्वामीजी गर्भगृह से बाहर अा गये। साथ साथ निवेदिता तथा अन्य दो शिष्याएं भी बाहर अा गईंं। सभा मण्डप में उपस्थित संन्यासियों ने उन पर मंगलद्रव्य डाले। सभी में प्रसाद वितरित किया गया।

To be Continue


No comments:

Post a Comment