यतो धर्म: ततो जय:
उन दिनों भोजनोपरांत आराम के समय निवेदिता महिलाओं का सम्भाषण सुनकर उन्हें 'ये ऐसा क्यों' आदि प्रश्न पूछतीं। विश्राम के बाद माताजी, शहर से आयीं भक्त महिलाओं से मिलतीं। माताजी क्षुब्ध मनों को कभी स्पर्श करके, कभी उपदेश देकर तो कभी डाँट कर शांत करतीं। माताजी सभी को नाम स्मरण करने को कहतीं। सप्ताह में दो दिन पुरुष भक्तों को दर्शन देतीं। माताजी कठिन समस्या के मूल में जाकर उसका समाधान करतीं।योगिन माँ पुराणों की कहानियां सुनाया करतीं तथा लक्ष्मी दीदी अभिनय करतीं, निवेदिता भी उनमें सहभागी होती थीं। कभी वीणा लेकर कोई महिला भजन सुनाती। इस प्रकार माताजी के घर का वातावरण आमोदप्रिय रहता था। शंखनाद और घंटानाद की ध्वनि से संध्या पूजा शुरू होती। पंचारती करके प्रार्थना और स्तोत्र पाठ होता था। माताजी के मार्गदर्शन पर महिलाएँ तुलसी वृन्दावन के पास छत पर जप-ध्यान करने बैठती थीं।
निवेदिता में आत्मविश्वास निर्माण करने के लिए माताजी उन्हें अपने पास बिठाती। निवेदिता ने कहा है, -''माताजी के ध्यान में निमग्न होने पर माताजी के हृदय से एक प्रचंड ऊर्जाशक्ति का सर्वत्र संचार होता था और वहाँ उपस्थित सभी के हृदयों को स्पर्श करता था।'' स्वामीजी निवेदिता को अमरनाथ में जो आध्यात्मिक उपलब्धि देना चाहते थे, उसकी अनुभूति उन्हें वहाँ हो रही थी।
एक दिन सायंकाल में निवेदिता को प्रतीत हुआ कि उनके नयनों से आनंदाश्रु बह रहे हैं। अनिर्वचनीय प्रशांति में चित्त निस्पंद और निमग्न हुआ है। वे निर्वाक और निःस्पंद हो देवता का प्रकाश अनुभव करने लगी। ध्यान के कारण शरीर शिथिल और मन शांत हुआ। अतीव आनंद हृदय में उमड़ने लगा। इसका अनुभव उन्हें पहले कभी नहीं हुआ था। मन सुषुप्ति में लीन होकर शरीरबोध न रहा। चित्त एकाग्र करना उनके लिए सहज हो गया था।
इस प्रकार निवेदिता माताजी के साथ 15 दिन आनंदपूर्वक रहीं। निवेदिता का जीवन, हर एक श्वांस, क्रियाकलाप माताजी के साथ जुड़कर उनके चरणों में समर्पित हो गया था। एक दिन शाम को माताजी आसन से उठ रही थीं, तभी निवेदिता ने उनके चरणों पर सिर रखा। माताजी अपने हाथ बहुत देर तक निवेदिता के मस्तक पर रखे रहीं और आशीर्वाद देते हुए कहा, ''अब तुम्हारे कार्य का आरम्भ होने दो।''
निवेदिता माताजी के घर के सामने वाले मकान में 16 नंबर बोसपाड़ा लेन में रहने गयीं। स्वामी योगानंद महाराज की महासमाधि के बाद निवेदिता का हृदय दुःख से व्यथित हो गया- ''उन्हें लगने लगा कि अकेली हैं। क्या वह स्वामीजी की अपेक्षाओं को पूर्ण कर पाएगी?'' निवेदिता ने माताजी की गोदी में अपना सिर रखा। माताजी ने प्रेम से कहा, ''अपने गुरु के प्रति अपार प्रेम रखो। साधु पुरुषों के प्रति प्रेमभाव रखने से आत्मा का पुनरुत्थान होता है। यही भक्त का भगवान के प्रति दिव्य प्रेम है। शुद्ध प्रेम ही आत्मा का प्रकाश है। सुनो, मैंने अपने गुरु से (ठाकुर से) जैसा प्रेम किया था, वैसे तुम भी अपने गुरु स्वामीजी के प्रति प्रेमभाव रखो।''
13 नवम्बर, 1898 को कालीपूजा के दिन माताजी ने बालिका विद्यालय की प्रतिष्ठापना की। माताजी भक्तों को प्रोत्साहित करती थीं ताकि वे अपनी लड़कियों को विद्यालय में भेजें। लड़कियों को आत्मनिर्भर होना चाहिए, ऐसा माताजी मानती थीं। माताजी कहती थीं, ''लड़कियों का विवाह नहीं होता तो कोई बात नहीं, उन्हें निवेदिता की पाठशाला में भेजो। शिक्षा से उनका कल्याण ही होगा।''
निवेदिता लिखती हैं, ''एक दिन माताजी ने मुझे उनके अद्भुत दर्शन के बारे में बताया था। उन्होंने स्वप्न में मुझे गेरुए वस्त्र में देखा! पर मैं गेरुआ वस्त्र परिधान नहीं कर सकती। स्वामीजी ने मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पालन का आदेश दिया है।'' निवेदिता की माताजी पर असीम निष्ठा थी। निवेदिता का स्वास्थ्य बड़ा खराब था। तब निवेदिता पत्र में लिखती हैं, ''कल माताजी मुझसे मिलने आयी थीं। मेरे स्वास्थ्य में थोड़ा सुधार हुआ है, यह जानकर वे बहुत खुश हुईं! इतना असीम प्रेम!'' निवेदिता के बारे में माताजी कहतीं, ''वो गत जन्म में हिन्दू थी। ठाकुर के नाम का प्रचार करने के लिए उसने वहाँ जन्म लिया हैं।'' निवेदिता जब कुछ विशेष कार्य करतीं तो माताजी कहतीं, ''बेटा, तुम धन्य हो! तुम्हारी निष्ठा! तुम्हारी गुरुभक्ति, अद्भुत है!''
निवेदिता प्रतिदिन दोपहर को माताजी के घर आकर उनकी चरणरज लेती थीं। हर रविवार माताजी के घर की साफ-सफाई करतीं। बिछौना ठीक करतीं, मेज की धूल साफ करतीं, साबुन के पानी से दरवाजा और खिड़कियों को धोती थीं। निवेदिता ने इन कार्यों को अपना परम कर्तव्य के रूप में स्वीकार किया था। एक बार निवेदिता ने अपने हाथों से नैवेद्य का प्रसाद बनाकर ठाकुर को भोग लगाया। दूसरों की परवाह न करते हुए माताजी ने यह प्रसाद ग्रहण किया। वहीं, माताजी निवेदिता को जयरामवाटी आने के लिए मना करतीं, क्योंकि वे नहीं चाहती थीं कि गाँव के लोग निवेदिता का अपमान करें।
निवेदिता माताजी को अनेक वस्तुएँ देना चाहती थीं, जैसे- रजाई, अलमारी आदि पर आर्थिक कठिनाइयों के कारण दे नहीं पाती थीं। 1909 में निवेदिता इंग्लैंड से भारत आयीं, तब उन्होंने माताजी और राधू के लिए भेंट वस्तुएँ लायी थीं। निवेदिता की हर एक वस्तु माताजी सम्भालकर रखती थीं। एक बार निवेदिता ने माताजी को छोटी जर्मन सिल्वर की डिब्बी दी थी। माताजी उसमें श्री ठाकुर के केश रखती थीं। माताजी ने कहा था, ''डिब्बी को देखकर ठाकुर के साथ निवेदिता की भी याद आएगी।'' निवेदिता द्वारा दी गई षाल फट गई थी, पर माताजी उसे सम्भाल कर रखतीं और फेंकने से मना करतीं। उन्होंने शाल को ठीक से मोड़कर पेटी में काले जीरे डालकर रख दी थी। उनके लिए वह निवेदिता का प्रेम था।
एक बार निवेदिता माताजी से मिलने गईं। प्रणाम कर माताजी के पास बैठीं। माताजी ने कुशलक्षेम पूछकर ऊन का पंखा निवेदिता के हाथ सौंपते हुए कहा, ''मैंने यह तुम्हारे लिए बनाया है।'' निवेदिता आनंदविभोर होकर पंखे को छाती, माथे पर रखकर कहने लगीं, ''कितना सुन्दर! कितना सुन्दर!!'' ऐसा कहते हुए वह अन्य लोगों को दिखाने लगीं। यह देख माताजी ने कहा, ''इतनी छोटी वस्तु की इतनी सराहना! कितनी श्रद्धा, कितना सरल भाव, साक्षात् देवी!! स्वामीजी, नरेन्द्र पर इसकी कितनी भक्ति! अपना देश छोड़कर उनका कार्य आगे बढ़ाने के लिए यह भारत आई है।'' माताजी ने राधू से कहा था, अपनी बड़ी बहन के रूप में निवेदिता को प्रणाम करो। माताजी, निवेदिता को पत्र लिखकर उसके स्वास्थ्य और कार्य के बारे में पूछती थीं। इससे निवेदिता का मानसिक सामथ्र्य झटपट बढ़ता था।
माताजी किसी भी नवीन आध्यात्मिक भाव व अनुभूति का मर्मभेद क्षणभर में निश्चयपूर्वक कर सकती थीं। निवेदिता को इसका अनुभव 'ईस्टर' के दिन आया। माताजी एकबार 'ईस्टर' के दिन निवेदिता के निवास पर गई थीं। माताजी और उनकी संगिनियों में ईसाई धर्म का तात्पर्य जानने की इच्छा प्रगट की। निवेदिता ने उन्हें फ्रेंच ऑर्गन पर 'ईस्टर' का गाना गाकर सुनाया। ईसा मसीह के पुनरुत्थान का स्तोत्र माताजी के लिए नया था। पर उन्होंने उसका मर्म और गंभीर भाव जल्द ही आत्मसात् कर लिया।
एक बार शाम को माताजी महिलाओं के साथ बैठी थीं। उन्होंने निवेदिता को यूरोपीय विवाह पद्धति के बारे में पूछा था। निवेदिता ने हास्य-विनोद के साथ यूरोपीय वर-वधु, ईसाई पादरी आदि का वर्णन किया और विवाह की प्रतिज्ञा सुनाने लगीं। ''सुख में व दुःख में, अमीरी या गरीबी में, व्याधिग्रस्त अथवा निरोगी अवस्था में हम मृत्युपर्यंत साथ रहेंगे।'' यह विवाह की प्रतिज्ञा सुनकर माताजी में गम्भीर भाव का उदय हुआ। परम संतुष्ट होकर वे बार-बार कहने लगीं, ''कितनी अपूर्व आत्मकथा! कितनी अपूर्व धर्मकथा!! और वही कथा बार-बार सुनने की इच्छा प्रगट करने लगीं।
माताजी मातृत्व का साकार स्वरूप हैं, ऐसी निवेदिता की श्रद्धा थीं। निवेदिता कहती थीं, ''जो उत्कट प्रेम हमें दूर नहीं कर सकता, जो आशीर्वाद हमेशा हमारे साथ है, जिनके सहवास में हमारी उन्नति होती है, जहाँ असीम मधुरता है, जिसकी पवित्रता में थोड़ी भी कृष्ण छाया नहीं...वो सब और इससे भी अधिक गुण यानी मातृत्व।''
निवेदिता के देह त्याग के बाद एक दिन माताजी के यहां एक ग्रन्थ से निवेदिता के सम्बन्ध में पढ़ा जा रहा था। निवेदिता की माताजी के प्रति भक्ति की कथा सुनकर सभी की आँखें भर आयीं। माताजी के आँखों से अश्रुपात हो रहा था। इस प्रसंग में माताजी ने कहा, "निवेदिता की कितनी अद्भुत भक्ति थी। उसे मेरे लिए 'क्या करूँ, क्या न करूँ' ऐसा हो जाता था। रात में जब वो मुझे मिलने आयी तब दियासलाई के प्रकाश से मेरी आंखों को तकलीफ न हो इसलिए दियासलाई (लालटेन) पर कागज लगाती थी। मुझे प्रणाम कर हल्के से चरण-रज को रुमाल में लेती थी। संभवतः मुझे तकलीफ होगी यह सोचकर प्रणाम करने में भी उसे संकोच होता था।'' फिर माताजी ने कहा, "बेटा जो सुप्राणी होता है उसके लिए महाप्राणी 'अंतरात्मा' रोता है।
माताजी निवेदिता के विषय में कहती हैं, ''लोग निवेदिता को घर में आने नहीं देते थे। घर में आने दिया तो उसके जाने के बाद गोबर से पुतायी कर घर पर गंगाजल छिड़कते थे। इतना दुःख, कष्ट, अपमान सहकर भी उसने इस देश की लड़कियों को शिक्षित किया। अपने गुरु की आज्ञापालन के लिए जीवन समर्पित कर दिया....।''
- रामकृष्ण मठ, नागपुर (महाराष्ट्र)
To Be continue
हमें कर्म की प्रतिष्ठा बढ़ानी होंगी। कर्म देवो भव: यह आज हमारा जीवन-सूत्र बनना चाहिए। - भगिनी निवेदिता {पथ और पाथेय : पृ. क्र.१९ }
Sister Nivedita 150th Birth Anniversary : http://www.sisternivedita.org
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