Saturday, 23 December 2017

सारदा देवी तथा भगिनी निवेदिता - 1

यतो धर्म: ततो जय:

17 मार्च, 1898 को स्वामी विवेकानन्दजी की योजनानुसार श्रीमती ओली बुल, कुमारी मैक्लिआॅड तथा भगिनी निवेदिता माँ सारदा देवी का दर्शन करने आयीं। माताजी 10/2 बोसपाड़ा लेन में एक किराये के घर में रहती थीं। वे तीनों गाड़ी से उतरीं तो बच्चों ने उन्हें घेर लिया। माताजी के घर का दरवाजा थोड़ा खुला था। अन्दर से थोड़ी आवाज आ रही थी। निवेदिता ने थोड़ा ढकेल कर दरवाजा खोला। उन्होंने देखा कि सामने पानी से भरे हंडे रखे हैं। उन तीनों को समझ में नहीं आ रहा था कि वे अपने छाते, पर्स और स्कार्फ आदि कहाँ रखें। तभी स्वामी योगनान्दजी ने जूते उतारकर अन्दर आने के लिए कहा और वे स्वामी विवेकानन्दजी के साथ चले गए। ये तीनों महिलाएँ दूसरे माले पर गईं। वहाँ एक बड़े कक्ष का दरवाजा खुला हुआ था। अन्दर जाकर निवेदिता देखती हैं कि आठ-दस महिलाएँ जमीन पर बैठीं हैं। माताजी कक्ष के बीच में चटाई पर महिलाओं की ओर मुँह करके बैठी थीं। घर अति सामान्य कुर्सी-टेबल आदि आधुनिक साधनों से रहित था। माताजी ने सफेद साड़ी पहनी थी। साड़ी का पल्ला सिर पर लिया था। सूक्षमता से देखने पर माताजी का कंधा और काले लम्बे खुले बाल दिखाई दे रहे थे। उनकी चरणों में आलता लगा हुआ था। माताजी ने बड़े ही शांत दृष्टि से उनका स्वागत किया।

विदेशी महिलाओं ने झुककर माताजी को प्रणाम किया। माताजी ने भी दोनों हाथ मस्तक पर लगाकर प्रणाम किया। तीनों नक्षीदार चटाई पर बैठीं। घर का वातावरण निस्तब्ध हो गया। वहां बैठी सभी महिलाएँ उनको निहारने लगीं। वे तीनों घबराकर नीचे देखने लगीं। एक महिला ने तीनों के सामने पीतल की थाली में कटे हुए फल, मिठाई और कप में चाय रखी। माताजी को भी चीनी मिट्टी के बर्तन में ये सब दिया गया। परम निष्ठावान माताजी अपने इन विदेशी लड़कियों के साथ खाने लगीं। अचानक मौन छोड़कर निवेदिता ने जोर से कहा, ''माताजी कितनी अद्भुत सुन्दर लग रही हैं।'' माताजी के मुख पर पवित्र, निर्मल और सौम्य प्रसन्नता की आभा फैली हुई थी; मानों आत्मा का प्रकाश चेहरे से बाहर आ रहा हो।

माताजी अपने ईसाई बेटियों के सम्बन्ध में सबकुछ जानना चाहती थीं। अंग्रेजी जाननेवाली एक लड़की के माध्यम से, उन तीनों से वार्तालाप शुरू हुआ। माताजी ने पूछा कि, ''वे घर में भगवान की पूजा कैसे करती हैं, प्रार्थना कैसे करती हैं? आपके माता-पिता कैसे हैं?'' माताजी के इस व्यवहार से उनकी संगिनी रूढ़िप्रिया और गोपाल माँ ने भी उनके हाथ अपने हाथ में लेकर प्रेम की वर्षा की। उस दिन सायंकाल गंगा किनारे बैठकर गोपाल माँ ने निवेदिता के साथ जप भी किया।

इस प्रकार माताजी ने उनको अपना कर समाज में मान्यता प्राप्त कर दी। उससे इन महिलाओं का विशेषकर निवेदिता का भविष्यकालीन कार्य का मार्ग प्रशस्त हुआ। निवेदिता के अनुसार, माताजी सहजता और व्यावहारिकता का साक्षात रूप थीं। माताजी निवेदिता को प्रेम से 'कुकी' (छोटी बच्ची) कहकर संबोधित करती थी। एक बार निवेदिता के कहने पर एक साधू ने माताजी को मेग्निफिक्याट (माता मेरी का स्तोत्र व भजन) बंगाली भाषा में सुनाया था। माताजी ने सुनकर बहुत आनंद व्यक्त किया था।

निवेदिता हिमालय की यात्रा से अकेले ही कलकत्ता पहुँची और सीधे माताजी के निवास स्थान आयी। भारत में कार्य आरम्भ करने के पूर्व वे माताजी के साथ रहना चाहती थीं। पर समाज में इसके लिए स्वीकृति नहीं थे। समाज की विडम्बना से त्रस्त निवेदिता माताजी का स्नेहपूर्ण मुख देखकर सब भूल गईं। माताजी की कृपा से निवेदिता को माताजी के घर में योग्य सम्मान मिला। वे कुछ दिन माताजी के साथ उनके घर पर रहीं। बाद में पास के घर में रहने चली गईं।

माताजी के यहाँ निवेदिता दिनभर ध्यान-तन्मय हो शांतिरस में तल्लीन रहती थीं। माताजी के चरणों में तपस्या एवं साधना में अंतर्मुख रहते हुए उनके दिन व्यतीत हुए। प्रथम दिन रात में निवेदिता को नींद नहीं आयी। वे रातभर आस-पास से आनेवाली आवाजें- छिपकिली की किट-किट, साथ रह रहीं महिलाओं की साँस लेने की आवाजें और पहरेदार की साद सुनती रहीं। कहीं से उन्हें भजन भी सुनायी दे रहा था। फिर उन्होंने देखा कि सुबह चार बजे नींद से जगकर एक महिला ने अपना बिस्तर उठाकर रख दिया। दीवार की ओर मुँह करके वह माला-जप करने लगीं। ऐसे ही दो घंटे बिना हलचल किये बीत गए। सुबह होने पर महिलाओं ने झाड़ू-पोछा करके चूल्हा जलाया और नाश्ते की तैयारी होने लगी। स्नान करके धूत-साड़ी सभी ने परिधान किये। एक महिला ने नाश्ता कर माताजी के पैरों की मालिश की। सभी मिलकर आनंद से काम कर रही थीं। एक महिला के द्वारा फूल लाते ही सभी अपना काम छोड़कर, बातें बंद कर, मंडित के कक्ष में अपने-अपने कुश के आसन पर बैठ गईं। एक महिला ने ठाकुर की पूजा शुरू की। वेदी को फूलों से सजाया गया। मंदिर में वेदी के पास दीपक की ज्योति शांत जल रही थी। सभी ओर धूप की गंध फैली थीं। पूजा के दौरान बीच-बीच में घंटी बज रही थी। प्रसाद-भोग दिखाकर पुष्पांजलि अर्पित हुई। इस दौरान कोई जप-ध्यान कर रहा था, तो कोई धर्मग्रन्थ पढ़ रहा था। पूजा के अंत में पुजारिन ने चन्दन का तिलक लगाया। सभी ने वेदी के सामने प्रणाम किया और फिर माताजी को प्रणाम किया। माताजी ने सभी को आशीर्वाद दिया।

निवेदिता माताजी के पास बैठी थीं। सर्वत्र प्रशांत वातावरण था। महिलाएँ जप कर रहीं थीं। निवेदिता अपने मन को शांति समुद्र में विलीन किया। कुछ ही समय में यह आनंद खो गया। मन बोलने के लिए विद्रोह करने लगा। शरीर का असह्य तनाव चेहरे पर दिखने लगा। निवेदिता ने सफेद साड़ी पहनी थी। निवेदिता ने अपना चेहरा छिपा लिया और शरणागत हो माताजी से मन ही मन दया, शांति की प्रार्थना करने लगी। दोपहर के भोजन तक एकाग्र चित्त से साधना चलती रही। ग्यारह बजे माताजी ने ठाकुर को अन्न-भोग निवेदित किया। सभी को प्रसाद दिया- कांसे की थाली में भात और सब्जी! इस प्रकार माताजी के घर पर महिलाओं की दिनचर्या होती थी।


- रामकृष्ण मठ, नागपुर (महाराष्ट्र)   
To Be continue



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हमें कर्म की प्रतिष्ठा बढ़ानी होंगी। कर्म देवो भव: यह आज हमारा जीवन-सूत्र बनना चाहिए। - भगिनी निवेदिता {पथ और पाथेय : पृ. क्र.१९ }
Sister Nivedita 150th Birth Anniversary : http://www.sisternivedita.org
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