मेरी क्रांतिकारी योजना (स्वामी विवेकानन्द का बहुचर्चित भाषण के अंश)
देशभक्ति की तीन सीढ़ियां
"लोग देशभक्ति की चर्चा करते हैं। मैं भी देशभक्ति में विश्वास करता हूं,
और देशभक्ति के सम्बन्ध में मेरा भी एक आदर्श है। बड़े काम करने के लिए तीन
बातों की आवश्यकता होती है। पहला है – हृदय की अनुभव शक्ति। बुद्धि या
विचारशक्ति में क्या है? वह तो कुछ दूर जाती है और बस वहीं रुक जाती है। पर
हृदय तो प्रेरणास्त्रोत है! प्रेम असंभव द्वारों को भी उद्घाटित कर देता
है। यह प्रेम ही जगत के सब रहस्यों का द्वार है। अतएव, ऐ मेरे भावी
सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों, तुम अनुभव करो!
क्या तुम अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों संतानें आज पशु-तुल्य
हो गयीं हैं? क्या तुम हृदय से अनुभव करते हो कि लाखों आदमी आज भूखे मर रहे
हैं, और लाखों लोग शताब्दियों से इसी भांति भूखों मरते आए हैं? क्या तुम
अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बदल ने सारे भारत को ढंक लिया है? क्या
तुम यह सब सोचकर बेचैन हो जाते हो? क्या इस भावना ने तुमको निद्राहीन कर
दिया है? क्या यह भावना तुम्हारे रक्त के साथ मिलकर तुम्हारी धमनियों में
बहती है? क्या वह तुम्हारे ह्रदय के स्पंदन से मिल गयी है? क्या उसने
तुम्हें पागल-सा बना दिया है? क्या देश की दुर्दशा की चिंता ही तुम्हारे
ध्यान का एकमात्र विषय बन बैठी है? और क्या इस चिंता में विभोर हो जाने से
तुम अपने नाम-यश, पुत्र-कलत्र, धन-संपत्ति, यहाँ तक कि अपने शरीर की भी सुध
बिसर गए हो? तो जानो, कि तुमने देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है-
हां, केवल पहली ही सीढ़ी पर!
अच्छा, माना कि तुम अनुभव करते हो; पर पूछता हूं, क्या केवल व्यर्थ की
बातों में शक्तिक्षय न करके इस दुर्दशा का निवारण करने के लिए तुमने कोई
यथार्थ कर्त्तव्य-पथ निश्चित किया है? क्या लोगों की भर्त्सना न कर उनकी
सहायता का कोई उपाय सोचा है? क्या स्वदेशवासियों को उनकी इस जीवन्मृत
अवस्था से बाहर निकालने के लिए कोई मार्ग ठीक किया है? क्या उनके दुखों को
कम करने के लिए दो सांत्वनादायक शब्दों को खोजा है? यही दूसरी बात है।
किन्तु इतने से ही पूरा न होगा!
क्या तुम पर्वताकार विघ्न-बाधाओं को लांघकर कार्य करने के लिए तैयार हो?
यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाए,
तो भी क्या तुम जिसे सत्य समझते हो उसे पूरा करने का साहस करोगे? यदि
तुम्हारे सगे-सम्बन्धी तुम्हारे विरोधी हो जाएं, भाग्यलक्ष्मी तुमसे रूठकर
चली जाए, नाम-कीर्ति भी तुम्हारा साथ छोड़ दे, तो भी क्या तुम उस सत्य में
संलग्न रहोगे? फिर भी क्या तुम उसके पीछे लगे रहकर अपने लक्ष्य की ओर सतत
बढ़ते रहोगे? क्या तुममे ऐसी दृढ़ता है? बस यही तीसरी बात है।
यदि तुममे ये तीन बातें हैं, तो तुममे से प्रत्येक अद्भुत कार्य कर सकता
है। तब तुम्हें समाचारपत्रों में छपवाने की अथवा व्याख्यान देते फिरने की
आवश्यकता न होगी। स्वयं तुम्हारा मुख ही दीप्त हो उठेगा! फिर तुम चाहे
पर्वत की कन्दरा में रहो, तो भी तुम्हारे विचार चट्टानों को भेदकर बाहर
निकल आयेंगे और सैकड़ों वर्ष तक सारे संसार में प्रतिध्वनित होते रहेंगे। और
हो सकता है तब तक ऐसे ही रहें, जब तक उन्हें किसी मस्तिष्क का आधार न मिल
जाए, और वे उसी के माध्यम से क्रियाशील हो उठें। विचार, निष्कपटता और
पवित्र उद्देश्य में ऐसी ही ज़बर्दस्त शक्ति है।
09 फरवरी, 1897
विक्टोरिया पब्लिक हॉल (मद्रास)
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