भाऊसाहब भुस्कुटे व्याख्यान माला में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का भाषण
पूजा पद्धति से धर्म को कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। हिन्दू धर्म की बात करें तो यहां कोई एक देवता, एक ऋषि या संत नहीं है। स्वामी विवेकानन्द ने तो यहां तक कहा कि जो भगवान पर विश्वास नहीं करता, मेरी दृष्टि में वह नास्तिक नहीं। जिसका खुद पर भरोसा नहीं वह । हमारे यहां धर्म शब्द की जो व्याख्या की गई वह है -
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयं,
परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम।
तुलसीदासजी ने भी लिखा – 'परहित सरिस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।' यहां पूजा पद्धति का तो कोई उल्लेख भी नहीं है। भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त दूसरी किसी भाषा में धर्म की परिकल्पना का कोई दूसरा शब्द नहीं है। यहां तो पशु-पक्षी का भी धर्म है। राजा दिलीप नंदिनी गाय की सेवा करते थे। उसे चराने एक बार जंगल में गए। वहां एक सिंह उसे खाने को दौड़ा। राजा ने रोका तो सिंह ने कहा, तुम राजा हो और मैं आपकी प्रजा। मेरा धर्म है भूख लगने पर जंगल में रहनेवाले पशु को खाना। आप राजा होकर मुझे मेरा धर्म पालन करने से रोक रहे हो। राजा ने कहा कि ठीक है तुम्हारा धर्म है भूख मिटाना, तो मेरा धर्म है गाय की रक्षा करना। तुम ऐसा करो कि मुझे खाओ। तुम्हारा भी धर्म रह जाएगा और मेरा भी। सिंह अपने वास्तविक स्वरूप में प्रगट हुआ और राजा को वरदान दिया। इसी प्रकार शिवी राजा भी कबूतर को बचाने के लिए उसके वजन के बराबर मांस बाज को देने के नाम पर अपना जीवन देने को तत्पर हो गए।
ये कथाएं घटी या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। इसमें निहित धर्म की परिकल्पना क्या, वह महत्वपूर्ण है। पूजा पद्धति तो धर्म का एक छोटा हिस्सा भर है। अंग्रेजी के रिलीजन शब्द से इसके भाव की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। धर्म वह जिससे सुख प्राप्त हो, जो सारी दुनिया को चाहिए। स्वभाव के विरुद्ध सुख नहीं होता। सारी दुनिया मन के अनुकूल भावना को सुख तथा प्रतिकूल वेदना को दुःख मानती है। सुख खोजने पर मिल भी जाता है, किंतु मिला-मिला कहते- कहते खो भी जाता है। जाड़े में रजाई ओढ़कर पलंग पर पड़े हैं, जब चाहे चाय पकौड़े मिल जाएं, तो सुख प्रतीत होता है, किंतु क्या चौबीसों घंटे पड़े रह सकते हैं? रसगुल्ले अच्छे लगते हैं, किन्तु क्या सौ, दो सौ, हजार खाए जा सकते हैं? अगर सीमा से ज्यादा रसगुल्ला खिलाने की कोशिश हो तो सुख की जगह दुःख हो जाएगा। अगर रसगुल्ला खाने से सुख मिलता तो एक खाओ या हजार, हमेशा सुख की अनुभूति होना चाहिए थी, जो सदैव टिके वह सुख।
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