मिश्रित-संस्कृति व संघात्मक विकृति
चिति और विराट की अवधारणा मिश्रित-संस्कृति एवं विघटनवादी अस्मिताओं के विचार का निषेध करती है। न तो चिति को तोड़ा जा सकता है, न विराट को बांटा जा सकता है। समाज की चिति उसकी संस्कृति में व्यक्त होती है तथा एकात्मता विराट में। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए दीनदयाल जी संस्कृति व क्षेत्र के नाम पर मजहबी व भाषिक पृथकताओं पर करारी चोट करते हैं। वे वैविध्य को समाज का शृंगार व शक्ति मानते लेकिन विघटन एवं पृथकता को अवांछनीय विकृति मानते हैं। अतः 1947 में उत्पन्न हुए राष्ट्र-राज्य को ही अपना राष्ट्र मानने वाले, भाषा के आधार पर राज्यों को मूल इकाई तथा भारत को संघ मानने वाले तथा मजहब के आधार पर भिन्न-भिन्न संस्कृति को मान्यता देने वाले लोग जो सामान्यतः वामपंथी तथा कुछ कांग्रेसी भी हैं, दीनदयाल जी द्वारा व्याख्यायित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कटुआलोचक हैं।
दीनदयाल उपाध्याय सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकात्मता के सबल पुरोधा हैं वहीं विकेन्द्रीकृत अर्थ व राजसत्ता के उग्र समर्थक है। सत्ता और वित्त का केन्द्रीकरण उन्हें अभिप्रेत नहीं है। वे समाज व्यवस्था में राज्यसत्ता के न्यूनतम हस्तक्षेप के हिमायती हैं: ''..... समाज की व्यवस्था तथा उसके जीवन का नियमन करने वाली, व्यवस्था देखने वाली, समाज की अनेक संस्थाएं हैं। उनका प्रादेशिक और व्यावसायिक दोनों आधारों पर गठन हुआ है। पंचायतें और जनपद सभाएं हमारे यहां रही हैं। बड़े से बड़े चक्रवर्ती सार्वभौम राजा ने भी कभी पंचायतों को समाप्त नहीं किया। इसी प्रकार व्यावसायिक संगठन भी रहे, उन्हें भी किसी ने समाप्त नहीं किया, अपितु उनकी स्वायत्तता को सदैव स्वीकार किया गया। अपने-अपने क्षेत्र में उन्होंने नियम बनाए। जाति की पंचायतें, श्रेणियां, पूग, निगम, ग्राम पंचायतें तथा जनपद सभाएं आदि संस्थाएं स्वतंत्र नियम बनाती थीं। राज्य का काम यही था कि इन नियमों का पालन होता है या नहीं, यह देखें। राज्य ने कभी उनके मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया। इस प्रकार हमारे यहां राज्य तो जीवन के थोड़े से हिस्से को ही छूता था।''
दीनदयाल उपाध्याय एवं उनके भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के वे ही लोग खिलाफ हैं जिन्हें पाश्चात्योद्भूत 'राष्ट्र-राज्य' की अवधारणा का ही केवल ज्ञान है। वे न भारत की 'चिति' को समझते हैं, न 'विराट' को। राष्ट्र-राज्य ने चितियों एवं विराट को खण्ड-खण्ड कर रखा है। राष्ट्र-राज्य के चंगुल में फसा है भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। अफ्रिकी राष्ट्रवाद, अरब राष्ट्रवाद एवं यूरोपीय राष्ट्रवाद आज आकार नहीं ले पा रहा है, भारतीय राष्ट्रवाद भी इसीलिए कसमसा रहा है। हिन्दुकुश से शृंगपुर तथा त्रिविष्टप (तिब्बत) से सिंहलद्वीप तक फैला भारतीय विराट जब अपनी चिति को प्राजागृत करेगा तभी भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मुखरित होगा।
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