Thursday 2 June 2016

Pandit Deendayal ji & Samskrutik Rashtravad

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

 

'राष्ट्र' एवं 'राष्ट्रवाद' इन शब्दों का आज विश्व साहित्य में खूब उपयोग होता है। राजनीति एवं विचाराधाराओं के साहित्य में इनकी परिभाषाओं को लेकर भी बहुत कुछ लिखा गया है। दुनियां भर में राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद के नाम पर चलने वाले आंदोलन काफी भाव-प्रवण एवं उत्तेजक होते हैं। परन्तु तथ्यतः आज 'राष्ट्र' शब्द की परिभाषा में घोर अराजकता है तथा व्यवहारतः संयुक्त राष्ट्र संघ जिस किसी भी सम्प्रभु राज्य को 'राष्ट्र' की मान्यता दे देता है, वह राष्ट्र कहलाता है। इस मान्यता के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के पास कोई मानक परिभाषा नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक कारणों से संयुक्त राष्ट्र संघ किसी भी सम्प्रभु राज्य को यह मान्यता देता है। इसलिए विश्व में 'राष्ट्रों' की संख्या घटती-बढ़ती रहती है।

 

यूरोप में राष्ट्रवाद

वस्तुतः राष्ट्र तत्व की यह दुर्दशा, तब हुई जब यूरोप में 'राष्ट्र-राज्य' का उदय हुआ। इस संदर्भ में दीनदयाल उपाध्याय लिखते हैं ''..... रोम के साम्राज्यों के पतन के बाद रोमन कैथोलिक चर्च के प्रति विद्रोह अथवा उसके प्रभाव में कमी के कारण यूरोप में राष्ट्रों का उदय हुआ। यूरोप का पिछले एक हजार वर्ष का इतिहास इन राष्ट्रों के अविर्भाव तथा परस्पर संघर्ष का इतिहास है। इन राष्ट्रों ने यूरोप महाद्वीप के बाहर जाकर अपने उपनिवेश बनाए तथा दूसरे स्वतंत्र देशों को गुलाम बनाया। राष्ट्रवाद के उदय के कारण राष्ट्र और राज्य की एकता की प्रवृत्ति भी बढ़ी तथा 'राष्ट्रीय-राज्य' का यूरोप में उदय हुआ। साथ ही रोमन कैथोलिक चर्च के केन्द्रीय प्रभाव में कमी हो कर या तो राष्ट्रीय चर्च का निर्माण हुआ या मजहब का। मजहबी गुरुओं का राजनीति में कोई विशेष स्थान नहीं रहा। सेक्युलर स्टेट की कल्पना का इस प्रकार जन्म हुआ।''1

 

राष्ट्रवाद के संदर्भ में न केवल राजनैतिक वरन् पश्चिम की दृष्टि नकारात्मक भी रही। दीनदयाल जी लिखते हैं ''कुछ लोग राष्ट्र कल्पना को ही नकारात्मक मानते हैं भावात्मक नहीं। ..... इंग्लैण्ड पर जब हमला हुआ तो राष्ट्रवाद जागृत हुआ। एक अंग्रेजी कहावत है "Nations die in peace and live in war" अर्थात् शांतिकाल में राष्ट्र मर जाते हैं युद्धकाल में जीवित रहते हैं। ..... हमारा राष्ट्र जीवन जो हजारों वर्षों से चला आ रहा है, यदि इसका आधार विरोध, युद्ध या विपत्ति ही हो, तो यह ठीक नहीं है। हम भावात्मक आधार पर खडे़ हैं। जीवन की एक दृष्टि हमारे सामने है। हम संसार में पैदा हुए है, तो किसी का विरोध करने के लिए नहीं। हमारे सामने एक विधायक विचार है कि हम जोड़ने वाले हैं, तोड़ने वाले नहीं।''2 दीनदयाल जी कहते हैं यह जोड़ने वाला विचार हमारी संस्कृति है तथा यही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मर्म है।

 

पश्चिम के राष्ट्रवाद ने अनेक व्यावहारिक एवं परिभाषागत समस्याएं खड़ी की हैं, लेकिन पश्चिम के विद्वानों ने जो राष्ट्रवाद पर बहस चलायी है, वह पढ़ने योग्य एवं पर्याप्त ज्ञानवर्धक है। इस बहस में भांति-भांति के राष्ट्रवादों की चर्चा है यथा मानवतावादी राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय राज्य, नस्लवादी राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता-बहुल संघ राज्य, क्षेत्रीय राष्ट्रवाद, संवैधानिक राष्ट्रवाद, उदारवादी राष्ट्रवाद, आध्यात्मिक राष्ट्रवाद तथा लोकतंत्रीय राष्ट्रवाद आदि। इन व्याख्याओं को आक्रमक एवं उदार राष्ट्रवाद की संज्ञाओं में वहां विभक्त किया है। इस संदर्भ में विलियम एबेन्सटाइन का यह कथन उद्धरणीय है:

''अठ्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम चरण से लेकर, उन्निसवीं सदी के मध्य तक राष्ट्रवाद मानववादी तथा लोकतंत्रवादी विचारों से सम्प्रेरित था। यह फ्रेंच, अमेरिकन, चेक, इटैलियन, आयरिश तथा पोलिश राष्ट्रवाद के प्रारंभिक दिनों की कहानी है। इसके विपरीत पिछले अस्सी सालों में राष्ट्रवाद अब पृथकतावाद, असहिष्णुता, कट्टरता, अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न, नस्लवाद और अंततः साम्राज्यवाद व आक्रमणों से सम्बद्ध हो गया है। अखिल जर्मनवाद, जारवादी साम्राज्य, जापानी सैन्यवाद, फासीवाद और अब साम्यवादी साम्राज्य इसी बात के प्रमाण हैं।''3

 

राष्ट्रवाद की यह बहस राष्ट्र के संस्कृति अधिष्ठान की भी पर्याप्त चर्चा करती है। मैजिनी ने राष्ट्रवाद के 19 सूत्र लिखे हैं। इनमें सत्रहवां सूत्र है:

''प्रत्येक जन का अपना जीवन लक्ष्य होता है। सामान्यतः स्वीकृत मानवीय जीवन लक्ष्य की सम्पूर्ति में जो सहयोगी होता है, वह जीवन लक्ष्य ही उसकी राष्ट्रीयता का निर्माण करता है। राष्ट्रीयता पवित्र होती है।''4 मैजिनी के आदर्शवादी राष्ट्रवाद की धज्जियाँ उनके स्वयं के ही देश इटली में उद्भूत 'फासीवाद' ने बड़ी बेरहमी से उड़ा दी।

 

फ्रांसिसी विद्वान अर्नेस्ट रीनाँ राष्ट्र की नस्ल, भाषा, मजहब, भू-क्षेत्र एवं वर्गीय हित सम्बंधी अवधारणाओं का खण्डन करते हुए कहते हैं ''राष्ट्र एक आध्यात्मिक सार तत्त्व है। इसके दो मुख्य तत्त्व हैं 'समृद्ध परंपरा की स्मृतियों का साझापन तथा समझौतेपूर्वक साथ रहने और जीने की बलवती इच्छा।"5

 

ये तीनों परिभाषाएं दीनदयाल उपाध्याय के 'चिति' तत्व का समर्थन करती हैं। अपने 'सिद्धांत व नीति' प्रलेख में वे कहते हैं, ''प्रत्येक राष्ट्र की अपनी विशेष प्रकृति होती है, जो ऐतिहासिक अथवा भौगोलिक कारणों का परिणाम नहीं अपितु जन्मजात है। इसे चिति कहते हैं। राष्ट्रों का उदयावपात चिति के अनुकूल अथवा प्रतिकूल व्यवहार पर निर्भर करता है। ..... चिति स्वयं को अभिव्यक्त करने  तथा  व्यक्तियों को पुरुषार्थ के सम्पादन की सुविधा प्राप्त करवाने के लिए अनेक संस्थाओं को जन्म देती है  ..... जाति, वर्ण, पंचायत, संघ, विवाह, सम्पति, राज्य आदि इसी प्रकार की संस्थाएं हैं।''6

 

यूरोपीय विद्वानों की राष्ट्रवाद विषयक परिभाषायें भी तत्वतः संस्कृति मूलक है, लेकिन 'राष्ट्र-राज्य' की परिस्थिति ने इसे फासीवाद व नाजीवाद से जोड़ दिया। 'राष्ट्र-राज्य' अवधारणा ने यूरोप को बाँटा, युद्ध नियोजित किए तथा उपनिवेशवाद का वैश्विक अध्याय रचा। इस पर टिप्पणी करते हुए दीनदयाल उपाध्याय कहते हैं कि पाश्चात्य राष्ट्रवाद विश्वशांति की दुष्मन बन गया।


- डा. महेश चंद्र शर्मा

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