वेद में मानव के लिए अनेक शब्द प्रयुक्त हुए है| वेद के प्रकाण्ड अभ्यासी पं. सातवलेकरजी ने इनमेसे चार नाम महत्त्वपूर्ण
बताये है| १. जन २. लोक ३. मनुष्य और ४. नर
१. जन : इस शब्द का मूल 'जन् जायते' धातु है | जो उत्पन्न होता है, कर्म करता है और मर जाता है वह 'जन' है |
संसार में उत्पन्न होना, भोगो का उपभोग करना और मर जाना| इस प्रकार का विशिष्ट ध्येय से रहित जीवन जीनेवाला
मानव 'जन' है| ऐसे मानव यजुर्वेद के अनुसार आत्मघाती है – ये के चात्महनो जना: |(यजु. ४०.२)
२. लोक : इस शब्द की उत्पत्ति 'लोकृ दर्शने' धातु से हुई है| यह मानव का समुदायवाचक पर्याय है| लोक में सत्य और
असत्य की परीक्षा करनेवाली विवेक बुद्धि होती है| प. पू. ब्रह्मलीन स्वामी महेश्वरनंदजी महाराज ने भागावातोपनिषद
भाष्य में एक स्थल में लिखा है – सद्सद्वस्तुविमर्षको लोकK अर्थात लोग सत्य असत्य को जाननेवाले है, अत एव
आत्मोद्धार का प्रयत्न करते है|
३. मनुष्य – मानव यह शब्द 'मन्-विचरना' इस धातु से निष्पन्न हुआ है| निरुक्तकार ने कहा है कि जो मनन कर के
सद्वस्तु को आचरण में रखता है, वही मनुष्य है| 'मननात् मनुष्य:'| जन और लोक शब्द की तुलना में 'मनुष्य' शब्द
कीकोटि उच्च है|
४. नर – वेद में यह शब्द कुछ स्थानोपर सर्वोच्च भावो को प्रकट करता है| 'न रमते इति नर:'| अर्थात् जो संसार के भोग
विलासों में नहीं फसता और जो अपना अनुकरण करनेवाले को कुमार्ग पर ले जानेवाला आचरण कभी नहीं करता, वाही नर
है|
....राष्ट्संहिता -
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