सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने कहा: ''..... हिन्दू समाज का राष्ट्र के प्रति कर्तव्य है कि भारतीय जनजीवन के तथा अपने उन अंगों के भारतीयकरण का महान कार्य अपने हाथ में ले जो विदेशियों द्वारा स्वदेशपराङ्मुख तथा प्रेरणा के लिए विदेशाभिमुख बना दिये गए हैं। हिन्दू समाज को चाहिए कि उन्हें स्नेहपूर्वक आत्मसात् कर लें। केवल इसी प्रकार साम्प्रदायिकता का अंत हो सकता है और राष्ट्र का एकीकरण तथा दृढ़ता निष्पन्न हो सकती है।''18
भारतीयता राष्ट्रीयता को सुपरिभाषित करने में सबसे बड़ी कठिनाई, भारत की आजादी के आंदोलन में जिस द्वि-राष्ट्रवाद का हस्तक्षेप हुआ तथा भारत का विभाजन हुआ, इनसे हुई। खण्डित भारत में भी उसी प्रवृत्ति का पोषण होकर मिश्रित-संस्कृति के एक अजनबी तथ्य का इस बहस में प्रवेश करवा दिया गया है। दुनिया का कोई भी राष्ट्र अपने देश की संस्कृति को मिश्रित-संस्कृति नहीं कहता है। भारत एक जन एवं एक संस्कृति है, यहां एक सांस्कृतिक राष्ट्र चिरकाल से विद्यमान है। भारतीय संस्कृति मजहबों व उपासना पद्धतियों की बहुलता को न केवल स्वीकार करती है वरन् इस प्रवृत्ति को सम्मान देते हुए उसे संरक्षित रखने की व्यवस्था भी करती है। इस संस्कृति का आधार ही है 'एकम् सत् विप्रा बहुधा वदंति।' आज दिखाई दे रहे टूटे-फूटे तथा टूटते-फूटते भारत की सुरक्षा का एकमात्र उपाय है, 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' को समझ कर उसे अपने जीवन में अपनाया जाए। तो हम विश्वभर की कसमसाती राष्ट्रीयताओं के लिए एक आशा का दीप बनेंगे। उपनिवेशवादी सीमाओं से निजात पाकर विश्व-मानव 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का साक्षात्कार कर सकेगा। यात्रा लम्बी है, लेकिन यही लघुतम मार्ग है। इस पर चलना होगा।
- डा. महेश चंद्र शर्मा
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