सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद
वस्तुतः 'राष्ट्र-राज्य' की स्थापना के पूर्व राष्ट्र सांस्कृतिक इकाइयां ही थीं। आज भी अरब राष्ट्रवाद की बात होती है, यूरोपीय राष्ट्रवाद की भी चर्चा होती है अफ्रिकन राष्ट्रवाद का नारा बुलंद होता है, वैसा ही दक्षिण एशिया का भारतीय राष्ट्रवाद है। आज न कोई अरब 'राष्ट्र-राज्य' है, न ही यूरोप का एक 'राष्ट्र-राज्य' है, अफ्रिका को तो उपनिवेशवाद ने भयानक रूप से बांट दिया है। एशिया व अफ्रिका की सांस्कृतिक राष्ट्रीयताओं को उपनिवेशवाद ने बांटा तथा सेनाएं खड़ी कर दी। उपनिवेशवाद के पूर्व राष्ट्रों की सीमाएं सेना-मुक्त थीं। 'राष्ट्र-राज्य' की कृत्रिम स्थापना ने सेनाओं से घिरी सीमाओं का निरूपण किया है। वर्तमान काल में पहुंची इन स्थितियों को समझते हुए प. पू. श्री गुरुजी (मा. स. गोलवलकर) ने दो प्रकार के राष्ट्रवादों का विवेचन किया है। प्रथम् 'भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' (Geo-Cultural Nationalism) तथा द्वितीय 'राजनैतिक क्षेत्रीय राष्ट्रवाद' (Politico Territorial Nationalism). 'भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' मानवीय है वसुधैव कुटुम्बकम् का सर्जक है, जबकि 'राजनैतिक क्षेत्रीय राष्ट्रवाद' युद्धकामी तथा साम्राज्यवाद का सर्जक है।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मानव की स्वाभाविक वैविध्य का सर्जक है। मानवीय एकता का अर्थ इस स्वाभाविक वैविध्य की समाप्ति नहीं हो सकता। दीनदयाल जी के अनुसार ''शून्य में मानव एकता का विचार नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीयताओं को समाप्त कर इस्लाम व ईसाइयत ने दुनियां को एक करने का प्रयत्न किया, लेकिन वह अस्वाभाविक था। अतः इनकी असफलता निश्चित थी। इन अप्राकृतिक प्रयत्नों से समाज की हानि हुई, मानवीय एकता की स्थापना व राष्ट्रीयताओं का तिरोहन तो नहीं हो सका, परन्तु इन्होंने राष्ट्रीय जनों में मजहबी दरार उत्पन्न कर दी। इसी प्रकार कम्युनिज्म का अंतर्राष्ट्रीयतावाद भी असफल हुआ। 'राष्ट्रवाद' के आधार पर स्वयं कम्युनिज्म ही बंट गया। 'विश्ववाद' व 'अंतर्राष्ट्रीयता' के सब नारे अंततः 'साम्राज्यवाद' के औजार बने।''7
भू, जन एवं संस्कृति के संघात से राष्ट्र उत्पन्न होते हैं। राष्ट्रीयता कोई कृत्रिम वस्तु नहीं है, यह स्वाभाविक होती है। इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को ही भारतीय शास्त्रकारों ने चिति का नाम दिया है। दीनदयाल उपाध्याय कहते हैं जो चिति की अनुकूल हो उसे संस्कृति तथा जो चिति के प्रतिकूल हो उसे विकृति कहते हैं। यह संस्कृति तत्त्व ही राष्ट्रीयत्व का नियामक है। मजहब एवं राजनीति के प्रवेश ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अस्मिताओं को आहत किया है।
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