Thursday, 7 August 2014

पाप और पुण्य


 
    बहुत्व के भाव से यह सब आ पहुँचा है। मनुष्य एकत्व की ओर जितना बढता है, उतना ही उसका 'हम-तुम' भाव खत्म हो जात है, जिससे सारा जिससे सारा धर्माधर्म द्वन्द्वभाव उत्पन्न हुआ है। 'हमसे यह पृथक है' ऐसा भाव मन में उत्पन्न होने से ही मन में द्वन्द्व भाव उत्पन्न होता है, किन्तु सम्पूर्ण एकत्व अनुभव होने पर मनुष्य का शोक या मोह नहीं रह जाता-- तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः। सब प्रकार की दुर्बलता को ही पाप कहते हैं। इससे हिंसा तथा द्वेष आदि का जन्म होता है। इसलिए दुर्बलता का दूसरा नाम पाप है। ह्रदय में आत्मा सदैव प्रकाशमान है, परन्तु उधर कोई धयान नहीं देता। केवल इस जड शरीर, 'हड्डी तथा मांस के एक अद्भुत पिंजरे' पर ही ध्यान रखकर लोग 'मैं' 'मैं' करते हैं। यही सब प्रकार की दुर्बलता का मूल है। इस अभ्यास से ही जगत में व्यावहारिक भाव निकले हैं; परमार्थ भाव तो इस द्वन्द्व के परे है।

    जब तक 'मैं शरीर हूँ' यह ज्ञान है, तब-तक यह सत्य है। किन्तु जब 'मैं आत्मा हूँ' यह अनुभव हो जाता है, तब यह सब व्यावहारिक सत्ता मिथ्या प्रतीत होती है। लोग जिसे पाप कहते हैं, वह दुर्बलत का फल है। इस शरीर को 'मैं' जानना--यह अहं भाव—दुर्बलता का रूपान्तर है। जब 'मैं आत्मा हूँ' इसी भाव पर मन स्थिर होगा, तब तुम पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म के पार पहुँच जाओगे। श्री रामकृष्ण कहते थे, 'मैं' के नाश में ही दुःख का अन्त है।     
(VI, ३४-३५)

    यदि एक बार हम 'मैं'और 'मेरा' के भ्रम या भ्रांति से छुटकारा पा लें तो सभी स्वप्न विलु्प्त हो जायेंगे। हम अनुभव करेंगे कि 'आत्मा', ब्रह्म से लेकर चींटी तक सबमें विद्यमान है। इसे जानना और अनुभव करना होगा। समस्त धार्मिक अवलोकन इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही होते हैं। एक बार अज्ञान का पर्दा नीचे गिर जाये तो ज्ञान का सूर्य चमकने लग जाता है। एकमात्र सत्य के संबंध में सुन लेने और उस पर विचार करने से कुछ समय में ही व्यक्ति अधिकाधिक बलशाली बनता जाता है।
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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