ॐ
और फिर उसके साथ ध्यान भी होना चाहिए। ध्यान ही एकमात्र असल वस्तु है। ध्यान करो? ध्यान ही सबसे महत्वपूर्ण है। मन की यह ध्यानावस्था आध्यात्मिक जीवन की निकटतम समीपता है। समस्त जड पदार्थों से मुक्त होकर आत्मा का अपने बारे में चिन्तन—आत्मा का यह अद्भुत संस्पर्श—यही हमारे दैनिक जीवन में एकमात्र ऐसा क्षण है, जब हम भी किंचित भी पार्थिव नहीं रह जाते।
शरीर हमारा शत्रु है और मित्र भी। तुममे से कौन वास्तविक दुःख का दृश्य सहन कर सकता है? और यदि केवल किसी चित्र में तुम दुःख का दृश्य देखो, तो तुममें से कौन उसे सहन नहीं कर सकता? इसका कारण क्या है, जानते हो? हम चित्र से अपने को तादात्म्य नहीं करते, क्योंकि चित्र असत् है अवास्तविक है, हम जानते हैं कि वह एक चित्र मात्र है, वह न हम पर कृपा कर सकता है न हमें चोट पहुँचा सकता है। यही नहीं, यदि परदे पर एक भयानक दुःख चित्रित किया गया हो, तो शायद हम उसका रस भी ले सकते हैं। हम चित्रकार के शिल्प की प्रशंसा करते हैं, हम उसकी असाधारण प्रतिभा परे आश्चर्यचकित हो जाते हैं, भले ही चित्र बीभत्सतम क्यों न हो। इसका रहस्य क्या है, जानते हो? अनासक्ति ही इसका रहस्य है। अतएव साक्षी बनो।
जब तक 'मैं साक्षी हूँ', इस भाव तक तुम नहीं पहुँचते, तब तक प्राणायाम अथवा योग की भौतिक क्रियाएँ आदि किसी काम की नहीं। यदि खूनी हाथ तुम्हारी गर्दन पकड ले, तो कहो, "मैं साक्षी हूँ! मै साक्षी हूँ!" कहो, "मैं आत्मा हूँ! कोई भी बाह्य वस्तु मुझे स्पर्श नहीं कर सकती।" यदि मन में बुरे विचार उठें, तो बार-बार यही दुहराओ, यह कह-कहकर उनके सिर पर हथौडे की चोट करो कि "मैं आत्मा हूँ मैं नित्य शुभ और कल्याणस्वरूप हूँ! कोई कारण नहीं कि मैं कर्म करूँ, कोई कारण नहीं, जो मैं भुगतूँ, मेरे सब कर्मों का अन्त हो चुका है, मैं साक्षीस्वरूप हूँ। मैं अपनी चित्रशाला में हूँ--यह जगत मेरा अजायबघर है मैं इन क्रमागत चित्रों को केवल देखता जा रहा हूँ। वे सभी सुन्दर हैं--भले हों या बुरे। मैं अद्भुत कौशल देख रहा हूँ, किन्तु यह समस्त एक है। उस महान चित्रकार परमात्मा की अनन्त अर्चियाँ!" सचमुच, किसी का अस्तित्व नहीं--न संकल्प है, न विकल्प। वे प्रभू ही सब कुछ हैं। ईश्वर—चित्-शक्ति--जगदम्बा लीला कर रही हैं, और हम सब गुडियों जैसे हैं, उनकी लीला में सहायक मात्र हैं। यहाँ वे किसी को भी भिखारी के रूप में सजाती हैं, और कभी राजा के रूप में, तीसरे क्षण उसे साधु का रूप दे देती हैं और कुछ ही देर बाद शैतान की वेश-भूषा पहना देती है। हम जगन्माता को उनके खेल में सहायता देने के लिए भिन्न-भिन्न वेश धारण कर रहे हैं।
जब तक बच्चा खेलता रहता है, तब माँ के बुलाने पर भी नहीं जाता। पर जब उसका खेलना समाप्त हो जाता है, तब वह सीधे माँ के पास दौड जाता है, फिर 'ना' नहीं करता। इसी प्रकार हमारे जीवन में भी ऐसे क्षण आते हैं, जब हम अनुभव करते हैं कि हमारा खेल खत्म हो गया, और तब हम जगन्माता की ओर दौड जाना चाहते हैं। तब, हमारी आँखों में यहाँ के अपने समस्त क्रिया-कलापों का कोई मूल्य नहीं रह जाता; नर-नारी-बच्चे, धन-नाम-यश, जीवन के हर्ष और महत्व, दण्ड और पुरस्कार—इनका कुछ भी अस्तित्व नहीं रह जाता, और समस्त जीवन उडते दृश्य-सा जान पडता है। हम देखते हैं केवल एक असीम लय-लहरी को किसी अज्ञात दिशा में बहते हुए-बिना किसी छोर के, बिना किसी उद्देश्य के हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि हमारा खेल समाप्त हो चुका।
(III, ९७-९८)
Note : This coming 5days some of us will receive katha from the email as well as Daily-Group, this is to make sure nobody is missed out during this transition period.
Read n Get Articles, Magazines, Books @ http://prakashan.vivekanandakendra.org
मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
No comments:
Post a Comment