Tuesday 5 August 2014

सुख-दुःख से परे



    हम देखते हैं कि संसार में सब प्रकार के सुख के पीछे, उसकी छाया के रूप में दुःख रहता है। जीवन के पीछे, उसकी छाया मृत्यु रहती है। वे दोनों सदा एक साथ ही रहते हैं, कारण, वे परस्पर विरोधी नहीं हैं, वे पृथक् सत्ताएँ नहीं हैं, वे एक ही वस्तु के दो विभिन्न रूप हैं, वह एक ही वस्तु जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख, अच्छे-बुरे, आदि रूप में व्यक्त हो रही है। यह द्वैतवादी धारणा कि शुभ और अशुभ, ये दोनों पृथक वस्तुएँ हैं और वे चिरन्तन हैं, नितान्त असंगत हैं। वे वास्तव में एक ही वस्तु के विभिन्न रूप है वह कभी अच्छे रूप में और कभी बुरे रूप में भासित हो रही है। यह भिन्नता प्रकारगत नहीं, परिमाणगत है। उनका भेद वास्तव में एक मात्रा के तारतम्य में है। हम देखते हैं कि एक ही स्नायु-प्रणाली अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के प्रवाह ले जाती है। किन्तु यदि स्नायुमण्डली किसी तरह बिगड जाये, तो फिर किसी प्रकार की अनुभूति न होगी।
 (II, १३५)
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            मनुष्य की लगभग असाध्य बीमारी है कि वह प्रकृति के दोहरेपन, जैसे प्रसन्नता और शोक, सर्दी और गर्मी, सम्मान और अपमान का गुलाम है जिससे वह अपना संतुलन खो बैठता है। "मैं संसार से भिन्न हूँ" यह अज्ञान है जो उसे विचलित करता है। जब उसे प्रसन्नता प्राप्त होती है, मन मयूर नाचने लगता है। जब दुःख आ जाता है तो वह प्रत्येक में दोष ढूँढने लगता है और एक कोने में बैठ जाता है। हमें अपने मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति के दोहरेपन को समत्व भाव से देखे और उन अनुभूतियों को अपने आध्यात्मिक विकास में शिक्षा के रूप में ग्रहण करें। स्वामीजी का संदेश इस हेतु पर्याप्त संकेत उपलब्ध करवाता है।

            केवल अद्वैत के विचार ही मन को इस दोहरेपन से मुक्त कर सकते हैं। मन को अद्वैत वृत्ति पर रखने में धर्म बहुत सहायक होता है। सत्य के एकत्व की जागरूकता, कि हमारी समस्त अनुभूतियाँ वहीं से प्रारंभ हुई हैं और पुनः वहीं लौटेंगीं और हम उस विशालकाय पूर्णता के एक अंग मात्र हैं, हमें अपना मस्तक झुकाने और दोहरेपन की कठिनाइयों से बचाव में सहायक होगी।

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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्ध‌‌यसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥

Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26

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