ॐ
प्रत्येक सुखोपभोग के बाद दुःख आता है--यह दुःख उसी क्षण आ सकता है, अथवा सम्भव है, कुछ देर में आये। जो आत्मा जितनी उन्नत है, उसे सुख के बाद दुःख भी उतना ही शीघ्र प्राप्त होता है। हमें सुख-दुख दोनों ही नहीं चाहिए। ये दोनों ही हमारे प्रकृत स्वरूप को भुला देते हैं। दोनों ही जंजीर हैं--एक लोहे की, दूसरी सोने की। इन दोनों के पीछे ही आत्मा है--उसमें न सुख है, न दुःख। सुख-दुःख दोनों ही अवस्था विशेष है और प्रत्येक अवस्था सदा परिवर्तनशील होती है। परन्तु आत्मा आनन्दस्वरूप होती है, वह तो हमारा प्रकृत रूप ही है, केवल मैल को धो डालो, तभी उसका दर्शन होगा।
इस आत्मास्वरूप में प्रतिष्ठित होकर ही हम जगत से ठीक-ठीक प्रेम कर सकेंगे। खूब उच्च भाव में अपने को प्रतिष्ठित करो, 'मैं आत्मास्वरूप हूँ' यह समझकर हमें जगत्प्रपंच की ओर सम्पूर्ण शान्ति भाव से दृष्टिपात करना होगा। यह जगत तो एक छोेटे बच्चे के खिलौने के समान है; हम जब उसे समझ लेंगे तब जगत् में कुछ भी क्यों न हो, वह हमें चंचल नहीं कर सकेगा। यदि प्रशंसा से मन प्रसन्न होगा तो निन्दा से वह अवश्य ही विषण्ण हो जायेगा। केवल इन्द्रियों का ही नहीं, मन का भी सभी सुख अनित्य है; किन्तु हमारे भीतर ही वह निरक्षेप सुख रहता है जो किसी और के ऊपर निर्भर नहीं रहता। यह सुख पूरी तरह स्वायत्त और आनन्दस्वरूप है। सुख के लिए आभ्यन्तरिक आत्मा पर हम जितना निर्भर रहेंगे, उतना ही हम आध्यात्मिक होंगे।
(VI, १८)
आत्मज्ञान में जडें जमाये हुए, स्वामीजी हमें सावधान करते हैं कि हम सुख और दुःख की ओर देखकर यह अनुभव करें कि ये दोनों, सोने और लोहे की दो जंजीरें हैं। हमें उन्हें तोड देना चाहिए और निडर होकर जीवन का सामना करना चाहिए।
अन्तर्जगत्--जो कि वास्तव में सत्य है--बहिर्जगत् की अपेक्षा अनन्त गुणा श्रेष्ठ है। बहिर्हगत् तो उस सत्य अन्तर्जगत् का छायामय प्रक्षेप मात्र है। वह जगत् न तो सत्य है, न मिथ्या। यह तो सत्य की छाया मात्र है। कवि कहते हैं "यह कल्पना सत्य की स्वर्णिम छाया है।"
यह थाउजेंड आइलैंड पार्क चिंतन में उपस्थित स्वामीजी के शिष्यों के लिए एक नवीन अन्तर्दृष्टि रही होगी। स्वामीजी की राय में सभी वस्तुएँ अपने आप में मृत हैं; केवल हम उन्हें जीवन प्रदान करते हैं और तब, मूर्खों की तरह घूमकर, या तो उनसे डरते हैं या उनका आनन्द उठाते हैं। स्वामीजी ने उनके सम्मुख एक मछुआरिन की कहानी सुनाई जो प्रायः श्री रामकृष्ण द्वारा उद्धृत की जाती थी और उन्हें याद दिलाती थी कि यह संसार मछली की टोकरी की तरह है। हमें सुख-भोग के लिए उस पर निर्भर नहीं रहना चाहिए।
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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