Saturday 2 August 2014

माया और मुक्ति



अपने सुख, दुःख, विपत्ति और कष्ट-सभी अवस्थाओं में हम यह आश्चर्य की बात देखते है कि हम धीरे-धीरे मुक्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं। प्रश्न उठा-यह जगत् वास्तव में क्या है? कहाँ से इसकी उत्पत्ति हुई और कहाँ इसका लय है? और इसका उत्तर था-मुक्ति से ही इसकी उत्पत्ति है, मुक्ति में यह विश्राम करता है और अन्त में मुक्ति में ही इसका लय हो जाता है। यह जो मुक्ति की भावना है कि वास्तव में हम मुक्त हैं, इस आश्चर्यजनक भावना के बिना हम एक क्षण भी नहीं चल सकते; इस भाव के बिना तुम्हारे सभी कार्य, यहाँ तक, कि तुम्हारा जीवन तक व्यर्थ है। प्रतिक्षण प्रकृति यह सिद्ध किये दे रही है कि हम दास हैं, पर उसके साथ ही दूसरा भाव भी हमारे मन में उत्पन्न होता रहता है कि हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण हम माया से आहत होकर बद्ध से प्रतीत होते हैं, पर उसी क्षण, उस आघात के साथ ही-'हम बद्ध हैं, इस भाव के साथ ही-और भी एक भाव हममें आता है कि हम मुक्त हैं। मानो हमारे अन्दर से कोई कह रहा है कि हम मुक्त हैं। पर इस मुक्ति की ह्रदय से उपलब्धि करने में, अपने मुक्त स्वभाव को प्रकट करने में जो बाधाएँ उत्पन्न होती हैं, वे भी एक प्रकार से अनितक्रमणीय है। तो भी अन्दर से, हमारे ह्रदय के अन्तस्तल से मानो कोई सर्वदा कहता रहता है -- 'मैं मुक्त हूँ, मैं मुक्त हूँ।' और यदि तुम संसार के विभिन्न धर्मों का अध्ययन करो, तो देखोगे, उन सभी में किसी रूप में यह भाव प्रकाशित हुआ है। केवल धर्म नहीं, धर्म शब्द को तुम संकीर्ण अर्थ में मत लो, वरन् सारा सामाजिक जीवन इसी एक मुक्त भाव की अभिव्यक्ति है। सभी प्रकार की सामाजिक गतियाँ उसी एक मुक्त भाव की अभिव्यक्तियाँ हैं। मानो सभी ने, जाने-अनजाने, उस स्वर को सुना है, जो दिन-रात कह रहा है, "हे थके-माँदे और बोझ से लदे हुए मनुष्यों! मेरे पास आओ!" मुक्ति के लिए आह्वान करने वाली यह वाणी भले ही एक ही प्रकार की भाषा अथवा एक ही ढंग से प्रकाशित न होती हो, पर किसी न किसी रूप में वह हमारे साथ सदैव वर्तमान है। हमारा यहाँ जो जन्म हुआ है, वह भी इसी वाणी के कारण; हमारी प्रत्येक गति इसी के लिए है। हम जानें या न जानें, पर हम सभी मुक्ति की ओर चल रहें हैं, उसी वाणी का अनिसरण कर रहे हैं। जिस प्रकार गाँव के बालक वंशीवादक के संगीत से खींचकर चल जाते थे, उसी प्रकार हम भी, बिना जाने ही, उस वाणी के संगीत का अनुसरण कर रहे हैं।                                                                    (II, ८०-८९)


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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji

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