Wednesday 11 April 2018

निवेदिता - एक समर्पित जीवन - 31

यतो धर्म: ततो जय:

निवेदिता की ओजस्वी वाणी
  • श्रीरामकृष्ण एवं स्वामीजी - ये दोनों जीवन ही भारत के अखण्ड सत्य हैं। इन दोनों महाजीविनों के अन्तर्गत ही समग्र भारत की एकता निहित है। भारतवर्ष इन दोनों महापुरुषों को हृदय में धारण करेगा- इसी की सबसे अधिक आवश्यकता है।
  •  मैं विश्वास करती हूँ - भारतवर्ष एक अखण्ड,अविभाज्य देश है। एक आवास, एक स्वार्थ, एक सम्प्रति के ऊपर ही राष्ट्रीय ऐक्य गठित है। मैं विश्वास करती हूं - भारतवर्ष का वर्तमान उसके अतीत के साथ घनिष्ठ रूप से संबद्ध है तथा उसेक सामने एक गौरवमय भविष्य जाज्वललयमान है। विश्वजनीन भावों के अंशस्वरूप राष्ट्रीय भावों को आतमगत करना होगा तथा उसके लिए प्रयोजनानुसार अचारों के बन्धन को तोडना होगा; परन्तु ऐसा व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए नहीं होना चाहिए। स्वार्थरहित मानव मानो वज्र हो सके। कैसे ? यह प्रश्न हमारा नहीं है। लेखा-जोखा भी हम लोगों के लिए नहीं है। हम लोगों के लिए है - केवल वेदी पर आत्म-बलिदान।
  • जब कोई मानवजाती के कल्याणार्थ सम्पूर्ण आत्मदान करता है, तब वह देवता के हस्तस्थित वज्र के समान शक्तिसम्पन्न हो जाता है। अशिक्षित असहायक एक मानव के ऊपर अत्याचार करना सहज है, किन्तु सचेतन संगठित दस हजार मनुष्य के ऊपर अत्याचार करना कठिन है स्वयं चिन्तन कर मार्ग का सन्धान करो। अपने चिंतन को कार्य में परिणत करो। अतीत के भ्रान्तियों से शिक्षा ग्रहण करो।
  • जीवन,जीवन,जीवन, मैं जीवन चाहती हुं तथा जीवन का एकमात्र पर्यायवाची शब्द है स्वाधीनता। वैसा नहीं होने पर मृत्यु ही श्रेय है।
  • ऐसे जीवन की धारणा करो जिसमें समस्वार्थ, सम्प्रयोजन तथा पारस्पारिक सहायता का कर्तव्यबोध उदबुद्ध हो। मैं प्रेम करती हूं, दुःख से, संग्राम से, आत्मबलिदान से, उसका अधिकार हमें प्राप्त हो।
  • प्रत्येक सुशिक्षित नर-नारी अपने राष्ट्र के लिए, सारी मानवजाति के इतिहास में श्रेष्ठ स्तम्भस्वरूप है। देश को शरीर,मन से बलिष्ठ देशप्रमी ही देश का उत्थान कर सकेंगे। वही वीर है जो युद्ध करता है, युद्ध करो, युद्ध करो, केवल युद्ध करो। परन्तु उसमें नीचता अथवा कटुता न रहे। जब संग्राम का आह्वान आएगा, तब सोना मत। संकट के समय भयभीत  होना, निरापति के लिए लालायित होना कपट आध्यात्मिकता है। आध्यात्मिकता के छद्मवेश को धारण कर घृणित स्वच्छन्दता का सन्धान करने वाला, जीवन के युद्धक्षेत्र से कापुरुष की तरह पलायन करने वाला देशप्रेम है-कपट देशप्रेम। 
  • राष्ट्रीयता को वास्तविक रूप से देने हेतु आवश्यक है सभी बच्चों के समक्ष उसके देश के इतिहास को प्रत्यक्ष माध्यम बनाना।
  • न्याय का पथ अवरोध कर जो खड़े है, वे सावधान हो जाएं।
  • सारे इतिहास में ऐसे लग्न उपस्थित होते है, जब निर्मम, निष्ठुर लोग कांप उठते है, ईश्वर की करुणा हेतु प्रार्थना कर चीत्कार कर उठते है, परन्तु देखते है, वह उनके लिए अदृश्य है।
  • छात्र लोग तीर्थयात्री की तरह भारत के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करें, क्योंकि स्थान के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष अभिज्ञता की ही आवश्यकता है। हम लोग क्या अपने बाल-बच्चों के अन्दर परदुःख -कतराता प्रस्फुटित नहीं कर सकते ? यह परदुःख -कतराता पही सभी मनुष्यों के दुःख, देश की दुरावस्था तथा वर्तमान में धर्म कितना विपदाग्रस्त है, यह जानने हेतु आग्रह प्रदान करेगा। यह ज्ञान होने के साथ ही देश में अनेक शक्तिशाली कर्मवीरों का जन्म होगा, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करेंगे तथा स्वदेश एवं स्वदेशवासियों की सेवा के लिए मृत्यु को भी आलिंगन करने हेतु प्रस्तुत रहेंगे।
  • नारियां ही सभी देश में नीति तथा सदाचारों की आदर्श रक्षाकत्री होती है।
  • शिक्षा ही तो भारतवर्ष की समस्या है। कैसे प्रकृत शिक्षा राष्ट्रीय शिक्षा की व्यवस्था हो सकती है, यूरोप के निकृष्ट अनुकरण के बदले भारतवर्ष की एक प्रकृत सन्तान के रूप में तुम लोगों का गठन किया जा सके-यही समस्या है। तुम लोगों की शिक्षा होगी-हृदय.,आत्मा तथा मस्तिष्क का उन्नति साधन। तुम्हारी शिक्षा का लक्ष्य होगा-परस्पर एवं अतीत तथा वर्तमान जगत के बीच सक्षात योगसूत्र स्थापित करना। शिक्षा का अर्थ बहरी ज्ञान तथा शक्ति संचय करना नहीं, अपने भीतर की शक्ति को सम्यक रूप से विकसित करने के साधना है। भारतवर्ष की शिक्षा की भित्ति है-त्याग और प्रेम। आत्मत्याग के द्वारा ही प्रेम का जन्म होता है तथा प्रेम के द्वारा ही त्याग की उत्पति एवं प्रसार होता है। त्याग का अर्थ निःस्वार्थ होना नहीं है अक्षयधन से धनि होने का मार्ग ही त्याग है। त्याग का तात्पर्य संसार के भय से पलायन करना नहीं है, बल्कि जागर-समाज में विजयी होने का एकमात्र उपाय ही आत्मत्याग है; किन्तु वह त्याग स्वार्थबोधहीन होना चाहिए। जो त्याग के पथ पर अनजाने में भी अभिमान अथवा कामना की छाया का स्पर्श करता है, उसका अमूल्य दान भी मुट्ठीभर दुलदान की तरह तुच्छ हो जाता है।
  • शिक्षार्थी को यद् रखना होगा की उसका उद्देश्य अपनी उन्नति और कल्याण हो नहीं है, बल्कि जन -धर्म के प्रति दृष्टि रखकर ही वह शिक्षा दान करे। वही शिक्षार्थी को यथार्थ मनुष्य बनाकर स्वदेश सेवा में नियुक्त करता है। स्वदेश प्रेम जब हृदय में दृढ रुप से अंकित होकर देश की संस्कृति तथा आदर्श को गर्व के साथ श्रद्धा करना सिखाता है, तभी दूसरी जाती के महत्व तथा उच्च आदर्श को यथार्थ मर्म को ग्रहण करना संभव होता है अन्यथा आन्तर्जातिकता की दुहाई देकर दूसरी जाती का अनुकरण चरित्र को निकृष्ट कर देता है।





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