Friday, 5 February 2016

अार्दश कार्यकार्ता

  • स्वार्थ, मोह, चारों ओर के वातावरण में व्याप्त भिन्न-भिन्न विचारों का संघर्ष तथा अन्य आकर्षणों से अपने हृदय को विचलित न होने देते हुए, अपनी मातृभूमि, अपना समाज, स्वधर्म और अपने चिरंजीव राष्ट्रजीवन का, अंतःकरण की सम्पूर्ण शक्ति लगाकर चिंतन करने में अपना जीवन समरस होना चाहिये। एकाग्रचित्त से किये गये चिंतन का स्वाभाविक रूप से यह फल मिलता है कि किसी भी बुरी बात की ओर मन आकृष्ट नहीं होता। परमेश्वर के व्यक्त स्वरूप से अपने पवित्र राष्ट्र के चिंतन में, समरस हुए जीवन में, कुविचार, अनीति, पाप आदि का प्रवेष हो ही नहीं सकता। समग्र समाज के अभ्युदय के लिये कार्य करना हो तो अपना जीवन पवित्र होना ही चाहिये।
  • अपने चारों और चलनेवाले कार्यों का आकर्षण होना अस्वाभाविक नहीं है। जुलूस, सम्मेलन, सभा आदि की हलचल जहाँ रहती है, वहाँ मन में कुछ गुदगुदी उठ सकती है। उस कार्यपद्धति में मान-सम्मान प्राप्त होने के कारण अपने में से कुछ लोगों के मन में उसके प्रति आकर्षण उत्पन्न होकर, स्वयं भी उस अखाड़े में उतरकर दंगल में भाग लेने की इच्छा हो सकती है। मन में इस प्रकार की इच्छा उत्पन्न होते ही, इस प्रकार के कार्य से राष्ट्र का हित होगा, इस बात के समर्थन में बुद्धि अनेक तर्क प्रस्तुत करती है। क्योंकि उलटे-सीधे दोनों ही पक्षों के समर्थन में तर्क करने में बुद्धि सदैव सक्षम रहती है।
  • व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन में मातृभूमि की भक्ति जगाकर और उस सूत्र में संपूर्ण समाज को आबद्ध कर, समाज का संगठित सार्मथ्य निर्माण करने का मूलभूत कार्य डाॅक्टर साहब ने हमारे सामने रखा है। इसी कार्यार्थ हमें अपनी संपूर्ण शक्ति लगानी चाहिये। शाखाओं के द्वारा समाज में एकात्म जीवन निर्माण करने की पद्धति का पूर्णतः अवलंबन कर, इस कार्य की सिद्धि के लिये हम अपना संपूर्ण सार्म दाँव पर लगा देंगें, ऐसा दृढ़ निश्चय हृदय में धारण करना चाहिये।
  • यदि अधिकाधिक अंतर्मुख होने का प्रयत्न करेंगे, तो हमें अपने जीवनकार्य और कर्तव्य का साक्षात्कार होगा और तब कर्तव्य की पुकार सुनाई देगी। हम श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं और समाजसेवकों के प्रति केवल अभिमान धारण न करें, उनके अनुसार कर्म करने का प्रयास भी करें। लेकिन अंतर्मुख होना सरल बात नहीं है। उसके लिये शरीर, मन व बुद्धि की पूर्ण अंतर्बहि शुचिता आवश्यक है। विचार, वाणी और कर्म में ही नहीं तो स्वप्न में भी पूर्ण पवित्रता हो। इसके अतिरिक्त कुछ भी न हो। इसका अभ्यास करना पड़े़गा।
  • सर्वप्रथम हमें अपना जीवन पवित्र बनाना होगा। खोखले शब्दों से हम दुनिया के लोगों को शिक्षा नहीं दे सकते। उक्ति के अनुरूप आचरण न हो तो शब्द निरर्थक हैं। यदि हम पवित्रता की बात कहना चाहते हों, तो हम उन वर्तमान सार्वजनिक नेताओं की नकल न करें, जो बार-बार पवित्रता पर भाषण तो देते हैं, परंतु यह जानने को कि वे स्वयं क्या हैं, निरीक्षण करने की इच्छा नहीं रखते। हम जो कहना चाहते हैं, उसके अनुसार हमारा आचरण होना चाहिये। भगवान् की कृपा से हमें एक श्रेष्ठ संस्कृति, एक जीवनोद्देश्य परंपरा से प्राप्त हुआ है। अतः उसके अनुसार हमारी कृति होनी चाहिये।
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji

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