1. संघर्षमुक्त और दुःखमुक्त एकात्म मानव की कल्पना ही अपने अतिप्राचीन राष्ट्र की प्रेरक शक्ति है। वही अपना अनादि-अनंत स्फूर्ति केन्द्र है। सर्वेपिऽसुखिनः सन्तु, सर्वे सन्तु निरामयाः सदैव से हमारी प्रार्थना रही है। हम परमेश्वर से यही निवेदन करते रहे हैं कि सब लोग सुखी और व्याधिमुक्त रहें। पश्चिमी जगत् के आज के विद्वान अभी भी 'अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख' की संकल्पना से परे नहीं जा पाये हैं, पर हम भारतीयों को तो एक भी प्राणी का दुःख असहनीय है। प्राणिमात्र के चिरकल्याण के भव्य व उदात्त आदर्श को हमने अंगीकार किया है।
2. प्रत्येक राष्ट्र के जीवनसंगीत का एक विशिष्ट स्वर होता है। उसके साथ सुसंवाद साधने पर ही राष्ट्र की प्रगति होती है। अपने हिंदू राष्ट्र ने भी अनादिकाल से एक विशिष्टता का रक्षण किया है। भारतीय दृष्टि से अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ भौतिक सुख के पहलू हैं। यह मानवी जीवन के केवल उपांग हैं। इनसे सब परिचित भी हैं। परन्तु अपने पूर्वजों ने धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ को मानवी जीवन के लिये अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के आधार पर ही उन्होंने अपने समाज की रचना की। अतिप्राचीनकाल से अपना समाज संपत्ति और समृद्धि के लिये तो विख्यात रहा ही, लेकिन उससे भी अधिक ऊपर बताये गये बाकी जीवन के दो पहलुओं के लिये विशेष रूप से जाना गया। इसी लिये अत्यन्त नीतिमान्, आध्यात्मिक व तत्त्वज्ञानी समाज के नाते अपने को जाना जाता रहा है। अपने यहाँ मोक्ष प्राप्ति अर्थात् प्रत्यक्ष परमेश्वर से संबंध स्थापित करने को ही मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया।
3. आजकल एक शब्दप्रयोग किया जाता है कि 'मनुष्य के जीवनस्तर को ऊँचा उठाना है।' यह कहने का उनका अर्थ इतना ही होता है कि अधिकाधिक भौतिक सुखों को प्राप्त करना। इंद्रियों को सुख देनेवाले इन विशयों की प्राप्ति के लिये अर्थ का संचय करना क्रम-प्राप्त है। संपत्ति का संचय करने के लिये सत्ता की आवश्यकता होती है। इसलिये संसार के बलवान् राष्ट्र अपनी शक्ति के बलबूते पर अन्य राश्ट्रों का शोषण कर, उन्हें कष्ट दे अपनी झोली भरते हैं। इसी में से सत्ता संघर्ष प्रारंभ होता है। फिर युद्ध होते हैं, सारे नीति-नियम उद्ध्वस्त होते हैं। अधःपतन की इस प्रक्रिया को स्पर्धा का सुंदर नाम दिया जाता है।
4. एक मत या संप्रदाय के अनुयाइयों ने दूसरे मत या संप्रदाय के अनुयाइयों पर आक्रमण नहीं करना चाहिये, इतने पर हिंदू जीवन दर्शन ठहरा नहीं। हिंदू जीवनदर्शन जीवनव्यापी और सर्वसमावेशक है। हिंदू सत्ताधीशों में यह दर्शन अत्यधिक गइराई तक समाया हुआ है। इसी कारण हिंदू राजा अल्पसंख्यकों के मत व संप्रदायों का समादर करते रहे हैं। इतना ही नहीं, वे उन अल्पसंख्यकों के स्वाभाविक विकास में प्रत्यक्ष सहयोग भी करते रहे हैं। हमारे राजा कभी धर्म या संप्रदाय विरोधी नहीं रहे। वे तो सारे धर्मों का आधार होते थे, संरक्षक होते थे। धर्मनिरपेक्ष शब्द का वास्तविक आशय भी यही है। यह विधायक विचार ही भारत ने स्वीकार किया है। इस अर्थ में भारतीय राज्यशासन सच्चे अर्थ में सदैव से धर्मनिरपेक्ष रहा है। इसी कारण अपने देश में राज्य पद्धति का वर्णन करते समय धर्मनिरपेक्षता के विशेषण का उपयोग करना अनावश्यक है।
5. साम्यवाद में वर्गसंघर्ष का चाहे जितना विचार हो, परंतु अंत में ऐसी अवस्था का ही चित्र देखा है, जिसमें सभी संघर्ष शांत होकर वर्गविहीन तथा राज्यविहीन अवस्था का निर्माण हो। किंतु आज के स्वार्थलिप्त तथा विषयासक्त मानव के लिये यह बात कविकल्पना तथा आकाशपुष्प की भाँति मिथ्या है। मानव जब अतिमानव बनेगा, सृष्टि के साथ अपने संबंधों का साक्षात्कार करेगा, चारित्र्य को ऊपर उठाएगा और परस्पर एकात्मता की पूर्ण अनुभूति करेगा, तभी राज्यविहीन समाज की रचना संभव होगी। हमारे प्राचीन विचारकों ने भी कहा है-
2. प्रत्येक राष्ट्र के जीवनसंगीत का एक विशिष्ट स्वर होता है। उसके साथ सुसंवाद साधने पर ही राष्ट्र की प्रगति होती है। अपने हिंदू राष्ट्र ने भी अनादिकाल से एक विशिष्टता का रक्षण किया है। भारतीय दृष्टि से अर्थ पुरुषार्थ और काम पुरुषार्थ भौतिक सुख के पहलू हैं। यह मानवी जीवन के केवल उपांग हैं। इनसे सब परिचित भी हैं। परन्तु अपने पूर्वजों ने धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ को मानवी जीवन के लिये अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के आधार पर ही उन्होंने अपने समाज की रचना की। अतिप्राचीनकाल से अपना समाज संपत्ति और समृद्धि के लिये तो विख्यात रहा ही, लेकिन उससे भी अधिक ऊपर बताये गये बाकी जीवन के दो पहलुओं के लिये विशेष रूप से जाना गया। इसी लिये अत्यन्त नीतिमान्, आध्यात्मिक व तत्त्वज्ञानी समाज के नाते अपने को जाना जाता रहा है। अपने यहाँ मोक्ष प्राप्ति अर्थात् प्रत्यक्ष परमेश्वर से संबंध स्थापित करने को ही मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया।
3. आजकल एक शब्दप्रयोग किया जाता है कि 'मनुष्य के जीवनस्तर को ऊँचा उठाना है।' यह कहने का उनका अर्थ इतना ही होता है कि अधिकाधिक भौतिक सुखों को प्राप्त करना। इंद्रियों को सुख देनेवाले इन विशयों की प्राप्ति के लिये अर्थ का संचय करना क्रम-प्राप्त है। संपत्ति का संचय करने के लिये सत्ता की आवश्यकता होती है। इसलिये संसार के बलवान् राष्ट्र अपनी शक्ति के बलबूते पर अन्य राश्ट्रों का शोषण कर, उन्हें कष्ट दे अपनी झोली भरते हैं। इसी में से सत्ता संघर्ष प्रारंभ होता है। फिर युद्ध होते हैं, सारे नीति-नियम उद्ध्वस्त होते हैं। अधःपतन की इस प्रक्रिया को स्पर्धा का सुंदर नाम दिया जाता है।
4. एक मत या संप्रदाय के अनुयाइयों ने दूसरे मत या संप्रदाय के अनुयाइयों पर आक्रमण नहीं करना चाहिये, इतने पर हिंदू जीवन दर्शन ठहरा नहीं। हिंदू जीवनदर्शन जीवनव्यापी और सर्वसमावेशक है। हिंदू सत्ताधीशों में यह दर्शन अत्यधिक गइराई तक समाया हुआ है। इसी कारण हिंदू राजा अल्पसंख्यकों के मत व संप्रदायों का समादर करते रहे हैं। इतना ही नहीं, वे उन अल्पसंख्यकों के स्वाभाविक विकास में प्रत्यक्ष सहयोग भी करते रहे हैं। हमारे राजा कभी धर्म या संप्रदाय विरोधी नहीं रहे। वे तो सारे धर्मों का आधार होते थे, संरक्षक होते थे। धर्मनिरपेक्ष शब्द का वास्तविक आशय भी यही है। यह विधायक विचार ही भारत ने स्वीकार किया है। इस अर्थ में भारतीय राज्यशासन सच्चे अर्थ में सदैव से धर्मनिरपेक्ष रहा है। इसी कारण अपने देश में राज्य पद्धति का वर्णन करते समय धर्मनिरपेक्षता के विशेषण का उपयोग करना अनावश्यक है।
5. साम्यवाद में वर्गसंघर्ष का चाहे जितना विचार हो, परंतु अंत में ऐसी अवस्था का ही चित्र देखा है, जिसमें सभी संघर्ष शांत होकर वर्गविहीन तथा राज्यविहीन अवस्था का निर्माण हो। किंतु आज के स्वार्थलिप्त तथा विषयासक्त मानव के लिये यह बात कविकल्पना तथा आकाशपुष्प की भाँति मिथ्या है। मानव जब अतिमानव बनेगा, सृष्टि के साथ अपने संबंधों का साक्षात्कार करेगा, चारित्र्य को ऊपर उठाएगा और परस्पर एकात्मता की पूर्ण अनुभूति करेगा, तभी राज्यविहीन समाज की रचना संभव होगी। हमारे प्राचीन विचारकों ने भी कहा है-
न वै राज्यं न राजासीत् न दण्डो न च दाण्डिकः।
धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्।।
न राज्य की आवश्यकता है, न राजा की, न दंड-विधान की और न दांडिक की। यदि आवश्यकता है तो केवल धर्म की। धर्म से ही प्रजा सौहार्द से रहेगी।धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्।।
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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. . . Are you Strong? Do you feel Strength? — for I know it is Truth alone that gives Strength. Strength is the medicine for the world's disease . . . This is the great fact: "Strength is LIFE; Weakness is Death." | |
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