1. हमें उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार करनेवाले, ध्येयवादी, कठोर निश्चयी, अपना सब कुछ संगठन को समर्पित करनेवाले युवकों को एकसूत्र में पिरोना है। अपने स्वयं से प्रारंभ कर यह उत्तरदायित्व ग्रहण किया जाए। अपने अन्तःकरण में अन्य वृत्तियों को स्थान न रहे। सुवर्ण के कण-कण को तोड़ा गया तो भी शुद्ध सुवर्ण ही मिलता है, उसी प्रकार अपने मन का कण-कण संगठनमय रहना चाहिये। अखण्ड तैल-घारा के समान अपनी वृत्ति एकाग्र रहनी चाहिये। इतनी तन्मयता हो कि अपने सारे व्यवहार-भोजन, शयन आदि संगठन के लिये ही हों।
2. यद्यपि अत्यन्त प्रक्षोभजनक, उद्वेग पैदा करनेवाली घटनाएँं होती हों, तब भी अपना धीरज और गम्भीर वृत्ति नहीं छोड़नी चाहिये। लोग भले ही अपनी उस वृत्ति का उपहास करते हों, फिर भी हमें उसके बारे में मौन रहना चाहिये। हमें संगठन करना है, इसलिये अहंकार का त्याग करना होगा। अहंकार-त्याग ही सर्वस्व त्याग है। अहंकार का त्याग करने के पश्चात् त्याग करने को कुछ भी शेष नहीं बचता।
3. अपने काम में केवल श्रद्धा का गुण होना ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ बुद्धिमत्ता और नेतृत्व-कुशलता भी होनी चाहिये। कुछ स्वयंसेवक केवल श्रद्धा से आते हैं, वे उत्तम अनुयायी होते हैं। श्रद्धालुता में कभी-कभी स्वभाव का भोलापन होता है, क्वचित् पागलपन भी रहता है। वह नहीं चाहिये। अंधी-लूली श्रद्धा किस काम की ?
4. शुष्क तत्त्वचिंतन से मन इतस्ततः भटकने लगता है, बुद्धि कई बार अकर्मण्य बन जाती है। किंतु स्फूर्तिदायक आलंबन के प्राप्त होते ही तत्त्वचिंतन सुलभ हो जाता है। किसी आधार के अभाव में व्यापक और महान् शक्ति की अनुभूति यदि असंभव नहीं, तो भी कठिन अवश्य है। उस तत्त्व को हृदयंगम कर, तदनुरूप अपने जीवन को ढालने के लिये भावनाओं से ओतप्रोत अपने हृदय की स्थिति बनाना आवश्यक है। शुष्क शब्द उसके लिये सहायक नहीं हो सकते।
2. यद्यपि अत्यन्त प्रक्षोभजनक, उद्वेग पैदा करनेवाली घटनाएँं होती हों, तब भी अपना धीरज और गम्भीर वृत्ति नहीं छोड़नी चाहिये। लोग भले ही अपनी उस वृत्ति का उपहास करते हों, फिर भी हमें उसके बारे में मौन रहना चाहिये। हमें संगठन करना है, इसलिये अहंकार का त्याग करना होगा। अहंकार-त्याग ही सर्वस्व त्याग है। अहंकार का त्याग करने के पश्चात् त्याग करने को कुछ भी शेष नहीं बचता।
3. अपने काम में केवल श्रद्धा का गुण होना ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ बुद्धिमत्ता और नेतृत्व-कुशलता भी होनी चाहिये। कुछ स्वयंसेवक केवल श्रद्धा से आते हैं, वे उत्तम अनुयायी होते हैं। श्रद्धालुता में कभी-कभी स्वभाव का भोलापन होता है, क्वचित् पागलपन भी रहता है। वह नहीं चाहिये। अंधी-लूली श्रद्धा किस काम की ?
4. शुष्क तत्त्वचिंतन से मन इतस्ततः भटकने लगता है, बुद्धि कई बार अकर्मण्य बन जाती है। किंतु स्फूर्तिदायक आलंबन के प्राप्त होते ही तत्त्वचिंतन सुलभ हो जाता है। किसी आधार के अभाव में व्यापक और महान् शक्ति की अनुभूति यदि असंभव नहीं, तो भी कठिन अवश्य है। उस तत्त्व को हृदयंगम कर, तदनुरूप अपने जीवन को ढालने के लिये भावनाओं से ओतप्रोत अपने हृदय की स्थिति बनाना आवश्यक है। शुष्क शब्द उसके लिये सहायक नहीं हो सकते।
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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji
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