ॐ
हम भाषण सुनते हैं और पुस्तकें पढते हैं, परमात्मा और जीवात्मा, धर्म और मुक्ति के बारे में विवाद और तर्क करते हैं। यह आध्यात्मिकता नहीं है, क्योंकि आध्यात्मिकता पुस्तकों में, अथवा सिद्धांतों में अथवा दर्शनों में निवास नहीं करती। यह विद्वत्ता और तर्क में नहीं, वरन् वास्तविक अंतः विकास में होती है। तोते भी बातों को याद कर सकते हैं और उन्हें दोहरा सकते हैं। यदि तुम विद्वान हो जाते हो तो उससे क्या? गधे पूरा पुस्तकालय ढोते फिर सकते हैं। इसलिए जब वास्तविक प्रकाश आयेगा, तो पुस्तकों यह विद्वत्ता-किताबी विद्वत्ता नहीं रहेगी। वह मनुष्य, जो अपना नाम भी नहीं लिख सकता, पूर्णतया धार्मिक हो सकता है; और वह मनुष्य जिसके मस्तिष्क में संसार के सब पुस्तकालय भरें हों, वैसा होने में असफल रह सकता है। विद्वत्ता अाध्यात्मिक प्रगति की शर्त नहीं है। गुरू का स्पर्श, आध्यात्मिक शक्ति का संचरण, तुम्हारे ह्रदय में जान फूँक देगा। तब विकास आरम्भ होगा। सच्ची अग्निदीक्षा यही है। अब रुकना नहीं है। तुम आगे, आगे बढते जाते हो।गुरू मुझे सिखाये और प्रकाश में पहँचाये, मुझे उस श्रृंखला की एक कडी बनाये, जिसकी वह स्वयं एक कडी है। साधारण मनुष्य गुरू बनने का दावा नहीं कर सकता। गुरू ऐसा होना चाहिए, जिसने जान लिया है, दैवी सत्य को वास्तव में अनुभव कर लिया है और अपने को आत्मा के रूप में देख लिया है। केवल बातें करने वाला गुरू नहीं हो सकता। मेरे समान एक वाचाल मूर्ख बातें बहुत बना सकता है, पर गुरू नहीं हो सकता। एक सच्चा गुरू शिष्य से कहेगा, "जा और अब पाप न कर", और शिष्य अब और पाप नहीं कर सकता-उस व्यक्ति में पाप करने की शक्ति नहीं रहती।
वह शक्ति, जो एक क्षण में जीवन को परिवर्तित कर दे, केवल उन जीवन्त प्रकाशवान आत्माओं से ही प्राप्त हो सकती है, जो समय-समय पर हमारे बीच में प्रकट होती हैं। केवल वे ही गुरू होने के योग्य हैं।
(III, १९७-१९८)
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मुक्तसंग्ङोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥१८.२६॥
Freed from attachment, non-egoistic, endowed with courage and enthusiasm and unperturbed by success or failure, the worker is known as a pure (Sattvika) one. Four outstanding and essential qualities of a worker. - Bhagwad Gita : XVIII-26
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