Wednesday 27 January 2016

सामूहिक निर्माण शक्ति

4. इस विशाल देश में भिन्न-भिन्न भाषाओं और रीति-रिवाजों से युक्त होते हुए भी हम एक समाज के अंग हैं और वह हिंदू समाज है। वह भारत का समाज है, इस भूमि का समाज है। उसका जीवन इस भूमि के साथ मिला हुआ है। भारत का इतिहास याने हिंदू समाज का इतिहास है। अर्थात् भारत का जीवन हिंदू का जीवन है। भारतीय राश्ट्र हिंदू-राष्ट्रके नाते जीवन व्यतीत करने की बात हमने स्पष्ट रूप से, निर्भयतापूर्वक, बिना किसी हिचकिचाहट के, दूसरों की टीका का भय पाले बिना पूर्ण विश्वास के साथ रखी तथा इस सत्य को संसार से भी मान्यता प्राप्त करा लेने के लिये हमने आग्रहपूर्वक इसका प्रतिपादन किया। उसे सिद्ध करने तथा प्रकट करने के लिये ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण हुआ।

5. सप्त रंगों के सम्मिश्रण से जैसे शुभ्र प्रकाश निर्माण होता है, वैसे ही खान-पान, भाषा, वेश-भूषा आदि की विविघता से हमारा जीवन एकात्म रूप से प्रकाशित हुआ है। इसी का नाम भावनात्मक एकता है। यह एकता, सौदेबाजी से निर्माण नहीं होती। भावनात्मक एकता की आधारशिला है, अंतःकरण में समान भावनाओं की विद्यमानता। गहन चिंतन और निकट संपर्क से ही इस भावना की अनुभूति संभव है। सबको यह अनुभूति हो सके, इसी दृष्टि से संघकार्य की रचना की गई है। विविधता में एकता का दर्शन करानेवाली संघ की कार्यप्रणाली बेजोड़ है। दैनिक शाखा के कार्यक्रम में व्यक्ति रम जाता है और उसके अंतःकरण में एकता के भाव जाग उठते हैं।

6. यह राष्ट्र जो अपने सामने खड़ा है वही परमात्मा का व्यक्त रूप है। भगवान के स्वरूप का विवरण करते हुए अपने यहाँ स्पष्ट कहा गया है 'सहस्रषीर्शा पुरूशः सहस्राक्षः सहस्रपाद्' (ऋग्वेद 10-90-1)। व्याख्या के अनुसार समाजरूपी भगवान की पुनःस्थापना जगत् में करने का जो हमारा संकल्प है, वही धर्म है, अन्य सब अधर्म है। इसी नियम के अनुसार अपने कार्य में आनेवाली बाधाओं को हटाने की दृष्टि से जो काम किया जाए वही धर्म है।

7. हमारा काम गुणात्मक है। उसकी तुलना क्षेत्रात्मक कार्यों से नहीं की जा सकती। हमें तो वह शक्ति निर्माण करनी है जो नियंत्रित और अनुशासित हो। जिसके एक शब्द पर बड़े से बड़ा कार्य आरम्भ हो, इच्छा करने पर उसका संवरण भी किया जा सके। हमारा लक्ष्य केवल लोकजागरण करना ही नहीं हैं। कभी-कभी लोग सोचते हैं, उससे भी बड़ा काम खड़ा हो जाता है। किन्तु वह जितनी जल्दी खड़ा होता है, उतनी ही जल्दी नष्ट भी हो जाता है। सन् 1921 का असहयोग आन्दोलन और 1942 का 'भारत छोड़ो' आन्दोलन इसके अच्छे उदाहरण है। एक बार आन्दोलन शरू हुआ कि वह कौनसी दिशा लेगा, यह कहा नहीं जा सकता। उस पर नियंत्रण रहता नहीं। इन आंदोलनों से ध्वंस तो हो सकता है, निर्माण नहीं। सामूहिक निर्माण शक्ति की दृष्टि से अपना कार्य लोकक्षोभात्मक कार्य से उत्पन्न शक्तिओं से अधिक है। अपना कार्य नियंत्रित कार्यशक्ति निर्माण करने का है, लोकक्षोभ उकसाने का नहीं। यदि लोकक्षोभ पैदा करने की आवश्यकता हुई तो उसे काबू रखने की पात्रता भी हमें निर्माण करना है।


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The main theme of my life is to take the message of Sanatana Dharma to every home and pave the way for launching, in a big way, the man-making programme preached and envisaged by great seers like Swami Vivekananda. - Mananeeya Eknathji

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